खेल

-दीप्ति पटवर्धन
विमेंस वर्ल्ड बॉक्सिंग चैंपियनशिप में 81 किलोग्राम श्रेणी के फ़ाइनल में भारत की स्वीटी बूरा ने गोल्ड मेडल जीत लिया है.
उन्होंने फ़ाइनल में चीन की वांग लीना को शिकस्त दी है.
उन्होंने शनिवार (25 मार्च) को भारत को दूसरा गोल्ड दिलाया. उनके पहले 48 किलोग्राम भार वर्ग में नीतू घनघस ने भी गोल्ड मेडल जीता. नीतू इस महीने की शुरुआत में घोषित हुए बीबीसी के इंडियन स्पोर्ट्सवुमन ऑफ़ द ईयर पुरस्कार में इमर्जिंग प्लेयर का भी ख़िताब जीत चुकी हैं.
स्वीटी बूरा के संघर्ष की कहानी पढ़िए जो बीबीसी हिन्दी के पन्ने पर पहली बार 23 नवंबर 2022 को छपी थी.
स्वीटी बूरा को बचपन से ही पंच लगाने की आदत थी. स्कूली दिनों में स्वीटी बहुत ज़्यादा नहीं बोलती थीं, लेकिन गुस्सा बात-बात पर आता था.
स्वीटी बूरा ने बीबीसी से बताया, "कोई किसी के साथ ग़लत करता था, तो मैं उसको दे दनादन मारती थी. उसको मार के कचूमर बना देती थी. मेरे हाथ बहुत चलते थे."
स्कूली दिनों में स्वीटी कबड्डी खेला करती थीं लेकिन स्कूल के सहपाठी उन्हें बॉक्सर ही बुलाते थे. तब शायद ही किसी ने सोचा होगा कि एक दिन उनका नाम मुक्केबाज़ी की दुनिया में चमकेगा.
स्वीटी बूरा ने जॉर्डन के अम्मान में आयोजित एएसबीसी एशियन इलीट चैंपियनशिप के लाइट हेवीवैट 81 किलोग्राम वर्ग में गोल्ड मेडल जीतने का करिश्मा दिखाया है. ख़िताबी मुक़ाबले में उन्होंने कज़ाख़स्तान के गुलसाया येरज़ेहन को 5-0 से हराकर गोल्ड मेडल जीत लिया.
बूरा ने 2015 में सिल्वर मेडल जीता था, जबकि पिछले साल उन्होंने कांस्य पदक हासिल किया था. पहली बार उन्होंने गोल्ड मेडल जीता.
29 साल की स्वीटी बूरा ने कहा, "मेरे टॉरगेट वाली सूची में तीसरे नंबर पर है. शीर्ष दो लक्ष्य ओलंपिक मेडल जीतना और वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल जीतना है. मैं इन दोनों लक्ष्यों को हासिल करने के लिए कठिन परिश्रम कर रही हूं."
वैसे स्वीटी बूरा के लिए एशियाई चैंपियनशिप में जीत बेहद अहम है क्योंकि उन्होंने अपने करियर के मुश्किल दौर में इसे जीता है.
2020 के टोक्यो ओलंपिक में भारत ने अपना सबसे बड़ा बॉक्सिंग दल भेजा था, चार महिला सहित नौ मुक्केबाज़ उस दल में शामिल थे लेकिन बूरा को ओलंपिक का टिकट नहीं मिल सका था. इससे बूरा इतनी हताश हुईं कि उन्होंने नौ महीने तक बॉक्सिंग के ग्लव्स नहीं छुए.
इस दौरान जुलाई में बूरा की शादी भारतीय कबड्डी खिलाड़ी दीपक निवास हुड्डा से हुई और एक बार फिर बूरा का ध्यान कबड्डी पर चला गया. वह स्थानीय टूर्नामेंट में हिस्सा लेने लगीं और राष्ट्रीय खेलों के लिए हरियाणा की राज्य टीम में जगह बनाने के लिए ट्रायल्स में हिस्सा लेने लगीं.
जब बॉक्सिंग पर लगा था ब्रेक
स्वीटी बूरा बताती हैं, "बहुत मुश्किल समय था. लेकिन मुझे लगता है कि इसने मुझे मज़बूत ही बनाया. हो सकता है कि मैं हरियाणा की ओर से कबड्डी के नेशनल्स में खेलती और गोल्ड मेडल भी जीत लेती. लेकिन इससे वह भाव नहीं आता. मुझे महसूस हुआ कि मैं केवल मेडल के लिए बॉक्सिंग नहीं करती थी, बल्कि वह मेरा पैशन था. जब आप यह समझ जाते हैं तो स्थिति का सामना करने में आसानी होती है."
अपने नज़रिए में आए इस बदलाव के बाद बूरा ने अपने खेल पर ध्यान देना शुरू किया और परिणाम से ज़्यादा वह अपने खेल को एनज्वॉय करने लगीं, इस वजह से ही एशियाई चैंपियनशिप में उनका प्रदर्शन शानदार रहा.
बूरा ने बताया, "पहले मैं लक्ष्य निर्धारित करती थी और उसके बाद उसके लिए जुट जाती थी. पर अब मैं बॉक्सिंग करती हूं, अपनी ख़ुशी के लिए."
बूरा का जन्म हरियाणा के हिसार में एक ऐसे परिवार में हुआ जहां खेलकूद को प्रोत्साहित किया जाता था. उनके पिता महेंद्र सिंह वैसे तो किसान थे लेकिन उन्होंने भी नेशनल लेवल तक बॉस्केटबॉल खेला हुआ था. बूरा स्कूली दिनों में कबड्डी खेलती थीं. दसवीं के बोर्ड के समय में जूनियर नेशनल्स टूर्नामेंट आ जाने के चलते उन्होंने यह खेल छोड़ दिया.
बूरा के पिता चाहते थे कि बेटी बीटेक की पढ़ाई लेकिन बूरा खेल कूद में आगे जाना चाहती थीं और इसलिए उन्होंने बॉक्सिंग की ओर रुख़ किया.
बूरा याद करती हैं, "जब पहली बार मैंने बॉक्सिंग ग्लव्स पहना था तब मैंने रेफरी के मुक़ाबला रोके जाने पर जीत हासिल की थी. मैं साई के हिसार सेंटर पर मामा और भाई के साथ 2008 में ट्रायल के लिए गई थी."
बॉक्सिंग स्टार बनने की धमक
"मेरे सामने वाली बॉक्सर छह सात महीने से बॉक्सिंग कर रही थी. जब मैं रिंग में गई तो उसने मार मार कर मेरा मुंह लाल बना दिया था. पहले राउंड के बाद रेस्ट के समय में मेरा भाई बोला, 'दिखा दिए तुझे दिन में तारे.' मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं रिंग में वापस गयी. अब मुझे पता है कि उसको अपरकट बोलते हैं पर तब नहीं पता था. मैंने उसको इतना ज़ोर से अपरकट मारा कि वो लड़की उधर ही गिर गई."
तब हिसार के साई सेंटर के कोच को मालूम हो गया कि एक नया स्टार आने वाला है. लंबी और ताक़तवर बूरा ने स्टेट और नेशनल लेवल के टूर्नामेंट में लोगों को प्रभावित किया. बूरा बताती हैं, "मैं ने अखिल भारतीय टूर्नामेंट के सभी स्तर को मिलाकर 24 गोल्ड मेडल जीते हैं."
बूरा तेजी से मुक्केबाज़ी में जगह बना रही थीं लेकिन किसी को उम्मीद नहीं थी कि 2014 के वर्ल्ड चैंपियनशिप में सिल्वर मेडल हासिल कर लेंगी. कम से कम बूरा और उनके परिवार वालों को तो उम्मीद नहीं थी.
क्योंकि 2014 में घोषणा की गई थी कि जो नेशनल खेल में चैंपियन होगा वह वर्ल्ड चैंपियनशिप में भारत की ओर से हिस्सा लेगा. तब बूरा टायफड की चपेट में थीं. डॉक्टरों ने कहा था कि बूरा वॉर्मअप मुक़ाबले में ही गिर पड़ेंगी.
बूरा याद करती हैं, "मुझे ड्रिप चढ़ रहा था. मैं इतनी कमजोर थी कि वॉशरुम तक नहीं जा पाती थी. लेकिन मैं नेशनल चैंपियनशिप में हिस्सा लेना चाहती थी. डॉक्टरों की सलाह पर परिवार ने मुझे चैंपियनशिप में भेजने से मना कर दिया था. मैं अस्पताल से भागकर, ट्रेन से दिल्ली पहुंच गई थी."
बूरा ने ना केवल नेशनल चैंपियनशिप में हिस्सा लिया बल्कि चैंपियन भी बनीं. चैंपियन बनकर वह 2014 के वर्ल्ड चैंपियनशिप में हिस्सा लेने गईं और सिल्वर मेडल जीत लिया.
बूरा बताती हैं, "वह मेरी सबसे बड़ी जीत रही है."
लेकिन एशियाई चैंपियनशिप में गोल्ड मेडल ने उनके आत्मविश्वास को बढ़ाया है और वह जोश और उत्साह के साथ मार्च, 2023 में होने वाली वर्ल्ड चैंपियनशिप में हिस्सा ले पाएंगी. जॉर्डन से स्वर्णिम कामयाबी हासिल कर लौटने के बाद बूरा ने महज एक दिन की छुट्टी ली है और वापस ट्रेनिंग में जुट गई हैं.
बूरा कहती हैं, "मैं दिन में आठ घंटे अभ्यास करती हूं. एशियाई चैंपियनशिप का गोल्ड मेडल शानदार है, लेकिन मैं यहीं नहीं रुक सकती." ज़ाहिर है बूरा के मुक्कों का बरसना अभी जारी रहने वाला है. (bbc.com/hindi)