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आज भी गांधी यादों की किरकिरी हैं। देश के करोड़ों नौजवान बेकार हैं। उनकी शिक्षा को मस्तिष्क से घुटनों की ओर यात्रा कराई जा रही है। अमीर परिवारों में कम से कम एक सदस्य को विदेश भगाया ही जा रहा है। नेता और उद्योगपति गंभीर बीमारियों में विदेश जाकर ही मरना चाहते हैं। झूठ, फरेब, झांसा, धोखा पीठ पर वार, चुगली, अफवाह सबका बाजार सेंसेक्स पर काॅरपोरेटिए उछलवा रहे हैं। वे ही देश के मालिक हैं। गांधी नहीं जानते थे नेता आगे चलकर काॅरपोरेटियों की कठपुतलियों की तरह अभिनय करेंगे। बुद्धिजीवी जीहुजूरी की धींगामस्ती करते वजीफा, पद और पद्म पुरस्कार पाएंगे। किसानों को आत्महत्या ब्रिगेड में बदला जाएगा। महिलाएं सड़कों से लेकर दफ्तरों और धर्म संस्थानों में भी देह बनाकर कुचली जाएंगी। अफसर खुद को गोरों की जगह गेहुंआ अंगरेज कहेंगे। सब मिलकर गांधी को इत्मीनान था कि साल में दो दिन जबरिया आए मेहमान की तरह लोग उन्हें बेमन से हाय हलो करेंगे। फिर अगले दिन इतिहास की गुमनामी की पगडंडी पर जाता देख मुस्कराकर टाटा करते रहेंगे। त्रासद यही है कि गांधी जिन्न नहीं हमारी जिंदगी हैं। इसलिए मरते भी नहीं हैं।
गांधी तो आज़ादी के वर्षों पहले से ही बिकाऊ तक नहीं बचे थे। दिल्ली के तख्ते ताऊस पर उनके चेले विराज रहे थे। वे नोआखाली की गलियों में हिन्दू मुसलमान के सड़ते घावों पर मरहम बनकर घर-घर रिस रहे थे। भारत की संविधान सभा में मुल्क की इबारत लिखने में गांधी की खड़िया हाथों से छिटक गई थी। आज़ादी की दहलीज़ पर गांधी अपशकुन की तरह आकर खड़े हो ही गए। तो एक स्वयम्भू सांस्कृतिक राष्ट्रवादी ने बन्दूक की उंगलियाँ उनकी छाती में धँसाकर खून पी लिया। गांधी का चरखा बेहद पिछड़ा, दकियानूस और ढीला ढाला होने से उसका राजघाट से विसर्जन कर दिया गया। शराबबंदी के वे प्रणेता थे। पार्टी संविधान में शराबबंदी की शर्त चिपकी बैठी थी, लेकिन टिकट उसे मिलती जो ज्यादा पी सके। शराब ठेकेदार प्रदेश अध्यक्ष बनते और दलाल जिलाध्यक्ष। ग्राम स्वराज का सपना कूड़े के ढेर पर फेंक दिया। आखिरी व्यक्ति के आँसू पोंछने का गांधी ताबीज बाँटते फिरते थे। वह आदमी इन्सान होने की परिधि से छिटककर पशुओं की तरह जुल्म सह रहा है। अंग्रेज़ सभ्यता को गांधी ने कोढ़ कहा था। उनके ही सत्ता-वंशजों ने सफेदी की तरह देह पर मल लिया। वे चाहते थे कि हमारे हुक्मरान तोप, तमंचों और बन्दूक-संगीनों के पहरों में नहीं रहें। हमारे पाँच सालाना राजनीतिक खसरों के अलग-अलग रकबाधारियों ने अंगरेज़ों से ज्यादा सुरक्षाकर्मी अपने चारों ओर बाड़ की तरह उगा लिये ताकि वे खेत को हिफाजत से चर सकें।
खादी की आधी टांगों पहनी धोती, कमर खुसी घड़ी, अजीब तरह के फ्रेम की ऐनक लगाए गांधी बिल्कुल वैसे दिखते हैं जैसे कि वे हैं ही। गांधी अधबुझे कोयले पर पड़ी सफेद राख की तरह दिखते हैं। फूंक मारकर उनके ताप और रोशनी को देखा और महसूस किया जा सकता है। इस अर्थ में गांधी हरीकेन का मानव रूप हैं। वे लगातार अपनी सात्विक जिद के सत्याग्रही हथियारों सिविल नाफरमानी और असहयोग को अंगरेजी सल्तनत को ढहाने करोड़ों मुफलिसों, अशिक्षितों, कमजोरों, पस्तहिम्मतों को हमकदम कर लेते हैं। बीसवीं सदी की राजनीति में ऐसा अजूबा बस केवल एक बार यही तो हुआ। जानना दिलचस्प है अमेरिका के राष्ट्रपति ओबामा अपने सीनेट कार्यालय में गांधी का एक बड़ा चित्र प्रेरणा पुरुष की तरह लगाते हैं।
गांधी क्लास को थर्ड क्लास का समानार्थी कहता हिकारत भरा अज्ञानी जुमला गांधी पर चस्पा कर दिया जाता है। गांधी ने बैरिस्टरी पढ़ते रोमन लाॅ के पर्चे को हल करने के लिए लेटिन भाषा ही सीख ली। अंगरेजी गद्य में उनकी ऐसी महारत रही है कि यदि राजनीति के पचड़े में नहीं भी पड़ते, तो केवल लेखन के इतिहास में हिन्दुस्तान क्या देश के बाहर भी सबसे बड़े गद्यकारों में शामिल होते। गांधी में बुद्धिजीवी विचार एक वृक्ष की तरह विकसित नहीं होता तो संभव है दुनिया के कई संघर्षशील जननेताओं की तरह गांधी भी इतिहास के बियाबान में केवल याद होते रहने के लिए दफ्न हो जाते।
स्वैच्छिक सादगी का आह्वान करने वाले गांधी शुरुआती जीवन में अंगरेजी वस्त्रों और भौतिक सुविधाओं से लैस रहे हैं। धीमी गति का पाठ पढ़ाने वाले गांधी के जीवन में इतनी तेज़ गतिमयता रही है कि वह भारत में किसी अन्य विशिष्ट व्यक्ति में देखने को नहीं मिलती। स्वैच्छिक गरीबी का उनका उद्घोष अलबत्ता उनके जीवन में प्रदर्शित रहा। अंगरेजी पार्लियामेन्ट को शुरू में वेश्या और बांझ कहने वाले गांधी भारतीय जीवन को उसी संसदीय पद्धति से बचा नहीं पाए। इस निर्णय को जनमानस का हुक्म होने के नाते उन्होंने स्वीकार कर लिया।
संसार में केवल गांधी बोले थे कि रोज़ अपने को सुधारते हैं। पीढ़ियां और इतिहासकार उनकी आखिरी बात को सच मानें। विपरीत, विसंगत और विकृत विचारों के किराए के भाषणवीर खुद के मन से बासी विचारों की सड़ांध बाहर नहीं निकालते। आज होते तो लुटते आदिवासियों के साथ खड़े होकर गोली भी खा सकते थे। उनका अठारह सूत्रीय रचनात्मक कार्यक्रम दफ्तर के कूड़े के डिब्बों में डाल चुके मंत्री गांधी प्रवक्ता बने अखबारों के पहले पृष्ठ पर विज्ञापित होते टर्रा रहे हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में गांधी विरोधी उनकी विचारधारा का मुंह नोच रहे हैं। गांधी अपनी मातृभूमि की ऐतिहासिकता की नीयत थे। उनके सियासी, प्रशासनिक, वैचारिक वंशजों ने उन्हें मुल्क की नियति नहीं बनाया। जश्नजूं भारत फिर भी गांधी के नाम पर इतिहास को लगातार गुमराह करते रहने से परहेज़ नहीं करेगा क्योंकि उसे आइन्स्टाइन की भविष्यवाणी को सार्थक करना है कि आने वाली पीढ़ियां कठिनाई से विश्वास करेंगी कि हाड़ मांस का ऐसा कोई व्यक्ति धरती पर कभी आया था।
गांधी ने अपनी पत्नी, पुत्र, बहन सबको दुख दिया। लोकतांत्रिक थे जो मर्यादा भुजा उठाए अपनी भावनाओं की हत्या करते रहे। परिवारजनों ने अछूत और कुष्ठ रोगियों का मलमूत्र साफ करने से इनकार कर दिया था तो उन्होंने रिश्तों को ही कुचल दिया। महात्मा की देह में पसीने की बदबू रोज विस्तारित होती थी। उनकी बहती छाती के रक्त के कण कण में राम का नाम गूंजता था। गांधी को हरिजन नाम प्रिय था। वह भी उनसे छीन लिया गया। वह जीवन भर बकरी का चर्बी रहित दूध पीते रहे। उनके जन्मस्थान पोरबन्दर के नाम पर घी के व्यापारियों की तोंदें फूल रही हैं। वे गरीबों की लाठी टेकते अरब सागर में नमक सत्याग्रह करते रहे। उनकी याद में दांडी नमक बेचते व्यापारी अरबपति हुए जा रहे हैं। गांधी के बेटों के शरीर का नमक घटता जा रहा है, लेकिन चेहरे की चाशनी बढ़ती जा रही है।