संपादकीय

दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ब्रिटिश अखबार इराक जाकर ब्रिटिश फौजों के बेकसूर शिकार ढूंढ लाया
27-Mar-2023 5:06 PM
दैनिक ‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  ब्रिटिश अखबार इराक जाकर ब्रिटिश फौजों के बेकसूर शिकार ढूंढ लाया

इराक में दुनिया के एक सबसे खतरनाक माने जाने वाले आतंकी संगठन, इस्लामिक स्टेट, को खत्म करने के लिए 2014-17 में अमरीका की अगुवाई में कुछ देशों की एक फौजी टीम ने जंग लड़ा था, और वहां बड़े पैमाने पर हमले किए थे। अमरीका ने तो बाद में यह मंजूर कर लिया था कि शहरी इलाकों में उसके हवाई हमलों से आतंकियों के साथ-साथ सैकड़ों नागरिक भी मारे गए थे, लेकिन ब्रिटेन इस बात पर अड़ा हुआ था कि उसने एक बिल्कुल परफेक्ट जंग लड़ी थी, और उसमें एक भी नागरिक की मौत नहीं हुई थी। अब एक एनजीओ, एयरवॉर्स, के साथ मिलकर प्रतिष्ठित ब्रिटिश अखबार गार्डियन ने एक जांच रिपोर्ट तैयार की है जो बताती है कि ब्रिटिश हमलों में भी नागरिक मारे गए थे। गार्डियन की रिपोर्टर इराक के मोसुल शहर जाकर वहां ऐसे हमलों में मरे हुए लोगों के परिवारों के बचे हुए लोगों से बात करके लौटी, और सारा खुलासा छापा है। इस रिपोर्ट के बाद अब ऐसे लोगों के परिवारों को ब्रिटेन से एक मुआवजा लेने का हक मिलेगा।

इस बात पर आज लिखा जाना जरूरी इसलिए है कि इस अखबार ने और ब्रिटेन के एक एनजीओ ने अपनी ही फौज के छुपाए गए तथ्यों का भांडाफोड़ करना तय किया, और बेकसूर इराकी जनता के हकों के लिए यह रिपोर्ट तैयार करना अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी माना है। अब इस बात को हिन्दुस्तान में पिछले बरसों में पाकिस्तान पर हुई एयर स्ट्राईक और भारत में पाकिस्तान के करवाए गए कहे जाने वाले आतंकी हमलों के बारे में जो भी जानकारी मांगते हैं उन्हें देश का गद्दार करार देकर पाकिस्तान भेजे जाने का फतवा दिया जाता है, उनके बारे में कहा जाता है कि वे टुकड़ा-टुकड़ा गैंग हैं जो भारत को तबाह करना चाहते हैं। अब ब्रिटेन में यह कोई नई बात नहीं है कि वहां दूसरे देशों में भी की गई फौजी कार्रवाई को लेकर अपनी सरकार से सवाल किए जाएं ताकि सरकार की जवाबदेही रहे, और फौज भी बेकाबू कार्रवाई न करती रहे। लोकतंत्र न तो सस्ती व्यवस्था है, और न ही वह बहुत सहूलियत की व्यवस्था है। फिर एक जिम्मेदार लोकतंत्र महज अपनी सरहदों के भीतर लोकतांत्रिक रहकर खुश नहीं हो लेता, जिम्मेदार लोकतंत्र दुनिया के दूसरे हिस्सों को लेकर भी बात करता है। आज ब्रिटिश पार्लियामेंट में लगातार इस बात पर बहस चल रही है कि दूसरे देशों से वहां बोट से पहुंचने वाले शरणार्थियों के साथ क्या सुलूक किया जाए। यह बहस उन दूसरे देशों से आने वाले लोगों के साथ एक बेहतर और अधिक मानवीय बर्ताव करने के लिए की जा रही है, जबकि ऐसे लोग ब्रिटेन पर पहली नजर में तो बोझ ही बनते हैं। इसके साथ जोडक़र हिन्दुस्तान की इस बात को देखना चाहिए कि यहां पर पड़ोस के लगे हुए म्यांमार से आने वाले, भयानक हिंसा के शिकार रोहिंग्या शरणार्थियों को लेकर देश का क्या रूख है। यह बात भी समझनी चाहिए कि दुनिया में शरणार्थियों के लिए जो अंतरराष्ट्रीय सहमति दर्ज है उस पर भारत के भी दस्तखत हैं, लेकिन पड़ोस के शरणार्थियों के लिए आज यहां कोई जगह और हमदर्दी नहीं हैं। 

चूंकि हिन्दुस्तान लगातार यह कहते रहता है कि उसने संसदीय व्यवस्था ब्रिटेन से ली है, इसलिए ब्रिटेन के इन दो उदाहरणों से भी कुछ सीखने की जरूरत है। पहली बात तो यह कि अगर ब्रिटिश फौजें किसी दूसरे देश में जाकर वहां किसी बेकसूर को मारकर आई हैं, तो भी ब्रिटिश मीडिया इंसाफ के लिए उस बात की भी जांच कर रहा है, और यह कोशिश कर रहा है कि ऐसे बेकसूर परिवारों को ब्रिटिश सरकार से मुआवजा मिल सके। दूसरी बात यह भी कि ब्रिटिश फौजों की जवाबदेही तय हो सके, ताकि अगली बार उनसे ऐसी गलती न हो, या वे ऐसा गलत काम न करें। एक उन्मादी राष्ट्रवाद के नाम पर देश की फौज को पवित्र और पूजनीय बनाकर सवालों से परे कर देना उस फौज के भले का भी नहीं रहता, क्योंकि उससे गलतियां और गलत काम होने का खतरा बढ़ते जाता है। 

गार्डियन ब्रिटेन का सबसे जिम्मेदार अखबार माना जाता है, और इसने उस वक्त भी सवाल उठाए थे जब देश कोरोना से जूझ रहा था, लॉकडाउन लगा हुआ था, और ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के सरकारी आवास पर उनके साथ काम कर रहे लोगों ने दारू पार्टी की थी। यह दारू पार्टी लॉकडाउन के नियमों के खिलाफ थी, इसलिए जब इसके शुरुआती सुबूत सामने आए, तो लंदन की पुलिस को इसकी जांच दी गई। पुलिस ने प्रधानमंत्री पर जांच के बाद जुर्माना लगाया, और अभी संसद की एक जांच समिति इस नतीजे पर पहुंची है कि इस बारे में संसद में सवाल होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने झूठ कहा था। एक ऐसा भी खतरा वहां मंडरा रहा है कि अगर संसद की समिति इस पर कड़ी कार्रवाई करती है तो बोरिस जॉनसन का संसदीय-राजनीतिक जीवन खत्म हो सकता है। 

लोकतंत्र एक-दूसरे से बेहतर चीजों को सीखने की व्यवस्था है। संसदीय व्यवस्था किसी धर्मग्रंथ की तरह लिखे हुए शब्दों को अंतिम सत्य मान लेने की नहीं रहती, वह तजुर्बों से परंपराओं को कायम करने का नाम रहती है। आज ब्रिटेन या दूसरे लोकतांत्रिक देश जिस पारदर्शिता की तरफ लगातार बढ़ रहे हैं, जिस तरह वहां नेताओं की, सरकार और फौज की, जजों और अफसरों की जवाबदेही रहती है, और बढ़ती चल रही है, उससे हिन्दुस्तान जैसे देश को बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। लंदन पुलिस का छोटा सा अफसर प्रधानमंत्री निवास जाकर इस बात की जांच कर चुका है कि वहां किन तारीखों पर पार्टियां हुईं, उनमें सामाजिक दूरी का पालन हुआ या नहीं हुआ, और प्रधानमंत्री निवास को कुसूरवार पाने पर प्रधानमंत्री को जुर्माना भी सुना दिया। कितने लोकतंत्र ऐसे हैं जो कि ऐसी पारदर्शिता से काम कर सकते हैं? 

पूरी दुनिया में फौजों का इतिहास गलतियों, और गलत कामों से भरा हुआ है। जंग और फौजी कार्रवाई के हालात ही ऐसे रहते हैं कि कई बार ऐसा हो जाता है, और कई बार दुश्मन को निपटाने के इरादे से ऐसा कर दिया जाता है। लेकिन अगर इन बातों की जांच न हो, तो उस मुल्क की फौज बेकाबू और अराजक हो जाने का एक खतरा रहता है। इसलिए लोकतांत्रिक देशों को अपने किसी भी संस्थान को ऐसा पवित्र और पूजनीय नहीं बनाना चाहिए कि वहां कोई सवाल करना गद्दारी मान लिया जाए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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