विचार / लेख

नासिरुद्दीन
बिना रजामंदी के किसी स्त्री के शरीर को छूना, अपराध है। फिर छटपटाती स्त्री के कपड़े में हाथ डाल देना। बिना सहमति के बाँहों में जकडऩा। उसके अंगों को मजे-मजे ले-लेकर मसलना। उसे जाँघों तले दबाना। उसकी चोटियों को ही उसे काबू में करने का औजार बना देना। ज़बरदस्ती मुँह से मुँह सटाना। गालों को नोचना। गाल और गर्दन पर हाथ फेरना। सहलानाज् यह सब किस श्रेणी में आयेगा?अपराध होगा या नहीं?
होली के मौक़े पर दिल्ली में जापान की युवती के साथ बदसलूकी का एक मामला सामने आया। इससे जुड़ा एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है। अब वो लडक़ी भारत से वापस चली गई हैं लेकिन दिल्ली पुलिस की ओर से इस मामले में कार्रवाई की बात सामने आई है।
होली के बाद से सोशल मीडिया पर कुछ ऐसे वीडियो दिख रहे हैं। उनमें ऐसी ही तस्वीरें दिख रही हैं। कहने को यह सब होली के नाम पर हो रहा है। मगर यह होली किसी के लिए यंत्रणा बन जाए और हम कहें कि बुरा न मानोज् या इसमें बुरा मानने की क्या बात है? यह क्या बात हुई?
ऐसा नहीं है कि होली में यह सब पहली बार हो रहा है। या पहली बार किसी स्त्री या लडक़ी के साथ ऐसा हो रहा है। या सिर्फ होली में ही ऐसा होता है। बाकी दिन तो स्त्रियाँ बहुत बेखौफ घूमती हैं! मर्द उन पर नजर भी नहीं डालते! न ही उनके कपड़े के आर-पार देखने की कोशिश करते हैं!
लेकिन बात होली पर ही क्यों हो रही है? खूबसूरत रंगीन होली हमारे समाज में हर तरह की छूट लेने वाले त्योहार का नाम है। लेकिन इस छूट का नजरिया पूरी तरह मर्दवादी है। दबंग मर्दाना।
स्त्री देह का बलात अतिक्रमण
मर्द यह छूट लेता है कि वह कैसे हुड़दंग करेगा। खुलेआम गालियाँ देगा और उन गालियों के गीत गाएगा। वह स्त्रियों के अंगों और कपड़े को निशाना बनाते गीत गाएगा। वह भद्दे द्विअर्थी गीत गाएगा। इन गीतों का मकसद कहीं से भी स्त्री के सम्मान में बढ़ोतरी करना नहीं है।
मगर स्त्री-पुरुष के रिश्ते पर चौतरफा चौकीदारी करने वाला समाज इसकी इजाजत कैसे देता है? वह पहले ऐसी हरकतों को छेड़छाड़, हँसी-ठिठोली-मजाक जैसा खूबसूरत नाम देता है। इन्हें सामान्य या मामूली बनाता है। इसके बाद यही समाज में कुछ रिश्तों में स्त्री-पुरुषों के बीच हँसी-ठिठोली-मजाक की इजाजत देता है। यानी देवर-भाभी, जीजा-साली/साला, मामी-भाँजा आपस में हँसी-मजाक कर सकते हैं।
चौकीदारी करने वाला समाज इनके बीच की हँसी-ठिठोली को बुरा नहीं मानता लेकिन होली में यह हँसी-ठिठोली महज शब्दों का मजाक नहीं रह जाता। यह देह पर आक्रमण करता है। इस आक्रमण में ऊँगली पर गिनने वाली भाभियाँ होंगी जो देवरों पर हमलावर हो पाती हैं।
यहाँ पुरुष ही हमलावर रहता है। वह मजाक के रिश्ते का खुलेआम मजाक बनाता है। यह रिश्तों की छेडख़ानी की परिभाषा से परे स्त्री देह का बलात अतिक्रमण है।
अब उस मर्का का हौसला देखिए। एक बहनोई अपनी साली के साथ जबरदस्ती करता है। उसका वीडियो बनाने के लिए कहता है। छटपटाती और चिल्लाती लडक़ी का वीडियो बनता रहता है, जीजा वह सब करता है, जो वह करना चाहता है। परिवारीजन इसे रिश्ते की मर्यादा मानकर तमाशबीन बने रहते हैं।
इस होली का मजा सिर्फ वह मर्द लेता है। लडक़ी नहीं। इसी तरह भाभियों पर रंग उँड़ेलते, उनके कपड़ों में जबरन रंग डालते, उन्हें पटकते और पटककर सीने पर चढ़ते वीडियो भी देखे जा सकते हैं। लड़कियों के देह को निशाना बनाकर पिचकारी और बैलून मारने के तजुर्बे सुने जा सकते हैं।
(एक बात ध्यान रखें ऐसा नहीं है कि ऐसे तजुर्बे स्त्रियों को साल में होली के एक दिन ही होता है।)
विडंबना ये कि होली के दिन ही था महिला दिवस
देश के बड़े हिस्से में होली उस दिन मनाई गयी, जिस दिन महिला दिवस होता है। महिला दिवस यानी स्त्री के अपने हक के लिए संघर्ष और जीत के जश्न का दिन है।
हिंसा से परे बेहतर और सुरक्षित घर-परिवार-समाज-दुनिया बनाने के लिए एकजुट होने वाली स्त्रियों का दिन है। इस बार उसी दिन होली पड़ी। यानी दो-दो जश्न। लेकिन कुछ स्त्रियों के लिए तो यह त्रासदी का दिन बन गया।
जब हम त्योहार पर अपने घर-परिवार की स्त्रियों की देह से बेखौफ और बेझिझक खेल लेते हैं तो सामने कोई और गैर-रिश्ते वाली स्त्री हो तो हम कैसे चूक सकते हैं। त्योहार के नाम पर उसके देह के साथ भी वही करते हैं। फिर चाहे वे विदेशी महिला पर्यटक ही क्यों न हों। उसे ही हम कहते हैं-बुरा न मानो।
मर्दवादी मर्द
जिस किसी महिला या लडक़ी के साथ ऐसा हुआ, यकीन जानिए वह त्रासद अनुभव से गुजरी हैं। ट्विटर पर हम कुछ के बयान पढ़ सकते हैं। उनके लिए होली ताउम्र एक बुरी याद बन कर रह जाए तो ताज्जुब नहीं।
मगर क्या हमने उन वीडियो के मर्दों को देखा है? मजे लेते मर्द। हँसते मर्द। वीडियो बनाते मर्द...और वीडियो देखकर मजे लेते मर्द। फॉरवर्ड फॉरवर्ड कर मजे और मस्ती का विस्तार करते मर्दवादी मर्द।
इसे समझने के कई तरीके हो सकते हैं। एक है, दबी हुई मर्दाना हिंसक यौन इच्छाओं का सामने आना। जहाँ एक ओर, कुछ मर्द सीधे-सीधे अपनी यौन कुंठाओं को शांत कर रहे हैं। कुछ स्क्रीन पर आँखों देख कल्पनाओं में उस हिंसक यौन हरकत की लज्जत ले रहे हैं।
दोहराना जरूरी है, सवाल होली के त्योहार का नहीं है। यह तो रंगों में डूबने-उतराने का त्योहार है। सवाल है, त्योहार पर मर्दाना कब्जे का। त्योहार के नाम पर हिंसक मर्दानगी का खुलेआम प्रदर्शन करने का। मर्द कोई त्योहार कैसे मनायेगा, होली के नाम पर यौन हिंसा ज् इसका उदाहरण है।
मर्द की कल्पना में ही मजे और मस्ती का मतलब स्त्री देह पर कब्जा है। बिना उसकी सहमति के उसकी देह से खेलना है। ख़ुद मज़ा लेना है। भले ही मजा सामने वाले की देह को कितनी भी तकलीफ पहुँचाए, मानसिक पीड़ा दे या भीतर-बाहर से तोड़ दे। होली, उसे महज एक बहाना देता है। हम ऐसा मर्दाना व्यवहार कई और मौकों पर भी देख सकते हैं। हर रोज देख सकते हैं।
सही ठहराने की कोशिश
दूसरी ओर, लडक़ी या स्त्री के साथ इस हिंसा पर बात करने वालों को त्योहार विरोधी या हिन्दू विरोधी बताने की कोशिश हो रही है। किस तरह दबंग मर्दाना विचार स्त्री के साथ हिंसा को, धर्म की आड़ लेकर सही ठहराने की कोशिश करता है, यह उसका जीता-जागता उदाहरण है।
दो दिन पहले ही एक वैवाहिक पोर्टल ‘भारत मैट्रीमोनी’ ने विज्ञापन जारी किया था। महिला दिवस और होली दोनों के लिए एक साथ संदेश देने की कोशिश थी। चूँकि होली, महिला दिवस के दिन पड़ी तो उन्होंने होली को भी महिलाओं के नजऱ से देखने की कोशिश की।
इस कोशिश में वह विज्ञापन कहता है कि रंगों के पीछे हिंसा को छिपने न दें। स्त्रियों के लिए हर जगह सुरक्षित हो इसकी कोशिश करें। इस विज्ञापन के खिलाफ जबरदस्त मुहिम चली। इसे एक धर्म के खिलाफ बताया गया।
एक तरफ यह सब हो रहा था तो दूसरी ओर महिलाओं के साथ होली के वीडियो आ रहे थे। अलग-अलग जगहों से घरों के अंदर हो रही लड़कियों और महिलाओं के साथ जबरिया होली के वीडियो आ रहे थे। अगर विदेशी महिलाओं के साथ यौन हिंसा के वीडियो सामने न आते तो शायद इसकी सार्वजनिक चर्चा भी नहीं होती। हम इसे होली का अंग मानकर अगले साल यही सब करने के लिए आगे बढ़ जाते।
‘दूसरे की स्त्री’
एक और चीज सोशल मीडिया पर पिछले कुछ सालों से देखने को मिल रही है। इस चर्चा में उसे भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वह भी दबी मर्दाना यौन ख्वाहिशों का सार्वजनिक प्रदर्शन है।
सोशल मीडिया पर अनेक ऐसे पोस्ट दिख जाएंगे जिसमें एक लडक़ी है। वह नकाब पहने है। हिजाब में है। एक लडक़ा है। वह उसे पकड़ता है। उसके गालों पर रच-रचकर रंग लगाता है। ज़ाहिर है, नकाब या हिजाब से क्या दिखाने की कोशिश हो रही है, बताने की ज़रूरत नहीं है।
अगर ऐसी तस्वीर या वीडियो का मकसद बंधुत्व, प्रेम और सद्भाव को बढ़ाना है तो दूसरे धर्म के पुरुष कहाँ गए? इसका मकसद तो वह विजय है, जो वाया स्त्री किसी दूसरे धर्म पर हासिल करने का ख्वाब है। ‘दूसरे की स्त्री’ पर रंग यानी हमारी जीत। यही तो ‘हार-जीत’ का मर्दाना ख्याल है।
इस कल्पना में दूसरे धर्म की लडक़ी के साथ वह सब करना शामिल है, जो मर्द करना चाहता है। और होली के नाम पर मर्द क्या-क्या करने की ख्वाहिश रखता है, अगर हमें यह जानना है तो होली के नाम पर बने गाने सुन लें। उसकी कल्पना की उड़ान उन गानों के बोल बताते हैं। बलात्कार की एक श्रेणी ही बन सकती है- ख्यालों में बलात्कार!
बुरा मानना जरूरी है...
पिछले कुछ सालों में होली के नाम स्त्रियों के साथ ऐसी हुड़दंग के खिलाफ कई मुहिम भी शुरू हुई हैं। पुरुषों के साथ जेंडर संवेदनशीलता पर काम करने वाले कई संगठन और लोग अब यह कहने लगे हैं कि बुरा न मानो होली है।
यह एक सीमा तक ठीक है।
लेकिन बुरा मानो अगर होली के नाम अश्लीलता हो रही हो। गाली-गलौज हो रही हो। भद्दे मजाक हो रहे हों। शरीर के साथ छेड़छाड़ हो रही हो। भद्दी हरकत हो रही हो। जबरदस्ती हो रही हो। यानी कोई चीज बुरी हो रही है या बुरी लग रही है तो होली पर भी बुरा मानना जरूरी है।
कुछ साल पहले दिल्ली विश्वविद्यालय की लड़कियों के एक समूह ने भी होली के नाम पर स्त्री के शरीर पर हमला करने का विरोध अभियान चलाया था। मगर यह अभियान बड़ी शक्ल अख्तियार नहीं कर पाते हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल है ‘आखिर होली में ही यह बात क्यों कही जाती है कि बुरा न मानो होली है।’
यानी हम ऐसी कोई चीज कर रहे हैं, जो सामने वाले को बुरी लग सकती है। तो फिर वह करना ही क्यों?
सबसे जरूरी बात है, जिसे हम सिर्फ होली के दिन ही नहीं बल्कि हर रोज याद रखें, वह है- किसी की सहमति या रजामंदी के बगैर किसी के साथ कुछ भी नहीं यानी कुछ भी नहीं करना। (बीबीसी)