संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हवाई हमले में सौ-पचास जनता का एक साथ कत्ल, म्यांमार पर भारत की चुप्पी
12-Apr-2023 5:04 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :   हवाई हमले में सौ-पचास जनता का एक साथ कत्ल, म्यांमार पर भारत की चुप्पी

फोटो : सोशल मीडिया

हिन्दुस्तान की सरहद से लगे हुए पुराने वक्त के बर्मा, और आज के म्यांमार का भारत से बड़ा गहरा संबंध रहा है। हिन्दुस्तानियों का वहां जाकर काम करना, कारोबार करना भी इतना आम था कि एक हिन्दी फिल्म का एक गाना ही था, मेरे पिया गए रंगून वहां से किया है टेलीफून...। ऐसे पड़ोसी देश में पिछले कुछ बरसों से फौजी तानाशाही की हुकूमत के चलते न सिर्फ लोकतंत्र खत्म है, बल्कि वहां से निकाले गए रोहिंग्या शरणार्थियों का बहुत बड़ा बोझ बांग्लादेश पर पड़ा है। वहां लाखों रोहिंग्या शरणार्थी पहुंचकर रह रहे हैं, और बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था पर, वहां की जिंदगी पर इनका बड़ा बोझ भी है। अब कल म्यांमार के एक गांव में सेना के खिलाफ काम करने वाले एक राजनीतिक संगठन के दफ्तर का उद्घाटन हो रहा था, और वहां मौजूद भीड़ पर फौजी हेलीकॉप्टर से बम गिराया गया, गोलियों से हमला किया गया, और इसमें 50 से 100 के बीच मौतों का अंदाज है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस हमले को लेकर फिक्र जाहिर की है, लेकिन अब तक हिन्दुस्तान ने इस पर शायद कुछ नहीं कहा है। रोहिंग्या शरणार्थी मुसलमान हैं, और भारत में उनकी थोड़ी सी मौजूदगी को लेकर हिन्दुत्ववादी तबके हमलावर रहते हैं, और जहां कहीं मुस्लिमों की मौजूदगी रहती है वहां उनके नाम के साथ पहले बांग्लादेशी शरणार्थी जोड़ दिया जाता था, अब रोहिंग्या शरणार्थी जोड़ दिया जा रहा है। 

म्यांमार की हकीकत को भारत पता नहीं कब तक अनदेखा करते रहेगा, और जुबान बंद रखेगा। कुछ खबरें तो ऐसी भी हैं कि म्यांमार पर जो अंतरराष्ट्रीय रोक लगाई गई है, उसके चलते वहां की फौजी हुकूमत दूसरे देशों से हथियार नहीं खरीद रही है, लेकिन उसकी कुछ किस्म की फौजी मदद हिन्दुस्तान भी कर रहा है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भारत के रूख को लेकर लगातार लिखा जा रहा है कि वह लोकतंत्र की बात जरूर करता है लेकिन म्यांमार में वह फौजी तानाशाही का साथ दे रहा है। हिन्दुस्तान थोड़े से जुबानी जमा-खर्च के लिए हिंसा की बड़ी घटनाओं पर कुछ बोल लेता है, लेकिन वह व्यवहार में वहां के फौजियों के साथ है। इसके पीछे यह भी एक वजह हो सकती है कि अगर वह म्यांमार के किसी भी तरह के शासकों को साथ नहीं रखेगा, तो उनके चीन के करीब जाने की नौबत रहेगी। शायद ऐसी नौबत से बचने के लिए भारत को म्यांमार की सरकारी हिंसा पर मोटेतौर पर चुप्पी रखना बेहतर लग रहा है। लेकिन दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि अगर दोस्त देश भी बड़े पैमानों पर मानवाधिकार का हनन करते हैं, तो उस पर रखी गई चुप्पी अच्छी तरह दर्ज होती है। हालत यह है कि म्यांमार चार लोकतंत्रवादी कार्यकर्ताओं को पिछले बरस जब मौत की सजा दी गई, तो भारत में बसे हुए म्यांमार के सौ-दो सौ लोग उस पर जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करना चाहते थे, और सरकार ने आखिरी वक्त पर प्रदर्शन की इजाजत वापिस ले ली। भारत के उत्तर-पूर्व में मिजोरम में कुछ म्यांमार-शरणार्थियों को स्थानीय स्तर पर जगह दी गई है, लेकिन भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शरणार्थियों के लिए बने दस्तावेज पर दस्तखत के बाद भी इनके लिए कुछ करते नहीं दिख रही है। इसके साथ जब 1971 में पूर्वी पाकिस्तान से भारत में आए हुए लाखों शरणार्थियों को देखें, तो भारत ने उस वक्त एक बड़ी दरियादिली दिखाई थी, और वह इंसानियत आज गायब है। 

म्यांमार की हालत अगर देखें, तो वहां पर फौज ने नोबल शांति पुरस्कार विजेता प्रधानमंत्री आंग-सान-सू-की की निर्वाचित सरकार को 2021 में पलट दिया था, और दो साल के लिए इमरजेंसी लगा दी थी। फौजी हुकूमत ने अब तक हजारों लोगों को मार डाला है, और अंतरराष्ट्रीय समुदाय की फिक्र, रोक, और उसके विरोध के बावजूद यहां के फौजी शासक जुल्म और ज्यादती का दौर चलाए हुए हैं। वहां पर जनता के ऊपर हवाई हमले कई बार देखने में आते हैं, और उनमें सैकड़ों लोग मारे जा रहे हैं। दसियों लाख लोग अपने घर और गांव छोडक़र बेदखल होने को बेबस किए गए हैं, और वहां पर रोहिंग्या मुस्लिम आबादी को अवांछित जनता करार देकर उनके गांव के गांव जलाकर लोगों को देश छोडऩे पर मजबूर किया जा रहा है। हिन्दुस्तान जैसे पड़ोसी देश को चीनी सरहद पर अपनी रणनीतिक जरूरतों को देखने के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय समुदाय के प्रति अपनी जवाबदेही भी देखनी चाहिए। किसी देश को इस तरह का रूख इतिहास में महानता का दर्जा नहीं दिला सकता। यह बात सही है कि देश की विदेश और फौजी रणनीति हमेशा ही नैतिकता पर नहीं चल सकती, लेकिन इतनी लंबी चुप्पी की अनैतिकता भी ठीक नहीं है। 

पूरी दुनिया के सामने एक ताजा मिसाल है कि किस तरह खाड़ी के देशों में एक-दूसरे के खिलाफ कट्टर दुश्मन बने हुए ईरान और सऊदी अरब को चीन ने न सिर्फ बातचीत की टेबिल पर लाया, बल्कि इनके बीच रिश्ते कायम करवाए। और नतीजा यह है कि अमरीका जैसी पश्चिमी ताकतें देखते रह गईं, और कल तक उनके प्रभामंडल वाला सऊदी अरब आज चीन के असर से, कट्टर अमरीका-विरोधी ईरान के साथ चले गया है। यह एक किस्म से दशकों की अमरीकी नीति और मेहनत की शिकस्त है, और चीन की बहुत बड़ी अंतरराष्ट्रीय जीत भी है। आज हालत यह है कि ताजा-ताजा दोस्त बने ईरान और सऊदी अरब साथ बैठकर बगल के यमन में चल रहे लंबे गृहयुद्ध को खत्म करवाने की कोशिश कर रहे हैं, जिसमें बागियों को ईरानी मदद बताई जाती थी। इस तरह इन दोनों देशों के गठजोड़ से इस पूरे इलाके में एक नया प्रभामंडल बनने का आसार दिख रहा है जो कि दुनिया के इस हिस्से में अमरीका के पिट्ठू इजराइल के लिए खतरा भी हो सकता है। इसलिए म्यांमार पर महज चुप्पी हिन्दुस्तान के काम आने वाली नहीं है, उसे एक बड़े लोकतंत्र की तरह भी बर्ताव करना होगा, और अपनी फौजी जरूरतों का भी ध्यान रखना होगा। शरणार्थियों को लेकर अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत वह अपनी जिम्मेदारी की वह पहले भी अनदेखी कर चुका है। ठीक पड़ोस के इस देश के घटनाक्रम से भारत का इस तरह बेरूख रहना ठीक नहीं है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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