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कनक तिवारी लिखते हैं-किसके लेफ्टिनेंट?गवर्नर हैं क्या?
27-Mar-2023 4:03 PM
कनक तिवारी लिखते हैं-किसके लेफ्टिनेंट?गवर्नर हैं क्या?

आज पहली किस्त।

जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज कुमार सिन्हा ने गांधी की पढ़ाई को लेकर एक निहायत नाजायज, गैरजरूरी, और झूठी बात कही है। गांधी के मामलों के एक बड़े जानकार, देश के एक प्रमुख और चर्चित लेखक कनक तिवारी ने इतिहास के इस पहलू पर मेहनत से शोध करके यह लंबा लेख लिखा है। इसे अखबार के पन्नों पर एक दिन में छापना मुमकिन नहीं है, इसलिए हम इसे दो किस्तों में दे रहे हैं, आज पहली किस्त। -संपादक

जम्मू कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज कुमार सिन्हा ने हालिया ग्वालियर की आई टी एम यूनिवर्सिटी में डॉक्टर राममनोहर लोहिया के जन्मदिन और भगतसिंह, सुखदेवराज और राजगुरु की शहादत के दिन (23 मार्च) को एक अजीबोगरीब विवाद पैदा कर दिया। मूल विषय डा0 राममनोहर लोहिया स्मृति व्याख्यान से भटकते हुए उन्होंने महात्मा गांधी को लेकर जानबूझकर विवादास्पद और दुर्भावना जैसी लगती अनावश्यक टिप्पणी कर दी। इसका देश के कई इलाकों में मुनासिब विरोध हो रहा है। होना तो उससे भी ज्यादा चाहिए। सिन्हा ने कह दिया गांधी के पास कोई लॉ डिग्री नहीं थी। यह जबान से फिसल गया कोई वाक्य नहीं था। फिर उसी वाक्य को चबा चबाकर उन्होंने दोबारा तिबारा विस्तारित करते कहा कि देष में लोगों को लगता है, और कई पढ़े-लिखे लोगों को भी भ्रम है कि गांधी जी के पास कानून की डिग्री थी, लेकिन ऐसा कतई नहीं है। उनके पास न तो कानून की कोई डिग्री थी और न ही योग्यता (क्वालिफिकेशन)। वे यहीं नहीं रुके। फिर गांधी जी की हाई स्कूल की पढ़ाई खंगालते कहा उनके पास कोई डिग्री (योग्यता) थी तो यही कि वे हाई स्कूल परीक्षा में डिप्लोमाधारक थे। अलबत्ता बाद में कटाक्ष सुधारने के नाम पर कहा कि डिग्री का रिश्ता ज्ञान से या ज्ञान का डिग्री से नहीं होता। गांधी जी और आइन्स्टाइन जैसे कई लोग बिना डिग्री के भी समाज के बड़े शिक्षक हुए हैं।

यह गोलमोल और मतिभ्रम पैदा करती बौद्धिक अदा मासूम या निर्दोष नहीं है। मनोज सिन्हा भाजपा और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के काफी घिसे पिटे कार्यकर्ता केन्द्रीय मंत्रिपरिषद में रहे हैं। उनमें प्रशासनिक दक्षता देखते या हटाने लेफ्टिनेंट गवर्नर बनाया गया। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से उन्होंने एम. टेक. की परीक्षा पास की। उम्मीद होनी चाहिए कि उन्होंने गांधी जी के जीवन को शायद पढ़ा होगा। संघ विधारधारा गांधी का यष जतन से शोषित करती है, ताकि गांधी के विचार और कर्म पर अपनी वाहवाही कराने बल्कि वोट बैंक लूटने और गांधी की जगहंसाई कराने हमलावर हो सके। मनोज सिन्हा इस फितरत के बाहर नहीं हैं। वे इसी सम्प्रदाय-प्रयोजन का हिस्सा हैं। कार्यक्रम में गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष कुमार प्रशान्त और प्रख्यात कवि, कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल का नाम भी छपा था।

यह प्रश्न है मनोज सिन्हा ने ऐसा क्यों कहा? गांधी के नहीं रहने के लगभग 75 वर्ष बाद में संसार में मनोज सिन्हा अकेलेे हैं जिन्होंंने गांधी की अकादेमिक योग्यता पर द्विअर्थी फिफकरा कसा। गांधी के लगभग समकालीन भारत में लोग रहे हैं, जो ऐसी चूक पर चुप नहीं रह सकते थे। बेहद तीक्षण बुद्धि के डॉक्टर अम्बेडकर, गांधी से असहमत विनायक दामोदर सावरकर, गांधी को ‘नंगा फकीर’ कहने वाले ब्रिटेन के प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल और न जाने सैकड़ों हजारों लोग रहे हैं जो गांधी को विधि के उपाधिधारक नहीं होने के कारण चुप कैसे रहते? गांधी को इंग्लैंड में बैरिस्टरी की सनद मिली और उनकी वकालत का सिलसिला भारत और दक्षिण अफ्रीका में काफी सफलता के साथ चलता रहा। फ्रांस के मषहूर ज्योतिषी नास्त्रेदमस ने भी कहीं नहीं लिखा कि 23 मार्च 2023 को मनोज कुमार सिन्हा नाम का व्यक्ति गांधी की कानून की डिग्री को लेकर पेचीदा और अनोखा बयान करेगा जो इतिहास को भौंचक और कलंकित करेगा। लेकिन ऐसा हुआ तो।

मैं नहीं मानता मनोज सिन्हा को गांधी की वास्तविक शिक्षा के बारे में जानकारी नहीं होगी और उन्होंने फकत तुक्का चला। वे समझते रहे होंगे ऐसी खतरनाक बात करने का क्या परिणाम हो सकता है। उन्होंने गांधी के छात्र जीवन को खंगाला जरूर होगा कि सच्चाई का पता तो लगे। फिर अपनी संघी फितरत के अनुकूल उन्होंने आधे सच को आधे झूूठ के लिबास में लपेट दिया और यंू परोसा मानो पूरा सच है। लोगों को लगा इसमें झूठ का हिस्सा ज़्यादा कुलबुला रहा है और सच को कराहने छोड़ दिया गया है। क्या यह उन्होंने जान-बूझकर किया? सोच समझकर किया? क्या इसीलिए बार बार गंभीर, कठोर और पेचीदी मुख मुद्रा बनाकर तोहमत लगाने की षैली में वे गांधी के यषस्वी इतिहास को फतवा सुना रहे थे। मासूम मुखमुद्रा में कहते, तो शायद सरलता से समझा पाते कि दरअसल कहना क्या है। वे बाकायदा तैयार नोट्स भी बीच बीच मेंं देख रहे थे। इससे जाहिर होता है वे पढक़र तैयार होकर सोचा समझा ही बोलने आए थे। उनके पास प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का प्रिय कोई टेलीप्रॉम्प्टर भी नहीं था।  

किस्सा है कि इंग्लैंड के सदियों के इतिहास में शुरू में वकालत का व्यवसाय जनदृष्टि में बहुत सम्मानजनक, प्रतिष्ठित, या लोकप्रिय नहीं रहा। वह अन्य व्यवसायों की तरह ही समाज में औसतन ही समझा जाता था। पिछली कुछ सदियों में कई समाज प्रवर्तक लोग वकालत का व्यवसाय अपनाना आदर्ष नहीं मानते थे। धीरे-धीरे जब एक औद्योगिक समाज बनने लगा। तब वकालत का पेशा उभर आया। कई कारणों से सामाजिक मूल्यों और समीकरण में बदलाव हुआ और कानून की व्यवसायिक पढ़ाई का सम्मान बढ़ा। गांधी के 1888 में लन्दन पहुंचने के पहले ही वकालत के प्रति ऐसी लगन बढ़ चली थी। भारत में ही गांधी परिवार के निकट रहे माव जी दवे ने समझाया था कि इंग्लैंड जाकर बैरिस्टर बनना मोहनदास के लिए ठीक होगा। यही सलाह कारगर हुई। फिर भी इंग्लैंड की लोकप्रिय प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज में कानून की पढ़ाई को लेकर उतना उत्साह नहीं था जो अन्य विषयों के अकादेमिक ज्ञान को लेकर रहा है। समाज हर परिस्थिति में अपने विकल्प तलाश लेता है। जब वकालत के ज्ञान के लिए बदलते समाज में जरूरतें बढ़ीं, तब लंदन में वेस्टमिन्स्टर के आसपास ज्ञान पिपासु छात्रों ने अपने रहने के कई निजी ठीहे बना लिए। जिन्हें इन या सराय या छात्रावास या बोर्डिंग कहा जाने लगा। वहां अमूमन मध्य वर्ग के कई छात्र कम्यून की तरह रहते और उन्हें पढ़ाने के लिए कानून पारंगत लोग आया करते। विश्वविद्यालय या कॉलेज में औपचारिक पढ़ाई के सीमित विकल्प के साथ साथ यह समाज स्वीकार्य ज्यादा समानान्तर प्रथा चल पड़ी। इनमें से चार प्रमुख इन (सराय) रहे ग्रेज इन ;ळतंलष्े प्ददद्धए लिंकन्स इन, मिडिल टेंपल इन और इनर टेंपल, ट्यूडर और स्टुअर्ट वटा के वक्त इन्स का व्यापक प्रभाव हुआ। सरकारी संस्थाओं और शैक्षणिक संस्थाओं ने वकील और बैरिस्टर बनाने के लिए युवजन को प्रशिक्षण देने में हीला हवाला या आनाकानी की। तब इन चारों इन (छात्र निवासों) ने विशेषकर वकील/बैरिस्टर के षिक्षण प्रषिक्षण का काम अपने हाथ में ले ही लिया। इनमें से गांधी भी इनर टेंपल मेें भर्ती हुए और वहां उन्हें टे्रनिंग के बाद वकील/बैरिस्टर होने की सनद दी गई। नेहरू भी वकालत के लिए इनर टेम्पल में भरती हुए थे। ऐसे इन्स को ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज के बाद तीसरा विश्वविद्यालय भी कहा जाने लगा। वहां केवल विधि की शिक्षा या वकील बनने की टे्रनिंग नहीं दी जाती थी, बल्कि पूरा उपलब्ध समाज विज्ञान भविष्य की जरूरतों के फोकस को ध्यान रखते परोसा जाता था। उल्लेखनीय है कि विलियम शेक्सपियर के नाटक ‘ट्वेल्थ नाइट’ का प्रथम मंचन मिडिल टेंपल इन के हॉल में हुआ। उसमें दर्षकों के बीच इंग्लैंड की महारानी भी बैठी थीं। इनमें वकील/बैरिस्टर बनने के लिए छात्रों पर यह शर्त होती थी कि वे बारह सत्रों में अपनी हाजिरी देंगे, और वहां कुछ सत्रों में सहभोज में भी उपस्थित रहेंगे। कुल मिलाकर यह अध्ययन शिड्यूल तीन वर्षों का होता था और तिमाही परीक्षाएं होती थीं। परीक्षा और पढ़ाई के स्तर में कोई समझौता नहीं था। पहले इन इन्स में पांच वर्षों की टे्रनिंग/पढ़ाई का प्रावधान था जो बाद में कई कारणों से तीन वर्ष का किया गया क्योंकि इसी पढ़ाई के लिए ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालयों में भी तीन वर्षों का लगभग समान पाठ्यक्रम निर्धारित हुआ था।

1846 में एक संसदीय अन्वेषण समिति ने कानून की पढ़ाई की समग्र जांच की। समिति ने पाया कि इंग्लैंड में पढ़ाई का स्तर यूरोपीय देशों और अमेरिका से कमतर है। प्रवेश परीक्षाओं के लिए सिफारिश की गई। एक नेषनल लॉ कॉेलेज की स्थापना करने पर भी जोर दिया गया। फिर भी वही ढाक के तीन पात। 

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय नेे 1871 में और केम्ब्रिज विष्वविद्यालय ने 1873 में कानून की उच्चतर पढ़ाई का सुधार और नियमितीकरण कई दबावों के चलते किया।

(बाकी कल के अंक में)

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