संपादकीय

चीन में सरकार बड़ी फिक्रमंद है कि अब देश की आबादी गिरना शुरू हो रही है। और अगर इस गिरावट में अलग-अलग उम्र के तबकों का एक संतुलन रहता, तो भी कोई बात नहीं रहती। हालत यह है कि नए बच्चे पैदा होना कम होते जा रहे हैं, और बूढ़ी आबादी टस से मस नहीं हो रही है। जिंदगी बेहतर होने, इलाज बेहतर होने की वजह से बूढ़े और अधिक बूढ़े होते चल रहे हैं, और मौत को धकेलते जा रहे हैं। लेकिन देश में उनका उत्पादक योगदान नहीं रह गया है, और वे या तो अपने परिवार, समाज पर बोझ हैं, या फिर सरकार पर। और सरकार की फिक्र यह है कि नौजवान या कामकाजी लोगों की उत्पादक आबादी का अनुपात गिरना नहीं चाहिए, वरना देश की कमाई कम होगी, और बूढ़ों पर खर्च अधिक होगा।
दरअसल चीन में आधी सदी पहले आबादी पर काबू पाने के लिए परिवारों के बच्चे पैदा करने पर रोक लगाई गई थी। इसमें शहरी इलाकों में शादीशुदा जोड़ों को एक बच्चा, और गांवों में दो बच्चे पैदा करने की छूट थी। इससे अधिक बच्चे पैदा करने पर सजा का इंतजाम था। नतीजा यह हुआ कि इस आधी सदी में लोगों के बच्चे कम हुए, वे बच्चे बिना भाई-बहन के बड़े हुए, और जब उनके मां-बाप बनने की बारी आई, तो उन्हें अपने बच्चों के भाई-बहन की बात न सूझी, न सही लगी। ऐसे में इस आधी सदी के भीतर ही चीन में आबादी बढऩा रूक गया, और इस बरस वहां होने वाली मौतों के साथ उसे जोडक़र देखें तो आबादी अब कम होना शुरू हो रही है।
जैसा कि हिन्दुस्तान में है, जब लोगों को एक ही बच्चा पैदा करना हो, तो अधिक लोग लडक़ा चाहते हैं, और चीन में भी ऐसी सोच रही, और गर्भपात से लोगों ने कन्या शिशु को रोका, और अब वहां आदमियों के मुकाबले शादी के लिए लड़कियां कम हैं, इसलिए भी शादियों में दिक्कत है, लड़कियां मिल नहीं रही हैं। दूसरी बात चीन की आज की अर्थव्यवस्था में एक से अधिक बच्चों को पालना भी बहुत बड़ा आर्थिक दबाव है, और लोग उसे उठाने की हालत में नहीं हैं। इस नौबत को सुलझाने के लिए सरकार वहां अधिक बच्चों पर कुछ किस्म की मदद और रियायत भी दे रही है, या देने जा रही है।
अब अगर चीन में कामकाजी जवानों का अनुपात कायम नहीं रहेगा, और बूढ़ों का अनुपात औसत उम्र बढऩे से बढ़ते चले जाएगा, तो एक बूढ़ा देश कामयाब अर्थव्यवस्था नहीं बन पाएगा। चीन में इस बात को लेकर बड़ी फिक्र हो रही है, लेकिन चीन से परे भी और देशों को अपने बारे में सोचना चाहिए। अब हिन्दुस्तान की बात करें, तो हिन्दुस्तान में आबादी को देश की हर दिक्कत की जड़़ मान लिया गया है। जिस आबादी की चीन को जरूरत लग रही है, वह आबादी हिन्दुस्तान में बेकार और बेरोजगार है, निठल्ली बैठी है। जो आबादी चीन की अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ा रही है, और चीन को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाकर चल रही है, वह आबादी हिन्दुस्तान में अगर बोझ है, तो उसके लिए कौन जिम्मेदार है? नौजवान कामगारों और कारीगरों की, हुनरमंद लोगों की जो पीढ़ी न सिर्फ देश के भीतर उत्पादक रहती है, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी दूर-दूर तक जाकर काम करती है, कमाई करती है, हिन्दुस्तान में आज वह निठल्ली या ठलहा बैठी है। इसकी जिम्मेदारी इस देश और इसके प्रदेशों की सरकारों की है जो कि पूरी नौजवान पीढ़ी को काम के लायक बनाकर, उनके काम के मौके मुहैया कराकर देश को आगे बढ़ा सकती थीं, लेकिन वे बेरोजगारी भत्ता देने को अपनी कामयाबी मान रही हैं। जब आबादी पढ़ी-लिखी होती है, टेक्नालॉजी के काम कर सकती है, सरकार और बाजार मिलकर उसे काम दे सकते हैं, और सब लोग कमा सकते हैं, वहां पर उसे बेरोजगारी भत्ता देना देश-प्रदेश की सरकारों की परले दर्जे की नाकामयाबी है जिससे ऐसे देशों का पूरा भविष्य ही अंधेरे में डूब रहा है।
हिन्दुस्तान और चीन, इन्हीं दो देशों को अगल-बगल रखकर देखें, तो 2023 में चीन में न्यूनतम मजदूरी 268 यूरो है, और हिन्दुस्तान में 55 यूरो। बाकी आंकड़ों को देखें तो चीन की प्रतिव्यक्ति आय 2021 में 12564 डॉलर थी, और उसी वक्त हिन्दुस्तान में यह 2280 डॉलर प्रतिव्यक्ति थी जो कि 5वां हिस्सा भी नहीं थी। इस उत्पादकता को हम चीनी नागरिकों की सरकारी स्वास्थ्य सेवा से जोडक़र देखें, तो वह कुछ बरस पहले हिन्दुस्तानियों के मुकाबले प्रतिव्यक्ति तेरह गुना से अधिक थी। पढ़ाई के मामले में चीन का प्रतिव्यक्ति खर्च हिन्दुस्तान के प्रतिव्यक्ति से करीब सात गुना था। अब आंकड़ों पर अधिक न जाते हुए भी हम नौजवान पीढ़ी के कामकाजी बनने लायक पढ़ाई और स्वास्थ्य सेवा दो पैमानों को जरूर देख रहे हैं, और यह समझ पड़ रहा है कि चीन ने इन दोनों में खूब पूंजीनिवेश किया है, लोगों को हुनरमंद बनाया है, और उन्हें देश की उत्पादकता बढ़ाने वाला बनाया है। वहां की आबादी आधी सदी पहले वहां बोझ थी, और आज वहां पर दौलत बन गई है। कमाई की इस खदान का महत्व चीन को आधी सदी के भीतर समझ आ गया है, और आज वह आबादी बढ़ाते चलना चाह रही है। दूसरी तरफ आबादी को समस्या मानकर बैठे हुए हिन्दुस्तान में लोग आबादी को सिर्फ बेरोजगारी भत्ता देकर उसे खुश रखना चाहते हैं, जो कि देश पर एक बोझ भी है, और जिससे किसी उत्पादकता की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है।
चीन को कोसने के लिए हिन्दुस्तानियों को हजार वजहें मिल सकती हैं, लेकिन चीन से सीखने की वजहें तो चीन में अपनी नौजवान आबादी की इज्जत और जरूरत है, जिससे हिन्दुस्तान की बेरोजगारी भत्ता देने वाली सरकारों को बहुत कुछ सीखना चाहिए। जो देश इतनी बड़ी जमीन रहते हुए, इतनी समुद्री सरहदें रहते हुए, सूरज की इतनी रौशनी और धरती के भीतर इतने खनिज रहते हुए भी अपनी आबादी को बेरोजगारी भत्ता दे, वहां की सरकारों को डूब मरना चाहिए। चीन से दो-दो हाथ कर लेने के राष्ट्रवादी उन्मादी नारों से परे हकीकत यह है कि हिन्दुस्तान के बाजार, दुकानें, और कारखानें चीन से आए सामान के बिना चार दिन नहीं चल सकते, यह एक अलग बात है कि चीन हिन्दुस्तानी बाजार के बिना चार बरस भी चल सकता है।
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