संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नजीर, यह कैसी नजीर पेश की है?
13-Feb-2023 3:19 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : नजीर, यह कैसी नजीर पेश की है?

Photo credit : कार्टूनिस्ट मंजुल

सुप्रीम कोर्ट के एक और जज को राज्यपाल बनाया गया है जो अयोध्या में राम मंदिर बनाने, और तीन तलाक को गैरकानूनी करार देने, और नोटबंदी को जायज ठहराने वाली बेंच पर रहे हैं। जज एस.अब्दुल नजीर अभी 4 जनवरी को ही रिटायर हुए थे, और 40 दिन के भीतर उन्हें आन्ध्र का राज्यपाल बना दिया गया है। अयोध्या में मंदिर का फैसला देने वाली पांच जजों की संविधान बेंच के रंजन गोगोई को मोदी सरकार राज्यसभा भेज चुकी है, और अशोक भूषण को एनसीएलटी का अध्यक्ष बना चुकी है। यह बात भी खबरों में आ चुकी है कि अयोध्या पर मंदिर बनाने के ऐतिहासिक फैसले को पांच जजों की बेंच में अशोक भूषण ने ही लिखा था। इन पांच में से एक, डी.वाई.चन्द्रचूड़ चीफ जस्टिस बन चुके हैं। कांग्रेस ने एस.अब्दुल नजीर को राज्यपाल बनाने के फैसले की आलोचना करते हुए कहा है कि यह न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमला है। कांग्रेस ने अपने तर्क की वकालत में एक गुजर चुके बड़े भाजपा नेता और सुप्रीम कोर्ट के बड़े वकील रहे, केन्द्रीय कानून मंत्री रहे अरूण जेटली का संसद के एक भाषण का वीडियो पोस्ट किया है जिसमें जेटली कह रहे हैं कि रिटायर होने के ठीक पहले के जजों के फैसले रिटायरमेंट के बाद मिल सकने वाले कामों से जुड़े रहते हैं। यह बात अरूण जेटली ने संसद में कही थी, लेकिन संसद के बाहर भी बहुत से लोगों में यह चर्चा होती रहती है कि जजों को रिटायर होने के बाद क्या ऐसे कोई काम लेने चाहिए जिनमें कोई रिटायर्ड जज होना जरूरी न हो। भारत में ऐसी दर्जनों कुर्सियां तय की गई हैं जिन पर रिटायर्ड हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जजों को ही नियुक्त किया जा सकता है, लेकिन राजभवन वैसी बंदिश की जगह नहीं है, राज्यपाल बनाने के लिए जज होना कहीं जरूरी नहीं है। 

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम जजों और अफसरों के रिटायर होने के बाद उन्हें किसी जगह मनोनीत करने के खिलाफ लगातार लिखते आए हैं। बरसों से हम यह मुद्दा उठाते आए हैं कि किसी भी राज्य में वहां काम कर चुके जज या अफसर को किसी पद पर मनोनीत नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसी आस लगाए हुए लोग रिटायरमेंट के पहले सरकार की मर्जी के काम करने का खतरा रखते हैं। यह सीधे-सीधे हितों के टकराव का एक मामला रहता है, और इससे इंसान बच नहीं सकते हैं। अरूण जेटली ने संसद में इसी इंसानी कमजोरी के बारे में कहा था, और हमने इस बात का विस्तार पिछले दस-बीस बरस में हर बरस एक से अधिक बार किया है कि राज्य से रिटायर हो रहे लोगों को उस राज्य में कोई नियुक्ति न मिले। हम यह देखते ही आए हैं कि बहुत सारी संवैधानिक कुर्सियां सत्ता के साथ गठबंधन में खोखली हो जाती हैं, और ऐसे ओहदों की जिम्मेदारी अहसान चुकाते दम तोड़ देती है। 

हिन्दुस्तान में वैसे भी बहुत सारे संवैधानिक आयोग, तरह-तरह के ट्रिब्यूनल, कौंसिल ऐसे हैं जहां पर रिटायर्ड जजों को ही नियुक्त किया जा सकता है। इस बारे में एक दस्तावेज बताता है कि 1950 से अब तक 44 मुख्य न्यायाधीश रिटायरमेंट के बाद कोई न कोई काम मंजूर कर चुके हैं। सुप्रीम कोर्ट के सौ रिटायर्ड जजों में से 70 ने सरकारी मनोनयन से कोई दूसरा ओहदा संभाला है। कुछ मामलों में तो सुप्रीम कोर्ट के जजों को रिटायर होने के चार महीने पहले भी किसी आयोग में मनोनीत किया जा चुका है। इस बारे में पहले भी जानकार लोग यह बात लिख चुके हैं कि रिटायर होने के तुरंत बाद जजों को ऐसी कुर्सियां मंजूर करना खटकने वाली बात है जहां किसी गैरजज को भी मनोनीत किया जा सकता था। सरकार को सुहाने वाले फैसलों के बाद जब किसी जज को फायदे, सहूलियत, और अहमियत का कोई ओहदा दिया जाता है, तो वह शुकराना अधिक लगता है, और यह एक खतरनाक सिलसिला खड़ा करता है। 

हमने राज्यों के स्तर पर तो उस राज्य के रिटायर्ड जज और अफसर से बचने की नसीहत दी ही थी, और यह भी सुझाया था कि राष्ट्रीय स्तर पर एक टैलेंट-पूल बनाना चाहिए जिसमें काम करना चाहने वाले रिटायर्ड लोग अपना नाम दर्ज करा सकें, और फिर दूसरे राज्यों की सरकारें उनमें से नाम छांट सकें। जिस राज्य में पूरी जिंदगी काम किया हो, या हाईकोर्ट में जज रहते हुए सरकार से जुड़े हुए बहुत से मामलों में फैसले दिए हों, उसी राज्य में उसी सरकार से वृद्धावस्था-पुनर्वास की बख्शीश पाना नाजायज है। अब राज्यों के स्तर पर तो दूसरे राज्यों से लोगों को लाना चल सकता है लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सुप्रीम कोर्ट जजों को किसी दूसरे देश भेजना तो हो नहीं सकता। फिर भी इतना तो होना ही चाहिए कि जहां रिटायर्ड जज को ही नियुक्त करने की बंदिश न हो, वहां तो रिटायर्ड जजों को बिल्कुल न छुआ जाए, और राजभवन ऐसी ही एक जगह है। लोकतंत्र में सरकार और जजों को न सिर्फ ईमानदार रहना चाहिए, बल्कि उन्हें ईमानदार दिखना भी चाहिए। जहां कोई कानूनी बंदिश न हो, वहां पर ऐसी आजादी का नाजायज फायदा उठाकर यह तर्क देना बेईमानी है कि इस पर कोई कानूनी रोक नहीं है। लोकतंत्र में हर बात कानूनी रोक से काबू में नहीं की जाती है, कुछ गौरवशाली परंपराओं, और कुछ जनभावनाओं का भी ख्याल रखा जाता है। आज अपार, असाधारण, और जरूरत से ज्यादा बहुमत की सरकार कुछ भी कर सकती है, लेकिन उससे उसका हर फैसला लोकतांत्रिक और जायज नहीं हो जाता। 

बड़ी अदालतों के फैसलों को नीचे की अदालतों में एक मिसाल की तरह पेश किया जाता है जिसे नजीर कहा जाता है। एस.अब्दुल नजीर ने, और केन्द्र सरकार ने भी देश के सामने एक बहुत खराब नजीर पेश की है। इन दोनों को ऐसा करने का हक है, लेकिन यह देश की लोकतांत्रिक भावनाओं, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, और जनभावनाओं के ठीक खिलाफ काम है, यह एक अच्छी नजीर नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news