विशेष रिपोर्ट

400 कैदियों को काष्ट शिल्प कला के लिए किया प्रेरित
नाव का खिलौना बना पानी में बहाते मिली प्रेरणा
हरिलाल शार्दूल
कांकेर, 8 अप्रैल (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। नक्सलियों के हाथों से बंदूक छुड़ाकर काष्ठ शिल्प कला सिखाकर 400 लोगों का जीवन संवारने वाले कांकेर निवासी अजय कुमार मंडावी को राष्ट्रपति के हाथों पद्मश्री पुरस्कार मिला। भटके हुए युवाओं को राह दिखाने वाले श्री मंडावी ने जिले के साथ साथ प्रदेश का भी नाम रौशन किया है।
काष्ठ शिल्पकला के क्षेत्र में गोल्डन बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड में अजय मंडावी का नाम आया है।
दिल्ली प्रवास पर रहने के कारण अजय कुमार मंडावी से ‘छत्तीसगढ़’ की मोबाइल से चर्चा हुई। उन्होंने युवा पीढ़ी को प्रेरणा दी कि वे अपनी अस्मिता को जानें और अपने आपको बेशकीमती समझें। हर क्षेत्र में जॉब का मौका है। बशर्तें वे किसी भी विधा का चयन कर उसमें पारंगत होंवे। प्रसन्नचित रह कर लगन से अपने लक्ष्य को पाने जुट जाएं।
आमतौर पर राष्ट्रपति भवन में सूटबूट के साथ सम्मान लेने जाते हुए देखा जाता है, लेकिन अजय नंगे पांव पद्मश्री लेने पहुंचे थे। नक्सल प्रभावित क्षेत्र के राह भटके जेल में सजा काट रहे 4 सौ से अधिक युवाओं को उन्होंने काष्ठ शिल्प कला का प्रशिक्षण दे कर उनकी जिंदगी को नई दिशा दी। इन युवा हाथों को उन्होंने बंदूक छोडक़र छीनी पकडऩे के लिए प्रेरित किया है। उनके इन्हीं कार्यों के लिए उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया।
अक्टूबर 1967 में कांकेर में अजय कुमार मंडावी का जन्म हुआ। उनके पिता प्राथमिक शाला में हेड मास्टर थे। परिवार में पांच सदस्य पत्नी अन्नु मंडावी, बहन स्मिता अखिलेष, पुत्र आकाश मंडावी और पुत्री अनुमेहा मंडावी हैं।
अजय कुमार मंडावी ने बताया कि बचपन में वे कापी के पु_ों, डिब्बों और लकडिय़ों से खिलौना बनाया करते थे। वे लकड़ी के छोटे- छोटे टुकड़ों से नाव बनाकर पानी में बहाते थे। लकड़ी के टुकड़ों से वे गेड़ी, भौंरा, गिल्ली, आदि खिलौने बनाया करते थे। इस कला के प्रति उनके रूझान को देखते उनके पिता ने भी उन्हें इसके लिए प्रोत्साहित किया। उनके पिता गणेश मूर्ति बनाते थे।
पिता को गणेश मूर्ति बनाते हुए देख अजय की भी कला के प्रति रूचि बढऩे लगी। वे भी लोहे की हथौड़ी से पीट-पीट कर कुछ मूर्तियां बनाए थे। उनकी यह कला समाचार पत्रों में छपने पर उन्हें काफी प्रसन्नता हुई और उनका उत्साह कई गुना बढ़ गया।
वर्ष 2006 में उन्होंने वंदे मातरम गीत को काष्ठ शिल्प कला में उकेरा था। उसके बाद उन्होंने 2007 में बाइबिल लिखना शुरु कर दिया, जो ढाई साल में पूरा हुआ। इसे पूरा करने में उनके साथ 10 से 15 लोगों की टीम भी लगी हुई थी। उन्होंने बताया कि काष्ठ कला में लिपि करने के लिए लकड़ी की व्यवस्था करना और उसे आकार देने का कार्य भी एक बड़ी समस्या है।
2009 में बाइबिल पूरा होने के बाद देश और विदेशों तक उनका नाम हुआ। 2010 में वे लाल रंग के मुरूम से ईंट बनाने में जुटे गए। उन्होंने बताया कि लाल रंग के मुरूम में एक विशेषता है कि उसे इक_ा़ कर दबा दिया जाए तो काफी मजबूत ईंट बन जाता है। इसके उपर सौ टन का ट्रक चढ़ाने के बाद भी वह नहीं टूटता है। इसका प्रयोग भी किया गया है। उन्होंने ईंट बनाने कार्य शुरू ही किया था। तभी तत्कालीन कलेक्टर ने उन्हें जेल में बंद कैदियों को उनके खाली समय के उपयोग करने काष्ठ कला सिखाने कहा। तब से वे काष्ठ शिल्प कला से मूर्ति, नेम प्लेट, चाबी रिंग आदि बनाने का प्रशिक्षण दे रहे हैं।
काष्ठ कला के भविष्य के बारे में उन्होंने कहा कि युवा इसे रोजगार के रूप में अपना सकते हैं। छोटे- छोटे लकड़ी के टुकड़े जिसे बेकार समझ कर फेंक दिया जाता है। कलाकार उसे बखूबी उपयोग में लाकर उसे बेशकीमती बना सकता है। युवा पीढ़ी को उन्होंने संदेश दिया कि किसी एक विधा को चुनकर उसमें पारंगत होकर उसे अपने कैरियर बना सकते हैं।