विचार / लेख

क्या यह एकता आगे भी कायम रहेगी?
27-Mar-2023 4:07 PM
क्या यह एकता आगे भी कायम रहेगी?

 डॉ.संजय शुक्ला

कांग्रेस नेता राहुल गांधी को सूरत के डिस्ट्रिक्ट कोर्ट द्वारा मानहानि से संबंधित मामले पर दो साल की सजा मुकर्रर करने के बाद उन्हें जनप्रतिनिधित्व कानून के तहत लोकसभा की सदस्यता से अयोग्य ठहराए जाने के बाद देश में राजनीतिक भूचाल आ गया है। लोकसभा सचिवालय द्वारा लिए गए इस फैसले पर कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के निशाने पर सीधे तौर पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी है।इस मामले पर तमाम विपक्षी दल फिलहाल राहुल गांधी के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं जिससे राजनीतिक पंडितों सहित कांग्रेस का भी आंकलन है कि इस मामले से राहुल गांधी और उनकी पार्टी को काफी राजनीतिक लाभ मिलेगा। इन मंसूबों के साथ पार्टी इसे भुनाने में जुटी है कांग्रेस के पैरोकारों का मानना है कि इस फैसले से न केवल राहुल के प्रति लोगों की सहानुभूति उमड़ेगी वरन वे साल 2024 के आम चुनाव में नरेंद्र मोदी का सशक्त विकल्प भी होंगे। कांग्रेस सहित राजनीतिक विश्लेषकों को यह भी भान होने लगा है कि राहुल और कांग्रेस के अगुवाई में अब विपक्ष का एकजुट गठबंधन तैयार होगा जो अगले चुनाव में भाजपा गठबंधन को सत्ता से रुखसत कर देगा। बहरहाल इस मामले से विपक्ष को मोदी के खिलाफ एक मजबूत मुद्दा तो मिला ही है वहीं कांग्रेस कार्यकर्ताओं में भी भरपूर जोश पैदा हुआ है।

बहरहाल राहुल गांधी के खिलाफ सूरत कोर्ट के फैसले का आगे क्या हश्र होगा? राहुल के अयोग्यता संबंधी फैसले पर हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट क्या रूख लेगी? ऐसे तमाम कानूनी सवालों को फिलहाल परे रखते हुए विपक्ष के भविष्य की रणनीति और इसमें राहुल और कांग्रेस की भूमिका पर विचार करना सामयिक होगा। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया सहित सोशल मीडिया पर फिलहाल दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल तथा पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री व टीएमसी सुप्रीमो ममता बनर्जी इन दिनों राहुल गांधी और कांग्रेस के सबसे बड़े खैरख्वाह नजर आ रहे हैं।

हालांकि राहुल गांधी के साथ शिवसेना के उद्धव ठाकरे, एनसीपी के शरद पवार, नेशनल कांफ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला, सपा के अखिलेश यादव, राजद के तेजस्वी यादव, नीतीश कुमार, चंद्रबाबू नायडू, एमके स्टालिन जैसे तमाम विपक्षी नेता भी खड़े दिखाई दे रहे हैं लेकिन यह तय नहीं है कि वे राहुल गांधी के साथ मोदी और भाजपा के खिलाफ संघर्ष में कितनी दूर तक चलेंगे और किस शर्त पर चलेंगे? दरअसल इस सवाल के मूल में राहुल गांधी का राजनीतिक कद है जो मोदी और भाजपा को चुनौती देने के मामले में उक्त नेताओं के कद से काफी ऊंचा है। इन परिस्थितियों में अहम सवाल यह भी है कि क्या हिंदी पट्टी के अरविंद केजरीवाल से लेकर अखिलेश यादव जैसे नेता राहुल गांधी को बतौर प्रधानमंत्री उम्मीदवार स्वीकार करेंगे?इन सवालों के परिप्रेक्ष्य में प्रतिप्रश्न कि क्या विपक्ष आगे भी आज की तरह एकजुट रहेगी?

बिलाशक आज मोदी, भाजपा और आरएसएस के खिलाफ पूरी मुखरता के साथ खिलाफत करने वाले में राहुल गांधी, प्रियंका गांधी और कांग्रेस ही है लेकिन हाल के दिनों में अरविंद केजरीवाल भी मोदी और भाजपा का छाती ठोककर विरोध कर रहे हैं। दरअसल इसके पीछे प्रमुख कारण केजरीवाल मंत्रिमंडल के दो सबसे वरिष्ठ मंत्री मनीष सिसोदिया और सत्येन्द्र जैन के खिलाफ केंद्रीय जांच एजेंसियों की दबिश और उनकी गिरफ्तारी है लेकिन इसके बावजूद वे मोदी और भाजपा का विरोध उन सभी राज्यों में कर रहे हैं या किया है जहां बीते दौर में विधानसभा चुनाव हुए हैं अथवा होने वाले हैं। बेशक इस विरोध के पृष्ठभूमि में केजरीवाल की मंशा मोदी और भाजपा के खिलाफ कांग्रेस के विकल्प को खारिज कर ‘आप’ को विकल्प के तौर पर उभारना है जिसमें वे सफल होते भी दिखाई दे रहे हैं।             

दूसरी ओर बात ममता बनर्जी की करें तो उनकी सीधी अदावत भाजपा के साथ कांग्रेस से भी है लिहाजा वह पश्चिम बंगाल में किसी भी हाल में कांग्रेस को न तो जमीन तैयार करने देंगी और न ही वे कांग्रेस या राहुल गांधी की अगुवाई में अगले चुनाव में उतरने के लिए हामी भरेंगी। बीजू जनता दल सुप्रीमो नवीन पटनायक हमेशा की तरह सायलेंट ही रहेंगे, तेलंगाना में केसीआर के खिलाफ जाहिर तौर पर कांग्रेस ही है लिहाजा वे अपनी जमीन का बंटवारा करने किसी भी तौर पर सहमत नहीं होंगे। हालांकि उन्होंने उनके परिजनों के ठिकानों पर ईडी और अन्य एजेंसियों के दबिश के बाद कांग्रेस के सुर में सुर मिलाया है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी और भाजपा के खिलाफ गैर कांग्रेसी गठबंधन बनाने की मुहिम में उनकी मुख्य भूमिका है। वाय.एस.जगनमोहन रेड्डी और कांग्रेस के पुराने अनुभव बेहद खराब रहे हैं लिहाजा वे भी कांग्रेस के झंडे तले नहीं आएंगे।

 बहरहाल उपरोक्त तथ्यों पर गौर करें तो यह अनुमान लग रहा है कि राहुल गांधी के सदस्यता से अयोग्यता के मुद्दे पर फिलहाल अरविंद केजरीवाल,ममता बनर्जी, अखिलेश यादव जैसे नेताओं की कांग्रेस और राहुल के साथ दिखाए जा रहे हमदर्दी को बहुत ज्यादा गंभीरता से नहीं लेना चाहिए क्योंकि कांग्रेस के इन नेताओं के साथ अतीत के अनुभव कड़वाहट भरे ही रहे हैं। अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसे नेता बेहद महत्वाकांक्षी हैं और उनकी मंशा राष्ट्रीय फलक पर उभरने की ही है ऐसे में फिलहाल यही लग रहा है कि इन दोनों का राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रति सहानुभूति महज एक राजनीतिक रणनीति है जिसमें वे राहुल के कंधे पर सवार होकर मोदी और भाजपा पर प्रहार कर रहे हैं। हालिया परिदृश्य में केजरीवाल यह भी दिखाना चाह रहे हैं कि वे ही मोदी और भाजपा का राष्ट्रीय विकल्प है और वे ही एक ऐसे आदर्श राजनेता हैं जो देश के लोकतंत्र को बचाने के लिए कांग्रेस जैसे अपने परंपरागत विरोधी के साथ तमाम गिले शिकवे भूलाकर खड़े होने के लिए भी तैयार हैं।

बहरहाल कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी जैसे नेताओं पर फिलहाल ऐतबार करना जल्दबाजी होगी क्योंकि ये नेता इस राजनीतिक आपदा में अपने लिए ही अवसर ढूंढ रहे हैं। लिहाजा कांग्रेस को मुगालते में नहीं रहना चाहिए बल्कि उसको अपने ही भरोसे आगे की राजनीतिक लड़ाई लडऩी होगी। विपक्षी एकता के संबंध में पिछले दिनों पढ़ा गया एक लेख बार-बार याद आता है जिसका लब्बोलुआब यह कि राहुल गांधी जितना मजबूत होंगे विपक्षी एकता की संभावना उतनी ही धूमिल होते चली जाएगी। अलबत्ता जिस तरह राहुल गांधी मोदी और भाजपा के विरोध में वीर सावरकर को घेरते हैं उससे कभी कभी यह भी अंदेशा होता है कि कहीं राहुल जाने -अनजाने भाजपा के ही पिच पर तो बैटिंग नहीं कर रहे हैं? क्योंकि अतीत में कांग्रेस की ऐसी तमाम चूक से भाजपा को ही सीधे तौर पर फायदा हुआ था।

 गौरतलब है कि शिवसेना के लिए वीर सावरकर सदैव आस्था के व्यक्तित्व रहे हैं और वह हर बार सावरकर विरोधी बयानों का कड़ा प्रतिवाद करती है। लिहाजा राहुल और उनकी पार्टी को ऐसे बयानों से परहेज करना चाहिए जिससे शिवसेना और उसके गठबंधन पर कोई असर पड़े। राहुल गांधी और कांग्रेस को यह बात भी जेहन में रखना होगा कि देश में आगे भी गठबंधन की राजनीति ही चलेगी लिहाजा उसे अपने गठबंधन के दलों के भावनाओं और अपेक्षाओं पर भी खरा उतरना होगा। इस सच्चाई के साथ ही अगली सच्चाई यह भी कि गैर कांग्रेसी गठबंधन के सहारे भाजपा और मोदी को हटाना असंभव ही है क्योंकि कांग्रेस ही एक ऐसी राजनीतिक पार्टी है जिसका राष्ट्रीय विस्तार है और इसकी जड़ें पूरे देश भर में फैली हुई है।

आज जरूरत कांग्रेस के इस सूखती जड़ों को फिर से ताकत देने की है जिसके लिए पार्टी के करोड़ों नेता और कार्यकर्ता जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं। यह तो वक्त तय करेगा कि लोकतंत्र बचाने के लिए राहुल गांधी और उसकी पार्टी द्वारा की जा रही तपस्या कितनी फलीभूत होती है? बहरहाल अभी सियासत के किताब में बहुत सारे पन्नों पर इबारत लिखनी बाकी है। बिलाशक इन पन्नों पर राहुल और कांग्रेस सहित मोदी और भाजपा की राजनीतिक तकदीर भी लिखी जाएगी। इन सबके बावजूद यह तय है कि अब कांग्रेस की राजनीति एक निर्णायक दौर पर है और पार्टी के लिए अभी नहीं तो कभी नहीं जैसी स्थिति है।

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