संपादकीय

अभी गर्मी शुरू हुई ही है, और आज की खबर कहती है कि देश के 9 राज्यों में लू चलने का खतरा है। मौसम विभाग ने बंगाल, बिहार, और आन्ध्र में भीषण गर्मी का ऑरेंज अलर्ट जारी किया है, और ओडिशा, झारखंड, यूपी, और सिक्किम में हीट वेव का खतरा बताया है। पिछले बरस हिन्दुस्तान में गेहूं की फसल के दौरान इतनी बुरी लू चली थी कि गेहूं के दाने ठीक से नहीं बन पाए थे। इस पर लिखने की जरूरत इसलिए भी लग रही है कि अभी दो दिन पहले ही महाराष्ट्र में हुई एक बड़ी आमसभा में गर्मी से एक दर्जन लोग मारे गए, और सैकड़ों अस्पताल में भर्ती किए गए हैं। इसके पहले कभी भी ऐसी कोई आमसभा सुनाई नहीं पड़ती थी, किसी-किसी सभा में स्कूली बच्चों को देर तक खड़ा कर देने से उनके चक्कर खाकर गिरने की खबर जरूर रहती थी, लेकिन बड़े लोगों में इस तरह एक आमसभा में दर्जन भर मौतें अनसुनी, अनदेखी थीं। और आज की मौसम की भविष्यवाणी पर ही चर्चा की अधिक जरूरत नहीं है, क्योंकि अभी गर्मी के कम से कम 60 दिन बाकी हैं। और झारखंड में तो अगले दो दिनों में ही पारा 44 डिग्री से ऊपर जाने की भविष्यवाणी है, बिहार में बीते कल अधिकतर जगहों पर पारा 40 डिग्री पार कर चुका था। उत्तरप्रदेश के प्रयागराज में अतीक अहमद को मारने के लिए चलाई गई गोलियों से भी तापमान कुछ बढ़ा होगा, वहां पर कल 44.6 डिग्री सेल्सियस गर्मी रही।
अब इंसान तो फिर भी मौसम की भविष्यवाणी देख लेते हैं, और उस हिसाब से कूलर, वॉटरकूलर, और बाकी इंतजाम कर लेते हैं। लेकिन शहरी सडक़ों के जानवर, और जंगलों के जंगली जानवर बदहाल रहते हैं। उन्हें पीने के पानी का भी ठिकाना नहीं रहता है। जंगल में कुछ खाना नसीब हो इसकी गारंटी नहीं रहती है, और पानी की तलाश में हाथी से लेकर भालू तक, और शेर से लेकर तेंदुए तक गांवों मेें पहुंचते हैं, अधिकतर तो लोग उन्हें मारते हैं, और कभी-कभी अपनी जान बचाने के लिए वे भी लोगों को मारते हैं। शहरों में पेड़ कटते चले जा रहे हैं, धूप से खौल जाने वाले कांक्रीट के ढांचे बढ़ते जा रहे हैं, और पंछियों के रहने की जगह सिमटती चल रही है। बंगाल में ममता बैनर्जी ने, और त्रिपुरा की सरकार ने भी इस हफ्ते तमाम स्कूल-कॉलेज बंद कर दिए हैं, और शायद ओडिशा में भी ऐसा ही फैसला हो रहा है।
लेकिन दुनिया के पर्यावरण में और मौसम में जो बदलाव आ रहे हैं, उन्हें सिर्फ गर्मी से नहीं आंका जा सकता। दुनिया की बहुत सी जगहों में ऐसी बर्फबारी होती है जैसी किसी ने कभी देखी नहीं थी। अभी पिछले दो बरसों में योरप में ऐसी बाढ़ आई कि उसे किसी ने देखा नहीं था। हिन्दुस्तान के बगल का पाकिस्तान जिस तरह बाढ़ में डूबा, और महीनों तक डूबे रहा, उसके नुकसान से वह देश बरसों तक नहीं उबर सकेगा। इस तरह मौसम की सबसे बुरी मार न सिर्फ अधिक बुरी होती चल रही है, बल्कि वह अधिक जल्दी-जल्दी भी हो रही है, अधिक जगहों पर भी हो रही है। हालत यह है कि मौसम में बदलाव को धीमा करने के लिए जितने अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन होते हैं, उनमें जुबानी जमाखर्च के अलावा काम कम हो रहा है, और बड़े देश अपनी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए गरीब देशों की मदद को पैसा नहीं निकाल रहे हैं। अभी सूडान की खराब हालत पर संयुक्त राष्ट्र की तरफ से एक बयान आया, और संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने याद दिलाया कि यह देश जो अपनी गरीबी के कारण मौसम के बदलाव में कोई भी बढ़ोत्तरी नहीं कर रहा है, वह मौसम के बदलाव का सबसे बुरा शिकार हुआ है, और भुखमरी की कगार पर है। खुद पाकिस्तान का यह तर्क है कि वह अपनी गरीबी की वजह से अंतरराष्ट्रीय प्रदूषण में कुछ भी नहीं जोड़ रहा है, लेकिन उस पर मार संपन्न देशों के प्रदूषण की वजह से पड़ी है, जो कि मदद करने की अपनी जिम्मेदारी निभाने को तैयार नहीं हैं।
हिन्दुस्तान जैसा देश जो कि न तो दूसरे बहुत देशों की मदद करने के लायक है, और न ही दूसरे देशों से मदद पाने के लायक है, उसे अपने बारे में बारीकी से सोचना चाहिए। कटे हुए पेड़ों की जगह नए पेड़ लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में बनी कमेटी से राज्यों को मिले हजारों करोड़ रूपये सरकारी अमला और सत्तारूढ़ राजनीतिक ताकतें लूटकर खा जा रही हैं, और कोई पेड़ नहीं लग रहे। अब किसी देश में इससे अधिक ऊंची निगरानी और क्या हो सकती है कि एक-एक पैसे को खर्च करने के लिए नियम सुप्रीम कोर्ट ने बनाए और लागू किए हैं। यह देश अंधाधुंध आर्थिक उदारीकरण का शिकार है, और मानो देश की सार्वजनिक परिवहन नीति कार-कंपनियां बनाती हैं। शहरों में बसों या दूसरे किस्म के ट्रांसपोर्ट का ढांचा बढऩे ही नहीं दिया जा रहा है ताकि निजी गाडिय़ां बिकती रहें। आज हालत यह है कि इन गाडिय़ों को बनाते हुए धरती पर कार्बन बढ़ रहा है, फिर इन गाडिय़ों को चलाते हुए वह कार्बन और बढ़ रहा है, और उसके बाद बढ़ी हुई गाडिय़ों के लिए अधिक से अधिक पार्किंग बनाना, सडक़ों और पुलों को चौड़ा करना चल रहा है जिससे कि कार्बन और अधिक बढ़ रहा है। किस तरह एक बस में 50 लोगों के जाने के बजाय 25-50 कारों में उतने लोग जाते हैं, और पूरा शहरी ढांचा इसी बढ़ी हुई जरूरत के हिसाब से बनाया जा रहा है। पेड़ घटते जा रहे हैं, कांक्रीट की खपत बढ़ती जा रही है, और खुली जगह खत्म होती जा रही है।
यह अकेली दिक्कत नहीं है, कई और किस्म के खतरे भी हैं, जिनमें कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को सबसे बड़ा खतरा माना जाता है, और सामानों की अमरीकी पैमाने की खपत भी धरती बहुत बड़ा बोझ है, शायद हर औसत अमरीकी दुनिया के किसी भी और इंसान के मुकाबले मौसम को अधिक बर्बाद कर रहे हैं। यह सिलसिला पता नहीं कैसे थमेगा, किसकी मदद से थमेगा, लेकिन यह बात तय है कि आज की जिस पीढ़ी को मौसम की आग से बचने के लिए छाता हासिल है, उसे पेड़ लगाना नहीं सूझ रहा है, पेड़ बचाना भी नहीं सूझ रहा है, प्रदूषण घटाना तो सूझ ही नहीं रहा है क्योंकि अपनी खुद की कार एसी है।
ऐसी टुकड़ा-टुकड़ा बहुत सी बातें हैं और लोग इस बारे में सोचें, बात करें, और सत्ता हांकने वाले लोगों से सवाल भी करें। अगर आज इतनी जिम्मेदारी जिंदा लोग नहीं निभाएंगे, तो मरकर इन्हें ऊपर से अपनी औलादों को सूरज की आग में झुलसते देखना होगा, यह तो तय है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)