ताजा खबर

जजों पर 'सरकारी अंकुश' या जजों की 'मनमानी', विवाद का समाधान कैसे निकलेगा?
26-Jan-2023 10:10 PM
जजों पर 'सरकारी अंकुश' या जजों की 'मनमानी', विवाद का समाधान कैसे निकलेगा?

-फ़ैसल मोहम्मद अली

जजों की नियुक्ति और तबादले को लेकर सरकार और न्यायपालिका में तकरार इस हद तक बढ़ चुकी है कि केंद्रीय कानून मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश लगातार ऐसे बयान दे रहे हैं जिनसे लगता है कि दरार भरने की जगह चौड़ी होती जा रही है.

सरकार की मानें तो कॉलेजियम जजों की नियुक्ति और तबादले के मामले में 'संविधान से परे' एक व्यवस्था है, जबकि न्यायपालिका का मानना है जजों की नियुक्ति के मामले में सरकार का दख़ल 'संविधान की मूल भावना' के प्रतिकूल है.

इस मामले में दो तरह की विचारधाराएँ सामने आती हैं, पहला ये कि सरकार न्यायपालिका को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश कर रही है जो संविधान के अधिकारों के विकेंद्रीकरण के सिद्धांत के विरुद्ध है. दूसरी विचारधारा ये है कि न्यायपालिका में भाई-भतीजावाद और निरंकुश मनमानी है जिसे ख़त्म किया जाना ज़रूरी है.

ऐसे में यह समझना कठिन हो गया है कि आख़िर दोनों में से कौन सही है और ऐसे विवाद का समाधान क्या हो सकता है?

कॉलेजियम पर केंद्र सरकार और सुप्रीम कोर्ट आमने-सामने, क्या है मामला?

क्या सरकार वाक़ई लाचार है?
न्यायपालिका को समझने वाले कई लोगों का मानना है कि जजों को चुनने की जो प्रक्रिया जारी है उसमें सरकार लाचार नहीं है बल्कि उसने जिन नियुक्तियों या तबादलों को कॉलेजियम की सिफ़ारिशों के बाद भी रोकना चाहा है, उसे रोका है.

मसलन, अक़ील कुरैशी का ही मामला ले लें या फिर सौरभ कृपाल की नियुक्ति के मामले पर नज़र डालें.

क़ानूनी मामलों के जानकार और लेखक मनोज मिट्टा से बीबीसी ने पूछा कि सरकार और न्यायपालिका के बीच हाल के दिनों में जजों की नियुक्तियों और तबादलों को लेकर जिस तरह से तनाव बढ़ता जा रहा है उससे सुलझाने का रास्ता क्या है?

कॉलेजियम की सिफ़ारिश के बावजूद जज अकील क़ुरैशी को सुप्रीम कोर्ट में नहीं नियुक्त किया गया, बांबे हाई कोर्ट की जगह उन्हें त्रिपुरा भेजा गया. वरिष्ठ अधिवक्ता सौरभ कृपाल को हाई कोर्ट का न्यायधीश नियुक्त करने की फ़ाइल भी सरकार रोक कर बैठी है.

मनोज मिट्टा का कहते हैं, "सरकार जिस तरह का मैसेज देने की कोशिश कर रही है, वैसा बिल्कुल नहीं है, मौजूदा व्यवस्था में वो निहत्थी नहीं है. कॉलेजियम की एकतरफ़ा मनमानी चल रही है, और चीफ़ जस्टिस और चार जज मिलकर जो तय करते हैं वही अंतिम लकीर होती है, ऐसा भी नहीं है."

इस तरह के उदाहरणों का ज़िक्र सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मदन बी लोकुर ने भी अपने लेख में किया है जिसमें उन्होंने जस्टिस कुरैशी और कई दूसरे उदाहरणों का हवाला देकर कहा है कि सरकार जिन नियुक्तियों के विरुद्ध रही है या तो वो चुपकर उस पर बैठ गई है, कई बार तो सरकार ने भेजे गए नामों में से एक या दो को नियुक्त कर दिया है और बाक़ी नाम वापस भेज दिए हैं.

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सरकार 21 नियुक्तियों की सिफ़ारिशों पर साल भर से अधिक से समय से फ़ाइलों को रोककर बैठी है.

भारत में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों को नियुक्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश और चार सीनियर जजों का एक ग्रुप है जो बातचीत करके जजों की नियुक्ति, तबादले वग़ैरह के लिए क़ानून मंत्री को सिफ़ारिश भेजता है, जिसके माध्यम से ये प्रधानमंत्री के पास जाता है, और उनकी सलाह पर राष्ट्रपति फिर इन पर अपना निर्णय लेते हैं.

ये व्यवस्था 1993 से जारी है लेकिन पिछले साल से केंद्र सरकार ने कॉलेजियम में जारी कथित भाई-भतीजावाद, चंद लोगों की मनमानी जैसे मुद्दों पर सवाल उठाए हैं, जिस पर बहुत सारे लोग सहमत हैं, लेकिन वो सरकार की मंशा और वह भविष्य में अपनी जैसी भूमिका चाहती है, उस पर भी सवाल उठ रहे हैं.

कॉलेजियम सिस्टम को लेकर जो प्रश्न उठाए गए हैं वो पारदर्शिता को लेकर है, क्योंकि किसी जज को किस आधार पर नियुक्त किया जा रहा है ये लोगों को मालूम नहीं होता.

सरकार की मंशा पर सवाल इस बात को लेकर हैं कि पिछली सरकारों ने, मगर ख़ास तौर पर मोदी हूकूमत ने जिस प्रकार से चुनाव आयोग, ईडी, सीबीआई वग़ैरह को अपने हिसाब से इस्तेमाल किया है वो न्यायपालिका को लेकर भी वही करेगी.

मनोज मिट्टा बताते हैं कि रोहिंटन मिस्त्री कॉलेजियम के सदस्य थे, और मनोज मिट्टा के मुताबिक़ चाहते थे कि अकील कुरैशी जैसे अच्छे जज को सुप्रीम कोर्ट में भेजा जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

सरकार और न्यायपालिका के बीच जारी रस्साकशी में सौरभ कृपाल ने भी बयान दिया है, उन्होंने कहा है कि हर जज का अपना नज़रिया हो सकता है इसका ये मतलब नहीं कि वो फ़ैसला देते समय पक्षपाती हो जाएगा क्योंकि उसे अंत में निर्णय संविधान के आधार पर देना है.

सरकार की तरफ़ से न्यायपालिका पर लगातार सवाल उठाए जा रहे हैं, जो लोग सवाल उठा रहे हैं उनमें उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ भी शामिल हैं जो पेशे से वकील रहे हैं.

ताज़ा सवाल केंद्रीय क़ानून मंत्री किरण रिजुजू ने उठाया है जिसमें उन्होंने एतराज़ जताया है कि सरकार जिन जजों के नामों पर आपत्ति जता रही है और उसकी वजह बता रही है उसे सुप्रीम कोर्ट ने जगज़ाहिर कर दिया है जो "बेहद ख़तरनाक और आपत्तिजनक है."

सरकार की आपत्ति हाई कोर्ट में तीन जजों की नियुक्ति को लेकर थी.

पत्रकारों के एक सवाल के जवाब में किरण रिजुजू ने कहा कि रॉ और इंटेलिजेंस ब्यूरो की गोपनीय और संवेदनशील रिपोर्टों पर खुली चर्चा देशहित में नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने जनवरी के तीसरे सप्ताह में पाँच व्यक्तियों के नाम हाई कोर्ट में नियुक्ति के लिए दोबारा सरकार को भेजे थे, तीन मामलों में सरकार को एतराज़ था, सरकार की इन आपत्तियों को कॉलेजियम ने गोपनीय नहीं रखा.

सरकार की तरफ़ से जो आपत्तियां थीं वो एक व्यक्ति के लैंगिक रुझान को लेकर थी, तो दूसरे के बारे में कहा गया था कि उनका पार्टनर विदेशी है, एक के सोशल मीडिया पोस्ट पर आपत्ति की गई थी जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना की थी.

सरकार की नीयत पर भी सवाल

पंजाब से कांग्रेस लीडर पवन बंसल का कहना था कि सरकार 'न्यायालय को अपने टूल के तौर पर इस्तेमाल' करना चाहती है वरना उसकी बहुत सारी नियुक्ति की सिफ़ारिशों को वो रोककर बैठी है.

पूरी बात को अपनी व्यक्तिगत राय बताते हुए वो कहते हैं कि हमारे समय में भी सरकार और न्यायपालिका में तनाव हुए लेकिन उसमें इस तरह की खटास नहीं थी.

कांग्रेस पार्टी ने भी जजों की नियुक्ति और तबादले से संबंधित कानून--नेशनल जुडिशिएल अप्वाइंटमेंट्स कमीशन एक्ट--का समर्थन किया था. सुप्रीम कोर्ट ने उसे असंवैधानिक बताते हुए ख़ारिज कर दिया था.

तब ये समझा गया था कि कॉलेजियम व्यवस्था में बदलाव के लिए विपक्षी दल भी उतने ही तैयार हैं जितना सरकार इसे चाहती है लेकिन देश की सबसे ऊंची अदालत के नकारने के बाद मामला कुछ सालों के लिए शांत-सा हो गया था.

मनोज मिट्टा कहते हैं कि सरकार जिस तरह से पूरे मामले तकऱीबन सात सालों के बाद फिर से गरमाने की कोशिश कर रही है और वो भी तब जब वर्तमान मुख्य न्यायधीश आज़ाद फ़ैसले लेते दिख रहे हैं, पूरे मामले पर संदेह खड़ा करता है.

वो कहते हैं कि मुख्य न्यायधीश डीवाई चंद्रचूड़ का कार्यकाल दो साल का होगा.

दूसरे लोगों की तरह मनोज मिट्टा भी इस बात से सहमत हैं कि जजों की नियुक्ति, तबादले वग़ैरह की व्यवस्था में बदलाव की ज़रूरत है लेकिन कहते हैं कि इसका जवाब कॉलेजियम में सरकार के प्रतिनिधि को शामिल करना नहीं है, जैसी मांग क़ानून मंत्री ने उठाई है.

पवन बंसल का भी कहना है कि सरकार क़ानून लाए, जिस पर सरकार और विपक्ष में गंभीर चर्चा हो, इस पर संसदीय समीति में चर्चा, लॉ कमीशन इसे देखे और फिर क़ानून पारित हो.

कॉलेजियम विवाद पर क़ानून मंत्री और केजरीवाल भिड़े, क्या है मामला

फ़ाली नरीमन कहते हैं कि 2003 में जजों की नियुक्ति और तबादले वग़ैरह को लेकर संसद में लाए गए बिल के आधार पर कार्यपालिका और न्यायपालिका में जारी वर्तमान रस्साकशी का हल निकल सकेगा.

जाने माने न्यायविद् और मशहूर वकील फ़ाली नरीमन सरकार को सलाह देते हैं कि वो 2003 में इसी जजों की नियुक्ति और तबादले वग़ैरह को लेकर संसद में लाए गए बिल को पढ़ें और उसी के आधार पर कार्यपालिका और न्यायपालिका में जारी वर्तमान रस्साकशी का हल निकल सकेगा.

फ़ाली नरीमन का कहना था कि इस मसौदे को फिर से संसद में लाकर जल्द से जल्द इसे पारित किया जाए और कॉलेजियम की जगह समिति सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से जुड़े मामलों पर फ़ैसला लेना शुरू करे.

अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार ने क़ानून के लिए जो मसौदा तैयार किया था उसमें सुप्रीम कोर्ट के तीन सीनियर जजों को मिलाकर पांच सदस्यीय एक समिति हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से संबंधित निर्णय लेती. इसमें फ़ैसला बहुमत के आधार पर होना था.

समिति में दो अन्य व्यक्तियों की नियुक्ति प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता को मिलकर करनी थी.

इंडिया टुडे टीवी के लिए दिए गए एक इंटरव्यू में फ़ाली नरीमन ने कहा कि ये बिल इसलिए पारित नहीं हो सका क्योंकि चुनाव सिर पर आ गए जिसके कारण संसद को भंग करना पड़ा था.

इस विशेष साक्षात्कार में फ़ाली नरीमन ने ये भी कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने जिस नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन को असंवैधानिक बताते हुए ख़ारिज कर दिया था, उसमें इस तरह का प्रावधान था कि सरकार की ओर से नियुक्त दो लोगों को वीटो हासिल था, यानी वो अगर नियुक्ति, तबादले और दूसरे मामलों से सहमत नहीं होते तो उसे ख़ारिज कर सकते थे.

चर्चा के दौरान किरण रिजुजू का वो बयान भी आया जिसमें उन्होंने कहा था कि जजों को चुनाव नहीं लड़ना होता है, नरीमन का कहना था कि अमेरिका में फ़ेडरल जजों के चुनाव की व्यवस्था है मगर वो सिस्टम ठीक से काम नहीं कर पा रहा है इसलिए वहाँ इससे दूर हटने की बात उठ रही है.

नरीमन की सलाह है कि मुख्य न्यायाधीश और प्रधानमंत्री या क़ानून मंत्री के बीच लगातार संवाद होते रहना चाहिए.

फ़ाली नरीमन ने ये स्वीकार किया कि ये जजों का काम नहीं है कि वो जजों की नियुक्ति करें.

ये सवाल सरकार भी उठाती रही है कि दुनिया भर में ऐसा कहीं नहीं होता कि न्यायधीश ख़ुद न्यायधीशों को नियुक्त कर रहे हों लेकिन लोकतंत्र में न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अहमियत भी कम नहीं है, ऐसे में कोई समाधान दोनों बातों के सामंजस्य से ही निकल सकेगा. (bbc.com/hindi)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news