संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मिसाल तो मलबेतले से भी निकलती है, और समंदर के सीने पर से भी
19-Feb-2023 3:38 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मिसाल तो मलबेतले से भी निकलती है, और समंदर के सीने पर से भी

भूकम्प से बर्बाद तुर्की से अभी दो-तीन दिन पहले खबर आई थी कि वहां गिरी हुई इमारत के मलबे तले दस दिनों से दबी हुई एक लडक़ी को इतना वक्त सर्द मौसम में गुजार लेने के बाद अभी बचाया जा सका है। दसवें दिन भी दो महिलाओं और दो बच्चों को मलबे से जिंदा निकाला गया था। इसे करिश्मा ही माना जा रहा था, और यह एक विश्व रिकॉर्ड बन गया था कि अभी तीन दिन और गुजरने के बाद तीन लोगों को मलबे के नीचे से और बचा लिया गया है, यानी पिछला रिकॉर्ड तीन दिन भी नहीं टिक पाया। ये लोग भूख-प्यास के बावजूद बिना किसी मदद के, बिना गर्म कपड़ों के जिंदा थे। तुर्की और सीरिया के इस भूकम्प में 46 हजार से अधिक लोग मारे जा चुके हैं। इसे सदी का इस इलाके का सबसे जानलेवा भूकम्प माना जा रहा है, और लोगों के इस तरह बचने को आस्तिक लोग ऊपरवाले की मेहरबानी मान रहे हैं, और नास्तिक लोग इसे इंसान के जिंदा रहने के जज्बे की एक बड़ी मिसाल। 

जो भी हो, तुर्की और सीरिया के इस हाल को देखकर बाकी दुनिया को हौसले की एक बड़ी नसीहत लेने की जरूरत है। दुनिया का हर हिस्सा इतनी बड़ी मुसीबत से नहीं घिरता है। खासकर सीरिया तो बरसों से गृहयुद्ध से घिरा हुआ है, विदेशी हमलों का शिकार है, और कल ही इजराइल ने वहां एक मिसाइल हमला किया जिसमें 15 मौतों की खबर है। इतने किस्म की कुदरती और इंसानी मार कुछ देशों पर पड़ी हुई है, लेकिन वहां लोगों का हौसला है जो कि दस-दस मंजिली इमारतों के दस-बीस फीट ऊंचे रह गए मलबे के नीचे भी जिंदा है। और यह हौसला देखकर उन लोगों को बहुत कुछ सीखना चाहिए जो कि अपनी जिंदगी की अनिश्चितता से, उसकी नाकामयाबी से, उसकी तकलीफों से निराश होकर जिंदगी छोडऩे की सोचते हैं। ऐसा आए दिन हो रहा है, अभी दो दिन पहले ही ये आंकड़े सामने आए कि हिन्दुस्तान में पिछले दो-तीन बरसों में कितने लाख मजदूरों ने खुदकुशी की, कितनी लाख महिलाओं ने जान दे दी, और ऐसे ही कुछ और तबकों के भी आंकड़े सामने आए हैं। कई लोग इसे कोरोना और लॉकडाउन के दौर में सरकार की नाकामी का नतीजा मान रहे हैं, कुछ लोग इसकी जड़ें नोटबंदी और जीएसटी की दिक्कतों से बर्बाद हुए कारोबार में देख रहे हैं, जो भी हो, आम हिन्दुस्तानी की हालत आज किसी इमारत के मलबे में दबे हुए इंसान से बेहतर तो है ही। दुनिया की मिसालों से सरकारों को भी सबक लेना चाहिए, और लोगों को भी। किसी भी मिसाल से इन दोनों के लिए अलग-अलग नसीहतों का मौका रहता है, और सरकारों के लिए भी हम लिखते ही रहते हैं कि देश में धर्मान्धता और कट्टरता को बढ़ाने का नतीजा क्या होता है, इसे समझने के लिए अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे नाकामयाब लोकतंत्रों की तरफ देखना चाहिए, और अब तक वैसी नौबत में न पहुंचे हुए देशों को वैसी धर्मान्धता, और कट्टरता से बचना चाहिए। लेकिन सरकारों से परे इंसानों के सीखने की बातें भी तमाम नौबतों में रहती हैं। लोगों को बुरे से बुरे वक्त में भी किसी अच्छे की न तो उम्मीद छोडऩी चाहिए, और न ही उसकी कोशिश बंद करनी चाहिए। 

जिंदगी की छोटी-छोटी मिसाल भी बड़े-बड़े हौसले दे जाती है। फिलीस्तीन में इजराइली हमले का शिकार एक ऐसा फोटोग्राफर है जिसका बदन बस कमर के ऊपर बचा है, नीचे कुछ भी नहीं है। और वह न सिर्फ जिंदा है, बल्कि पहियों की कुर्सी पर चलते हुए वह फोटोग्राफी का अपना काम भी करता है, और फिलीस्तीन की आजादी की लड़ाई भी लड़ता है। ऐसे और भी लोग हैं जो बिना हाथ-पैर के पैदा हुए हैं, और जो आज दूसरे लोगों को प्रेरणा देने के लिए बड़े-बड़े कार्यक्रमों में मंच पर व्याख्यान देते हैं। एक वक्त कुछ लोग इस बात पर बहस कर रहे थे कि वे तो अंग्रेजी जानते नहीं हैं, और दुनिया घूमने कैसे जा सकते हैं, तो एक समझदार ने उन्हें याद दिलाया कि जो लोग मूक-बधिर होते हैं, न सुन सकते न बोल सकते, क्या वे कहीं जाते ही नहीं हैं? और यह बात भी कई बरस पहले की थी, अब तो आम मोबाइल फोन पर लोग दुनिया की किसी भी देश की जुबान में अनुवाद कर सकते हैं, किसी भी भाषा में पूछे गए सवाल का अपनी भाषा में जवाब देकर उसे मोबाइल फोन की स्क्रीन पर किसी तीसरी या चौथी भाषा में भी दिखा सकते हैं। जरूरत हौसले की थी, और टेक्नालॉजी ने तो वक्त के साथ सारी दिक्कतें दूर कर ही दीं। लेकिन टेक्नालॉजी हौसला नहीं दिला सकती, वह खुद का ही लगता है। लोगों को याद होगा कि कई बरस पहले जब अमरीका के न्यूयॉर्क में मौसम के बदलाव के खतरों पर एक अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम हो रहा था, तो स्वीडन की एक किशोरी, ग्रेटा थनबर्ग, लोगों का ध्यान खींचने के लिए एक बोट पर सवार होकर 35 सौ मील का समुद्री सफर तय करके न्यूयॉर्क पहुंची थी, और तब से लेकर अब तक वह मौसम के बदलाव के मोर्चे पर दुनिया की सबसे लड़ाकू नौजवान सामाजिक कार्यकर्ता बनी हुई है। इस लडक़ी ने अपने मां-बाप से लेकर अपने स्कूल तक, और अपने देश की संसद तक को अपने आंदोलन से मजबूर किया कि वे जीवनशैली में बदलाव लाएं ताकि पर्यावरण बच सके। उसने शुरूआत घर से की, फिर अपना शहर, फिर अपना देश, और फिर समंदर चीरते हुए वह ब्रिटेन से अमरीका पहुंची थी। हिन्दुस्तान में इस टीनएज के तकरीबन तमाम बच्चे पर्यावरण के बजाय अपने मोबाइल फोन के अगले मॉडल में मगन दिखते हैं, और पर्यावरण को बचाना उन्हें सफाई कर्मचारियों और रद्दी बीनने वालों का जिम्मा लगता है। इसलिए न सिर्फ हौसले की, बल्कि जागरूकता की नसीहत लेना भी मुमकिन है, कोई दस मंजिला इमारत के मलबेतले बिना खाए-पिए सर्द मौसम में जिंदा रहने का हौसला दिखा रहे हैं, तो कोई अपने खेलने-खाने के दिनों में दुनिया को बचाने, गैरजिम्मेदार और लापरवाह अमरीकी राष्ट्रपति को आईना दिखाने के लिए समंदर चीरने का हौसला दिखाते हैं, और इन सबसे बाकी दुनिया के सीखने का बहुत कुछ रहता है। ऐसी हर मिसाल पर लोगों को अपने आसपास के लोगों से भी चर्चा करनी चाहिए, और चाहे इनसे कितनी ही शर्मिंदगी क्यों न खड़ी होती हो, लोगों को अपने बच्चों से भी इन मिसालों की चर्चा करनी चाहिए। हो सकता है कि वे फोन पर ऑर्डर किए हुए पीत्जा का इंतजार करते हुए वीडियो गेम खेल रहे हों, लेकिन उन्हें असल जिंदगी की ऐसी करिश्माई लगती घटनाएं जरूर बतानी चाहिए, हो सकता है कि किसी एक बात से उन्हें अपनी बाकी जिंदगी के लिए एक बेहतर रास्ता सूझे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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