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जात न पूछो मुजरिम की (अगर वह ऊंची जात..)
26-Mar-2023 3:38 PM
जात न पूछो मुजरिम की  (अगर वह ऊंची जात..)

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में दो दिन पहले एक ब्राम्हण पुलिस इंस्पेक्टर शराब के नशे में एक आदिवासी महिला के चलाए जा रहे महिला छात्रावास में पहुंचा, वहां उसने सीसीटीवी कैमरों के सामने आदिवासी लडक़ी को पीटा, उसे गंदी गालियां देते हुए उसके साथ सेक्स की धमकी दी, और भी कई किस्म की धमकी की बात इस आदिवासी महिला ने रिपोर्ट में लिखाई है। चूंकि वीडियो-कैमरों की रिकॉर्डिंग मौजूद थी, इसलिए पुलिस अफसरों को भी, चाहे मजबूरी में, कार्रवाई करनी पड़ी, और इस इंस्पेक्टर को निलंबित किया गया। इस महिला की पूरी शिकायत भयानक है, और जब उसे नशे में झूमते और हिंसा करते दिख रहे इंस्पेक्टर के साथ जोडक़र देखा जाए, तो यह हैरानी भी होती है कि आदिवासी कहे जा रहे इस राज्य की राजधानी में ऐसी हिम्मत किसी की हो सकती है। फिर यह भी है कि अगर किसी महिला हॉस्टल में ऐसी हरकत हो रही है, तो वहां रह रहीं महिलाओं की हिफाजत का क्या होगा? उन्हें सरकार पर क्या भरोसा रहेगा? अभी यह बात भी साफ नहीं है कि इस इंस्पेक्टर की जगह अगर किसी आम सवर्ण आदमी के बारे में ऐसी सुबूतों सहित शिकायत हुई रहती, तो भी पुलिस क्या उसमें गिरफ्तारी नहीं करती? 

अब कल शाम मैंने इस घटना के बार में ट्विटर पर लिखा, नशे में एक वर्दीधारी ब्राम्हण पुलिस इंस्पेक्टर ने छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर शहर में एक महिला हॉस्टल की प्रभारी आदिवासी महिला को सीसीटीवी कैमरों के सामने पीटा, सेक्स की मांग रखी, और यह भी कहा कि उसे उसके (इंस्पेक्टर के) साहबों की भी सेवा करनी होगी। इसकी लिखित शिकायत पर भी पुलिस ने उसे महज निलंबित किया है, उसे गिरफ्तार क्यों नहीं किया? 

मैंने इस महिला की शिकायत के पन्ने भी साथ में पोस्ट किए थे, और मुझे अंदाज था कि इस पर महिलाओं के हक की बात करने वाले लोगों की तरफ से जरूर कुछ लिखा हुआ आएगा। लेकिन कुछ निराशा के साथ हैरानी यह हुई कि मुझसे अच्छी तरह वाकिफ कुछ लोगों ने तुरंत इस पर नाराजगी के साथ लिखा कि मैंने इस इंस्पेक्टर को ब्राम्हण क्यों लिखा है? इनका कहना था कि सजा तो होनी चाहिए, लेकिन इसमें ब्राम्हण का जिक्र क्यों किया गया है? मेरे इनमें से एक करीबी ने दो कदम और आगे बढक़र मेरे जन्म और परिवार की जाति भी गिना दी कि अगर उस जाति का इंस्पेक्टर होता, तो भी क्या मैं जाति का जिक्र करता? हालांकि इस नौजवान दोस्त को यह अच्छी तरह मालूम है कि मैं अपनी जन्म की जाति या किसी भी जाति और धर्म का इस्तेमाल नहीं करता। फिर भी एक ब्राम्हण होने के नाते मेरे एक सेक्स-मुजरिम को ब्राम्हण लिखने पर उनकी नाराजगी जायज थी, और उन्होंने मुझे यह जिक्र करने पर मजबूर किया कि मैंने अपनी तमाम जिंदगी में, और अब वह खासी हो चुकी है, कभी किसी धर्म या जाति के संगठन की सदस्यता नहीं ली, उनके किसी कार्यक्रम में नहीं गया। लेकिन इस ट्वीट में साफ-साफ मुजरिम दिख रहे, जुर्म कर रहे, एक महिला को पीट रहे इस इंस्पेक्टर की जाति को लिखना मेरे इन परिचित लोगों को नागवार गुजरा। अपराधी की कोई जाति नहीं होती यह लाईन बार-बार लिखी गई, ठीक उसी तरह जिस तरह बार-बार यह लिखा जाता है कि आतंकी का कोई धर्म नहीं होता। 

अब मेरे सामने आज मजबूरी यह है कि कल मेरे ट्वीट पर मेरे जातिवादी होने, नस्लवादी होने, साम्प्रदायिक होने की जो बातें मेरे परिचित लोगों ने लिखी हैं, और उनमें से कुछ तो मेरे बहुत करीबी भी हैं, तो उस बारे में मुझे आज यहां लिखना ही लिखना है। अगर तौल-तौलकर लिखे गए अपने एक-एक शब्द को मैं जायज न ठहरा सकूं, तो फिर लिखना ही बेकार होगा। 

जब मैंने यह लिखा कि एक ब्राम्हण इंस्पेक्टर ने नशे में, वर्दी में ऐसा किया, और एक महिला हॉस्टल में आदिवासी महिला प्रभारी के साथ किया, राजधानी में किया, तो मैं बिल्कुल ही अलग किस्म की प्रतिक्रियाओं की उम्मीद कर रहा था। मुझे लग रहा था कि चारों तरफ फैल चुके ऐसे वीडियो, और उस वीडियो के साथ महिला की लिखित शिकायत और उस शिकायत के बाद जिले के एसपी द्वारा इस इंस्पेक्टर को निलंबित करते हुए यह लिखा गया कि वह वीडियो में महिला छात्रावास के महिला स्टॉफ के साथ गाली-गलौज और मारपीट करते दिखाई पड़ रहा है, तो लोगों का इस बात पर आक्रोश होगा कि एक आदिवासी महिला के साथ ऐसा हुआ है, एक महिला छात्रावास में ऐसा हुआ है, और एक वर्दीधारी इंस्पेक्टर ने ऐसा किया है, उसने नशे में ऐसा किया है, और उसने ब्राम्हण होते हुए एक आदिवासी महिला के साथ ऐसा किया है। लेकिन ब्राम्हण के जिक्र ने तमाम लोगों की तमाम सहानुभूति खत्म कर दी, और मेरे ही करीबी लोग मुझ पर ब्राम्हणविरोधी होने, मामले को साम्प्रदायिक रंग देने की तोहमत लगाने लगे। 

हिन्दुस्तान के कानून में जब एक ब्राम्हण एक आदिवासी पर कोई जुल्म करे, तो उसके लिए अलग से एक कानून है। लेकिन इसके साथ-साथ सामाजिक हकीकत यह भी है कि इस देश में हजारों बरस से चली आ रही हिंसक जाति व्यवस्था के तहत ब्राम्हणों को सबसे ऊंचा दर्जा मिला हुआ है, और दलित-आदिवासी जाति व्यवस्था के पांवों में जगह पाते हैं। दलित-आदिवासी के खिलाफ जुल्म पर समाज व्यवस्था में उनसे ठीक ऊपर आने वाले ओबीसी तबके के खिलाफ भी विशेष एसटी-एससी एक्ट के तहत जुर्म दर्ज होता है, लेकिन जाति व्यवस्था के मुताबिक किस जाति के लोग किस जाति पर जुल्म कर रहे हैं, इसका एक अलग सामाजिक महत्व है। वर्दी और नशे की बात को छोड़ दें, सिर्फ जाति की बात करें, तो इस ताजा मामले में मुजरिम दिखते आदमी की जाति जाति व्यवस्था में सबसे ऊपर है, और उसके जुल्म और जुर्म की शिकार महिला की जाति इस व्यवस्था में सबसे नीचे के हिस्से की है। 

हिन्दुस्तान में होने वाले तमाम किस्म के सेक्स-अपराधों को देखें, तो उसमें से तकरीबन तमाम में बलात्कारी की जाति बलात्कार की शिकार महिला या बच्ची की जाति से ऊपर की होती है, वह ओबीसी भी हो सकती है, वह वैश्य या क्षत्रिय भी हो सकती है, और ब्राम्हण भी हो सकती है। हिन्दुस्तान में होने वाले व्यक्तिगत अपराधों में जाति की ताकत को अनदेखा करने का काम ऊंची जातियों के लोग तो कर सकते हैं, लेकिन जो लोग जाति व्यवस्था और ऐसे जुल्म-जुर्म के शिकार हैं, वे नहीं कर सकते। जिन लोगों को यह लगता है कि हिन्दुस्तान में जाति व्यवस्था खत्म हो चुकी है, और अब आरक्षण भी खत्म कर देना चाहिए, और जाति व्यवस्था के जिक्र का इस्तेमाल सिर्फ ब्राम्हणों पर हमले के लिए किया जाता है, उन्हें दलित-आदिवासी लोगों की जिंदगी का कोई अहसास नहीं है। हिन्दुस्तानी समाज की एक बड़ी दिक्कत यह है कि धर्म और जाति के संगठनों में अपना अधिकतर वक्त गुजार देने वाले लोगों ने वर्ण व्यवस्था में अपने से नीचे के लोगों के पांवों की बिवाई कभी देखी नहीं है, इसलिए उन्हें यह समझ नहीं पड़ेगा कि ऊंची जात के मुजरिम की जात का क्या महत्व है। यह एक अलग बात है कि अदालत इस जाति के आधार पर ही फैसला करती है कि दलित-आदिवासी पर जुल्म करने वाले उनके अपने समाज के हैं, या कि गैरदलित-आदिवासी हैं। 

हिन्दुस्तान की पुलिस में देखें तो उत्तर भारत के तकरीबन तमाम थानों में जिस तरह हिन्दू धर्म प्रतीकों के मंदिर बने दिखते हैं, क्या किसी थाने में किसी आदिवासी बुढ़ादेव, या बुद्ध का कोई मंदिर भी देखा जा सकता है? जाति व्यवस्था पुलिस से लेकर मुजरिमों तक फैली हुई है, और उत्तरप्रदेश के पिछले दो-चार बरस के दो-चार सबसे चर्चित मामलों में ऊंची जात की क्या ताकत होती है, यह बात खुलासे से सामने आ चुकी है। 

फिलहाल इस ताजा वारदात पर लौटें तो व्यक्तिगत जुर्म के हर मामले में धर्म और जाति दोनों के जिक्र की जरूरत है क्योंकि उससे ही सामाजिक संदर्भ जुड़ता है। और मैंने सोच-समझकर इस बात का जिक्र किया था, जिसके साथ मुझे यह उम्मीद थी कि लोगों को एक आदिवासी, एक महिला के साथ हो रहे ऐसे जुर्म पर उसके साथ हमदर्दी होगी, लेकिन वह हमदर्दी मेरे उन परिचितों के ट्वीट में नहीं दिखी जिन्होंने मुझे ब्राम्हणविरोधी करार देते हुए नस्लवादी और साम्प्रदायिक भी करार दे दिया। इस पर मुझे ट्विटर पर ही एक से यह पूछना पड़ा कि क्या ब्राम्हण और आदिवासी के बीच के ऐसे जुर्म को साम्प्रदायिक कहने के पहले उन्होंने अपने वैचारिक-परिवार के बड़ों से पूछ तो लिया है कि क्या वे आदिवासी को हिन्दू से परे किसी सम्प्रदाय का मान रहे हैं? क्योंकि ऐसे में तो हिन्दुओं की गिनती ही कम हो जाएगी। यह एक अलग बात है कि हिन्दू समाज के भीतर के ऐसे ऊंची कही जाने वाली जात वालों के जुल्म और जुर्म से जख्मी नीची कही जाने वाली जात के लोगों ने थोक में बौद्ध, ईसाई, और मुस्लिम धर्म मंजूर किया। आदिवासियों के ईसाई बनने को तो चर्च की विदेशी साजिश करार देना आसान है, लेकिन अंबेडकर की अगुवाई में जब लाखों लोगों ने हिन्दू धर्म छोडक़र बौद्ध धर्म मंजूर किया, तो उसमें तो कोई विदेशी साजिश नहीं थी। हिन्दुस्तान की जाति व्यवस्था की क्रूरता के चलते ही दलित और आदिवासी करोड़ों की संख्या में दूसरे धर्मों में गए हैं। सेक्स-हिंसा के इस ताजा मामले में लोगों को मुजरिम दिखते इस आदमी की जात को लेकर शर्मिंदगी होनी चाहिए थी कि उनकी जात के किसी आदमी ने ऐसी हरकत की है, वह तो नहीं हुआ, मुजरिम की जात के जिक्र के खिलाफ लोग टूट पड़े, और सेक्स-हिंसा की शिकार आदिवासी महिला का मुद्दा किनारे धरे रह गया। ऊंची कही जाने वाली जातियों की इंसाफ की यही समझ हिन्दू समाज के पांवों में रखी गई जातियों को इस समाज से दूर करती है। 

करीब 30 बरस पहले जब वीपी सिंह भूतपूर्व प्रधानमंत्री की हैसियत से मेरे शहर आए थे, तो एक सवाल के जवाब में उन्होंने काफी उत्तेजना के साथ कहा था- जाति व्यवस्था के पीछे जो हिंसा है, बेइंसाफी है, वह हजारों बरस से है, लेकिन जूता पहने हुए कभी याद नहीं आता कि जूता पहना हुआ है, जिसका अंगूठा दबता है उसे याद आता है कि अंगूठा भी है, उसे ही जूता दिखता है। अब जाति व्यवस्था से जो लोग कभी दबे नहीं हैं उनको लगता है कि जाति व्यवस्था है ही नहीं। तो जो जाति व्यवस्था के तले दबे हैं उन्हें रोज याद आता है कि वे दबे हैं, लेकिन वे मुखर नहीं हैं, इसलिए ऐसा लगता है कि जाति व्यवस्था खत्म हो चुकी है। 

हिन्दुस्तान में व्यक्तिगत अपराधों का जातिगत विश्लेषण पूरी तरह से जायज और जरूरी है। आज भी दिक्कत यह है कि ऊंची समझी जाने वाली जातियों के लोग लिखने और बोलने की जगहों पर हैं। वे अखबारों और टीवी चैनलों के समाचार-विचार पर लगभग एकाधिकार रखते हैं, वे मीडिया की मिल्कियत पर तकरीबन पूरा ही हक रखते हैं। उन्हीं की आवाज है, उन्हीं के सामने माइक है, उन्हीं के सामने कैमरा है, उन्हीं के लिखे हुए को छापने के लिए प्रेस है, और दलित-आदिवासी आज के सोशल मीडिया पर अपने लिए एक जगह बनाने की कोशिश कर रहे हैं। 

आज का यह लिखना खासा लंबा हो गया है, लेकिन इससे बिल्कुल ही जुड़ा हुआ एक मुद्दा कल ही सामने आया है जिसमें छत्तीसगढ़ के एक आदिवासी मंत्री कवासी लखमा ने कहा है कि आदिवासी हिन्दू नहीं हैं, जनगणना में उन्हें अलग से गिना जाए। मैं चाह तो रहा था कि कल के ब्राम्हण-आदिवासी ट्वीट से उपजे मुद्दे से मैं इसे जोडक़र लिखता, लेकिन यहां उसके लिए जगह पूरी नहीं पड़ेगी, इसलिए उस बारे में किसी और दिन, किसी और पन्ने पर, या किसी दिन कैमरे के सामने। फिलहाल सारे के सारे ब्राम्हण परिचित, और दोस्तों ने आज के इस साप्ताहिक कॉलम को लिखने के लिए मुद्दे की तलाश आसान कर दी, इसके लिए उनका शुक्रिया।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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