संपादकीय
photo : twitter
देश के तीन सौ वकीलों ने कानून मंत्री किरण रिजिजू के उस बयान के खिलाफ एक साझा बयान दिया है जिसमें मंत्री ने यह कहा था कि कुछ रिटायर्ड जज एंटी-इंडिया गैंग का हिस्सा बन गए हैं। इन वकीलों ने लिखा है कि सरकार की आलोचना किसी भी शक्ल में न देश की आलोचना होती है, न ही देशविरोधी होती है। उन्होंने लिखा है कि कानून मंत्री रिटायर्ड जजों को धमकी देकर बाकी नागरिकों को यह संदेश देना चाहते हैं कि आलोचना की किसी भी आवाज को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। उन्होंने लिखा- हम कानून मंत्री के बयान की कड़े शब्दों में निंदा करते हैं, एक मंत्री से इस तरह के दादागिरी भरे बयान की उम्मीद नहीं थी। वकीलों ने लिखा कि पूर्व जजों और जिम्मेदार लोगों की अपने अनुभव पर आधारित राय चाहे सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी को पसंद न आए, लेकिन कानून मंत्री को ये अधिकार नहीं है कि वो इस पर अपमानजनक टिप्पणी करें। उल्लेखनीय है कि कानून मंत्री ने कुछ पूर्व जजों को एंटी-इंडिया गैंग का हिस्सा बताने के साथ-साथ यह भी कहा था कि इसके खिलाफ एजेंसियां कानून के दायरे में रहकर कदम उठाएंगी, और जो लोग देश के खिलाफ काम करेंगे उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी।
वैसे तो वकीलों ने अपने बयान में वह काफी कुछ लिख दिया है जो हम अपनी राय के रूप में यहां लिखते, लेकिन फिर भी इस मुद्दे पर लिखने की जरूरत इसलिए है कि कानून मंत्री से परे भी बहुत से मंत्री और एनडीए-भाजपा के बहुत से नेता लगातार इस तरह की जुबान में बोलते हैं। लोकतंत्र में जनता और बाकी लोगों को अपनी राय रखने की जो आजादी मिली हुई है, वह बहुत से लोगों को बुरी तरह खटकती है। जब किसी धर्म, राजनीतिक विचारधारा, या व्यक्ति के प्रति अंधभक्ति से काम किया जा रहा हो, तो वहां कोई न्यायसंगत और तर्कसंगत बात भी पुलाव में कंकड़ की तरह खटकने लगती है। जो लोग इस भक्ति से परे की सोच रखते हैं, वे सत्ता और उसके भागीदारों की आंखों में किरकिरी की तरह चूभते हैं। इसलिए अलग-अलग विचारधाराओं के बहुत से प्रमुख वकीलों ने मिलकर यह साझा बयान बनाया है, और इसका कानूनी वजन चाहे कुछ भी न हो, इसका लोकतांत्रिक वजन बहुत होता है। और यह बयान में ठीक ही याद दिलाया गया है कि सरकार के आलोचक उतने ही देशभक्त होते हैं जितने कि सरकार में बैठे हुए लोग।
लोकतंत्र सिर्फ एक शासनतंत्र नहीं होता, वह एक जीवनतंत्र भी होता है, और वह तानाशाही के मुकाबले सभ्यता का एक बहुत बड़ा विकास भी होता है। जब सभ्यता की फिक्र नहीं रह जाती, तब फिर बहुत सी अलोकतांत्रिक बातें भी कही जाती हैं। हिन्दुस्तान में आज यही हो रहा है। और जब राष्ट्रवादी उन्माद देश के लोगों का एक बड़ा ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो गया है, तो फिर उसी को बढ़ाते चलना आसान नुस्खा बन जाता है। जिस तरह खबरों की वेबसाइटों पर जिन खबरों को अधिक हिट्स मिलने लगती हैं, वैसी खबरों को बढ़ावा देते चलना एक कारोबारी समझदारी मानी जाती है, ठीक उसी तरह जब धार्मिक और राष्ट्रवादी उन्माद की हांडी बार-बार चढ़ाना कामयाब होते जा रहा है, तो फिर असहमति के बयान देने वालों को पाकिस्तान भेज देने, टुकड़ा-टुकड़ा गिरोह करार देने, और राष्ट्रविरोधी गैंग कहने का बड़ा आसान हथियार सत्ता-समर्थक लोगों के हाथ लग गया है। इसी सिलसिले के चलते कभी जेएनयू को बदनाम करने की साजिश होती है, और पुलिस की कार्रवाई लोगों को बरसों तक बिना किसी मुकदमे के फैसले के, जेलों में बंद रखती है। दिक्कत यह है कि जब लोगों के दिमाग पर उन्माद हावी रहता है, तब फिर उन्हें लोकतांत्रिक मूल्यों का महत्व समझ नहीं आता। फिर आज जिस बहुसंख्यक तबके को एक नए किस्म की उन्मादी-आजादी मिली हुई है, उसे यही सबसे बेहतर लोकतंत्र लग रहा है।
कानून मंत्री आज किसी एजेंडा के तहत लगातार सुप्रीम कोर्ट के खिलाफ कुछ न कुछ बोले जा रहे हैं। यह अदालत को उसकी औकात दिखाने का एक रूख है, और शायद इसके पीछे एनडीए का वह ऐतिहासिक संसदीय बाहुबल भी है जिसके भरोसे वह कई किस्म के संविधान संशोधन करने, या नया कानून बनाने की उम्मीद रखता है। आज राहत की एक बात यही है कि सुप्रीम कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश सहित कुछ और न्यायाधीश भी रीढ़ की हड्डी वाले दिख रहे हैं, उनका रूख और उनके फैसले सरकार के किसी विभाग के अफसर की तरह के नहीं हैं, और वे एक स्वतंत्र न्यायपालिका की तरह काम कर रहे हैं। ऐसे में लगता है कि केन्द्र सरकार और कानून मंत्री का तनाव बढ़ते चल रहा है, और इस तनाव के चलते कानून मंत्री लगातार नाजायज बातें कह रहे हैं। देश के वकीलों ने जिम्मेदारी का एक काम किया है, और बाकी तबकों के जागरूक लोगों को भी किसी न किसी तरह जनता के बीच लोकतांत्रिक मूल्यों को गिनाना जारी रखना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)