संपादकीय

सुप्रीम कोर्ट ने एक शानदार आदेश देकर चुनाव आयोग की नियुक्तियों का तरीका बदल दिया है। अब तक केन्द्र सरकार चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त अपनी मर्जी से नियुक्ति करते आई है, लेकिन अब ये नियुक्तियां प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और देश के मुख्य न्यायाधीश की एक कमेटी की सिफारिश से होंगी। पांच जजों की एक संविधानपीठ ने यह फैसला लिया है, और इसे संसद कोई कानून बनाकर ही पलट सकेगी। उल्लेखनीय है कि देश के पिछले एक चुनाव आयुक्त अरूण गोयल को केन्द्र सरकार ने भयानक हड़बड़ी में पिछले बरस उस वक्त नियुक्त किया था जब सुप्रीम कोर्ट में चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के तरीके बदलने पर सुनवाई चल ही रही थी। यह कुर्सी 5 मई 2022 से खाली थी, लेकिन इस सुनवाई की वजह से 18 नवंबर को केन्द्र सरकार ने अपनी पसंद के इस चुनाव आयुक्त को आनन-फानन नियुक्त कर दिया। अभी इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने यह हैरानी जाहिर की कि गोयल की नियुक्ति जिस बिजली की गति से एक दिन में पूरी की गई वह हक्का-बक्का करने वाली थी। अदालत ने इस फैसले में दर्ज किया कि 18 नवंबर को चुनाव आयुक्त की खाली कुर्सी भरने के लिए मंजूरी मांगी गई थी उसी दिन कार्यरत और रिटायर्ड आईएएस अफसरों का डेटाबेस बनाया गया, चार नामों पर विचार किया गया, दिसंबर में रिटायर होने जा रहे गोयल ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति मांगी, और फिर इसके लिए लगने वाले तीन महीनों के समय से छूट मांगी, प्रधानमंत्री ने छूट दी, और उसी दिन उन्हें चुनाव आयुक्त बना दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने हैरानी जाहिर की कि अगर इस अफसर को नियुक्ति के बारे में पता नहीं था, तो उसने 18 नवंबर को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए आवेदन कैसे किया था?
इन तमाम जानकारियों को लिखने का मकसद यह है कि आज सुप्रीम कोर्ट को देश के किन हालात को देखते हुए, केन्द्र सरकार के कौन से तौर-तरीकों को देखते हुए यह फैसला देना पड़ा, वह साफ हो सके। जिस वक्त सुप्रीम कोर्ट इस मामले में फैसला कर ही रहा था, उस वक्त जिस आनन-फानन तरीके से गोयल की नियुक्ति की गई उसने केन्द्र सरकार की ऐसी ताकत पर सवाल खड़े कर दिए थे कि सत्तारूढ़ पार्टी को अगले चुनाव में किसी तरह का फायदा देने की ताकत रखने वाले चुनाव आयोग में अगर नियुक्तियां सत्तारूढ़ पार्टी इसी तरह बिना किसी रोक-टोक कर सकेगी तो वह आने वाले चुनावों की निष्पक्षता खत्म करने की गारंटी होगी। हमारा ख्याल है कि सुप्रीम कोर्ट को इस पिछले चुनाव आयुक्त की नियुक्ति पर भी सवाल उठाने थे, और केन्द्र सरकार से अधिक कड़ाई से जवाब-तलब करना था। यह नौबत बदलने की बहुत जरूरत थी, और यह अच्छी बात है कि सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की संविधानपीठ ने यह फैसला लिया है। आज हिन्दुस्तान में संवैधानिक संस्थाओं को केन्द्र सरकार के शिकंजे में लाने का जो निरंतर सिलसिला चल रहा है, वह देश से लोकतंत्र को खत्म करने का पूरा खतरा रखता है। दिलचस्प बात यह है कि अरूण गोयल नाम के जिस अफसर से इस्तीफा लेकर, उसे रातों-रात कुछ घंटों में ही चुनाव आयुक्त बना दिया गया, उसकी वरिष्ठता के 160 ऐसे अफसर थे जो कि उम्र में उनसे छोटे भी थे, और चुनाव आयोग में कार्यकाल पूरा कर सकते थे। ये तमाम बातें बताती हैं कि मोदी सरकार किस अंदाज में एक-एक संवैधानिक कुर्सी, एक-एक संवेदनशील ओहदे पर अपनी पसंद के लोगों को बिठाकर देश में अपनी पसंद का एक लोकतंत्र बना चुकी है। सुप्रीम कोर्ट के इस ताजा फैसले की ही मिसाल देकर देश में ऐसी दूसरी नियुक्तियों के बारे में भी एक पिटीशन लगानी चाहिए जो कि सरकार से परे रहने वाली कुर्सियों की है, लेकिन जिन्हें सरकार ने अपनी पसंद से भरने का हक बना रखा है। बहुत सी जांच एजेंसियों, और दूसरे पदों पर लोगों को बिठाने, उन्हें हटाने, उनका कार्यकाल बढ़ाने का काम सरकार की मर्जी पर नहीं छोडऩा चाहिए, और जिस तरह सीबीआई के डायरेक्टर के लिए प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता, और देश के मुख्य न्यायाधीश की कमेटी काम करती है, उसी तरह बाकी एजेंसियों की नियुक्तियां भी होनी चाहिए, और देश में इन तमाम जांच एजेंसियों को एक अलग संवैधानिक संस्था के मातहत करना चाहिए, और सरकार से इन्हें अलग करना चाहिए। जिस तरह आज न्यायपालिका या चुनाव आयोग अलग संवैधानिक संस्थाएं हैं, उसी तरह देश की प्रमुख जांच एजेंसियां भी सरकार के सीधे नियंत्रण से परे एक अलग संवैधानिक संस्था के नियंत्रण में होनी चाहिए, उसके प्रति जवाबदेह होने चाहिए। इस ताजा फैसले में संविधानपीठ ने एक बहुत सही बात कही है- एक कमजोर निर्वाचन आयोग घातक परिस्थिति पैदा कर देगा, लोकतंत्र तभी सफल हो सकता है जब सभी भागीदार चुनाव प्रक्रिया की शुचिता को बनाए रखने के लिए मिलकर काम करें ताकि लोगों की इच्छा सामने आ सके। सरकार के अहसान से दबा व्यक्ति कभी भी खुदमुख्तार होकर काम नहीं कर सकता।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला उम्मीद जगाने वाला भी है कि सरकार की मनमानी के खिलाफ अभी भी भारतीय लोकतंत्र में एक काबू की गुंजाइश है। देश की जनता और जनसंगठनों को, राजनीतिक दलों और मीडिया के अब तक बचे हिस्सों को लोकतांत्रिक संभावनाएं टटोलना बंद नहीं करना चाहिए। लोकतंत्र ऐसी स्थितियों के बीच ही एक बार फिर से खड़ा होने की संभावना रखता है, और सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले, और इस रूख से यह उम्मीद जागती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)