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द केरला स्टोरी: सच पर आधारित सिनेमा या प्रोपेगैंडा का हथियार
12-May-2023 3:43 PM
द केरला स्टोरी: सच पर आधारित सिनेमा या प्रोपेगैंडा का हथियार

वंदना

क्या आज की तारीख़ में सिनेमा समाज में प्रोपेगैंडा का एक हथियार बन गया है? हाल ही में आई फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के रिलीज़ होने के बाद ये बहस दोबारा छिड़ गई है, इससे पहले ऐसा कश्मीर फाइल्स के रिलीज के समय हुआ था।

हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी जब कर्नाटक में चुनाव प्रचार कर रहे थे तो उनका ये बयान खूब वायरल हुआ।

उन्होंने कहा, ‘कहते हैं कि केरला स्टोरी सिर्फ एक राज्य में हुई आतंकवादियों की छद्म नीति पर आधारित है। देश का एक राज्य जहाँ के लोग इतने परिश्रमी और प्रतिभाशाली होते हैं, उस केरल में चल रही आतंकी साजिश का खुलासा इस ‘द केरला स्टोरी’ फिल्म में किया गया है।’

विपक्ष के कई नेताओं का कहना था कि ‘इस्लाम-विरोधी प्रचार’ कुछ फिल्मों का मुख्य नैरेटिव बन गया है जिसका ‘राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश’ सत्ताधारी पार्टी कर रही है।

पश्चिम बंगाल ने फिल्म पर बैन लगा दिया है और ये मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। कुछ राज्यों ने इसे अपने यहां टैक्स फ्री करने का भी एलान किया है। कुछ जगहों पर फिल्म की स्क्रीनिंग राजनेताओं के लिए भी की गई है।

फिल्मों के प्रोपेगैंडा का हथियार बनने के आरोप पर प्रोफेसर इरा भास्कर कहती हैं, ‘अब कई फि़ल्में सिफऱ् बहुसंख्यकों की बात करती हैं। केरला स्टोरी मैंने देखी नहीं है लेकिन जितना उसके बारे में पढ़ा यही लगता है कि वो इस्लाम के खिलाफ खौफ पैदा करने के लिए बनी है।’

वे कहती हैं, ‘कश्मीर पर पहले भी फिल्में बनी हैं-‘मिशन कश्मीर’, लम्हा जिसमें भारत, पाकिस्तान सबकी आलोचना है।’

जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सिनेमा के बारे में पढ़ाने वाली प्रोफेसर भास्कर कहती हैं, ‘ये वो फिल्में थीं जो सत्ता के खिलाफ आवाज उठाती थीं लेकिन वो फिल्में इस्लामोफोबिक फिल्में नहीं हैं।’

‘वो दिखाती थीं कि जो कुछ भी हो रहा है वो सही नहीं है, न हिंदुओं के साथ, न मुसलमानों के साथ, लेकिन आज के राजनीतिक हालात में सिनेमा को प्रोपेगैंडा का हथियार बना लिया गया है। इतिहास को फिर से लिखने की कोशिश हो रही है, चाहे किताबें हों या फिल्में।’

वहीं ‘द केरला स्टोरी’ के निर्माता विपुल शाह प्रोपेगैंडा के आरोप पर फिल्म के आँकड़ों और प्रधानमंत्री मोदी को अपनी ढाल बनाते हुए कहते हैं, ‘जवाब लोगों ने दे दिया है । शुक्रवार के मुकाबले सोमवार को फिल्म ने और भी ज्यादा कमाई की है।’

निर्माता विपुल शाह कहते हैं, ‘हमारी फिल्म किसी भी समुदाय के खिलाफ नहीं है। हमारी फिल्म आतंकवाद के खिलाफ है।’

विपुल शाह सवाल उठाने वालों पर आरोप लगाते हैं, ‘ये सवाल बार-बार पूछकर आप भडक़ा रहे हैं। हम शुक्रगुजार हैं जेपी नड्डा ने हमारी फिल्म देखी और तारीफ की।’

‘ये कहना बेवकूफी वाली बात होगी, कि चूंकि उन्होंने फिल्म देखी है इससे साबित होता है कि हम बीजेपी के प्रोपेगैंडा वाली फि़ल्म बना रहे हैं।’

क्या कोई नई बात है?

प्रोपेगैंडा की बहस को समझने के लिए अतीत में झाँकना ज़रूरी है। किस्सा 1975 के आस-पास का है जब भारत में इमरजेंसी का दौर था। ये वो वक़्त भी था जब अभिनेता मनोज कुमार अपनी ख़ास तरह की फि़ल्मों की वजह से ‘भारत कुमार’ के तौर पर पहचान बना चुके थे।

मनोज कुमार इंदिरा गांधी के लिए ‘नया भारत’ नाम की फिल्म बना रहे थे लेकिन फिर इमरजेंसी को लेकर आलोचना बहुत बढ़ गई और मनोज कुमार ने फिल्म बनाने से इंकार कर दिया।

इसके बाद मनोज कुमार की आने वाली फिल्म ‘शोर’ रिलीज से पहले ही दूरदर्शन पर दिखा दी गई जिससे थिएटर में रिलीज होने पर फिल्म के कारोबार पर बुरा असर पड़ा। इतना ही नहीं, उनकी एक और फिल्म ‘दस नंबरी’ के रिलीज में भी दिक्कत हुई।

अगर इमरजेंसी के दौर में इंदिरा गांधी की पसंद की फिल्म बनी होती तो वो प्रोपगैंडा फिल्म होती या नहीं, यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है।

सिनेमा बना राजनीति की ढाल?

अभी तो बहस इस बात पर छिड़ी है कि क्या राजनेता ‘द केरला स्टोरी’, ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्मों का इस्तेमाल प्रोपेगैंडा के लिए करते हैं या ये कि कई फिल्मकार जान-बूझकर प्रोपगैंडा वाली फिल्में बनाते हैं, प्रोपेगैंडा वाली बहस के बीच ‘द कश्मीर फाइल्स’ के रिलीज के वक्त लेखक राहुल पंडिता ने बीबीसी से बात की थी।

उनका कहना था, ‘कश्मीर फाइल्स फिल्म को इतनी जोरदार सफलता मिली क्योंकि कश्मीरी पंडितों को लगता रहा है कि उनकी कहानी को हमेशा दबाया गया है।’ अगर मैं इस शब्द का इस्तेमाल कर सकूँ तो मैं कहना चाहूँगा कि फिल्म(द कश्मीर फाइल्स) के जरिए कश्मीरी पंडित भावनात्मक मंथन से गुजर रहे हैं।

राहुल ने कहा, ‘मेरी किताब को छपे 10 साल हो चुके हैं लेकिन आज भी मेरे पास रोज लोगों के ईमेल आते हैं कि उन्हें इस त्रासदी के स्तर का अंदाजा ही नहीं था।’

कश्मीर पर दो चर्चित किताबें लिख चुके अशोक कुमार पांडेय का कहना है, ‘कश्मीरी पंडितों की तकलीफ़ से कोई इनकार नहीं कर सकता लेकिन कश्मीर फ़ाइल्स एक इकहरी फि़ल्म थी जिसमें यह बात पूरी तरह से गोल कर दी गई कि घाटी के मुसलमान भी आतंकवाद से प्रभावित हुए थे।’

‘दरअसल, आतंकवाद के दौर में घाटी में मारे गए कुल लोगों में अधिक तादाद मुसलमानों की थी लेकिन फिल्म का मक़सद कश्मीर के दर्द को दिखाना कम, और हिंदुओं के पीडि़त होने की भावना को उभारना अधिक था।’

‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म में सभी मुसलमानों को खलनायक की तरह पेश किया गया था जबकि सच्चाई यह है कि ढेरों पंडितों को उनके मुस्लिम पड़ोसियों ने ही बचाया था।

बहरहाल, सत्ता पक्ष से जुड़े अनेक लोगों ने जिनमें प्रधानमंत्री भी शामिल थे, ‘कश्मीर फाइल्स’ को पूरी तरह सच्ची घटना पर आधारित बताया था।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी फिल्म के कलाकारों को बधाई दी थी।

यह भी दिलचस्प है कि जैसे इस वक्त ‘द केरला स्टोरी’ को कई भाजपा शासित राज्यों ने टैक्स-फ्री कर दिया है। उसी तरह कश्मीर फाइल्स को भी हरियाणा, गुजरात, उत्तर प्रदेश जैसे कई राज्यों में टैक्स से मुक्त कर दिया गया था।

प्रोफ़ेसर इरा भास्कर कहती हैं कि नेहरू और दूसरी पार्टियों के शासनकाल में भी विचारधारा से जुड़ी फि़ल्में बनी हैं लेकिन वो क्रिटिकल फिल्में कही जा सकती हैं।

मसलन, कुछ साल पहले जब मनोज कुमार सेहतमंद थे तो उन्होंने बीबीसी से खास बातचीत की थी। उन्होंने बताया था कि ‘उपकार’ फिल्म की प्रेरणा उन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से मिली थी।

लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री आवास पर निमंत्रित करके कहा था कि क्या वो ‘जय जवान-जय किसान’ की अवधारणा के इर्द-गिर्द फिल्म बना सकते हैं।

1950 और 60 का दौर नेहरू का था जब देश में उनका कद बहुत ऊँचा था और उनकी नीतियों और आदर्शों की छाप राज कपूर या दिलीप कुमार और दूसरों की फिल्मों पर देखी जा सकती थी।

वहीं जब फिल्म जागृति (1954) में स्कूल का टीचर बच्चों को ‘हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के’ सुनाता है तो बीच गाने में कैमरा नेहरू की फोटो पर ज़ूम होता है और बोल हैं, ‘देखो कहीं बर्बाद न होवे ये बगीचा।’

हम हिंदुस्तानी (1960) में सुनील दत्त पर फिल्माया गाना ‘छोड़ो कल की बातें, कल की बात पुरानी’। इस गाने में भी आप नेहरू को किसी सम्मेलन में देख सकते हैं जो कांग्रेस का अधिवेशन लगता है।

सॉफ्ट प्रोपेगैंडा बनाम उग्र प्रचार?

तो सवाल उठता है कि क्या ये आदर्शों से प्रभावित फि़ल्में थीं या ये भी एक तरह का सॉफ्ट प्रोपेगैंडा था और अब ‘द केरला स्टोरी’ में जो हो रहा है वो उसी का बड़ा और उग्र रूप है?

इरा भास्कर अपनी बात कुछ यूँ रखती हैं, ‘पहले की फि़ल्में किसी समुदाय के खिलाफ नहीं होती थीं, वो विकास से जुड़ी हुई या समुदायों को जोडऩे वाली फिल्में थीं। दिलीप कुमार की ‘नया दौर’ ऐसी ही फिल्म थी जिसमें विकास की बात थी।’

मेघनाद देसाई ने तो इस पर एक किताब भी लिखी है नेहरूज हीरो-दिलीप कुमार इन द लाइफ ऑफ इंडिया।

वो लिखते हैं, ‘दिलीप कुमार की ‘नया दौर’ नेहरूवियन फिल्म थी। फिल्म दिखाती है कि लोगों में देश को लेकर एक तरह का गौरव का भाव था, जब वो गाते हैं, ‘ये देश है वीर जवानों का’। इसमें जैसे तांगे और मोटर गाड़ी का टकराव है, वो नेहरू के दौर में आधुनिकीकरण और गांधी की सोच को दर्शाता है।’

आज के दौर की बात करें तो जब 2022 में विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ रिलीज हुई जिसने समाज को दो फाड़ कर दिया।

कश्मीर फाइल्स एक यूनिवर्सिटी छात्र की काल्पनिक कहानी है जिसे पता चलता है कि उसके कश्मीरी हिंदू माता-पिता की हत्या इस्लामिक चरमपंथियों ने की थी।

मोदी के भाषण में केरला स्टोरी का जिक्र क्यों?

प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में फि़ल्म का जिक्र करते हुए कहा था, ‘कश्मीर फाइल्स में जो दिखाया गया है उस सत्य को सालों तक दबाने का प्रयास किया गया। कुछ लोग फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन की बात करते हैं। आपने देखा होगा, इमरजेंसी इतनी बड़ी घटना, कोई फिल्म नहीं बना पाया।’

‘कई सत्य को दबाने का लगातार प्रयास किया गया। जब हमने भारत विभाजन के दिन 14 अगस्त को हॉरर डे के रूप में याद करने का फैसला लिया तो कई लोगों को बड़ी मुसीबत हो गई। कैसे भूल सकता है देश। क्या भारत विभाजन पर कोई ऑथेंटिक फिल्म बनी?’

इससे पहले विवेक अग्निहोत्री द ‘ताशकंद फाइल्स’ की भी इस बात की आलोचना हुई थी कि उसमें अफवाहों को तथ्य के तौर पर दिखाया गया जिसके बाद शास्त्री के पोते ने कानूनी नोटिस भेजा।

सवाल ये भी उठ रहा है कि एक प्रधानमंत्री का बार-बार यूँ विवादित फिल्मों का उल्लेख करना कहाँ तक सही है।

‘द केरला स्टोरी’ के ट्रेलर को लेकर ही विवाद हो गया था जब ये दिखाया गया था, ‘केरल की 32 हजार महिलाएँ जिहाद में शामिल हो गई हैं।’

जब अदालत ने फिल्म के निर्माता से पूछा कि 32 हजार का आँकड़ा कहाँ से आया, तो वो जिसे अब तक ‘तथ्य’ बता रहे थे, उसका जिक्र ट्रेलर से हटाने को राज़ी हो गए।

फिल्म क्रिटिक अर्नब बनर्जी कहते हैं, ‘इन फिल्मों के निर्माता-निर्देशकों का दावा है कि ये फिल्में सत्य घटनाओं पर आधारित हैं, लेकिन ये घटनाएँ ज़्यादा पहले की नहीं हैं इसलिए कई बातें लोगों की जानकारी में हैं जिसकी पुष्टि वो खुद कर सकते हैं।’

वे कहते हैं, ‘कोई भी ये समझ सकता है कि फिल्ममेकर्स का मकसद आम आदमी को उकसाकर, उसका राजनीतिक फायदा उठाना है। इसमें दिए गए तथ्य आधे-अधूरे हैं और विषय-वस्तु को जान-बूझकर भगवा रंग देने की कोशिश की गई है।’

‘मुसलमानों को खलनायक या समाज में बुराई की एकमात्र जड़ के रूप में दिखाया गया है।’

रौनक कोटेचा दुबई में फिल्म समीक्षक हैं जहाँ केरल समुदाय भी बसा हुआ है। वे कहते हैं, ‘यहाँ बसे भारतीयों का मकसद सिर्फ रोजी-रोटी कमाना और शांति से रहना है।’ ‘इसलिए। ज़्यादातर लोग यहाँ पर इन सब बातों पर चुप ही रहते हैं। यहाँ के मीडिया में भी आपको ‘द केरला स्टोरी’ पर ज़्यादा कुछ सुनाई नहीं देगा।’

सिनेमा और राजनीति का उलझा रिश्ता

वैसे सिनेमा और राजनीति का उलझा हुआ नाता रहा है। जहाँ कुछ फिल्मों को राजनीतिक प्रोपेगैंडा के हथियार बनाने का आरोप लगा तो कुछ फि़ल्मों ने सत्ता को चुनौती दी।

जब फि़ल्म 'किस्सा कुर्सी का' आई तो संजय गांधी पर आरोप था कि इमरजेंसी के दौरान 1975 में बनी फि़ल्म के प्रिंट उनके कहने पर जला दिए गए थे।

इमरजेंसी के बाद बने शाह कमीशन ने संजय गांधी को इस मामले में दोषी पाया था और कोर्ट ने उन्हें जेल भेज दिया हालांकि बाद में फ़ैसला पलट दिया गया ।

फि़ल्म में संजय गांधी और उनके कई करीबियों का मज़ाक बनाया गया था। शबाना आज़मी गूँगी जनता का प्रतीक थी, उत्पल दत्त एक बाबा के रोल में थे और मनोहर सिंह एक राजनेता के रोल में थे जो एक जादुई दवा पीने के बाद अजब-गज़़ब फ़ैसले लेने लगते हैं।

इसी तरह 1978 में आईएस जौहर की फिल्म ‘नसबंदी’ भी संजय गांधी के नसबंदी कार्यक्रम का मज़ाक उड़ाती थी जिसमें उस दौर के बड़े सितारों के डुप्लिकेट ने काम किया था। फिल्म में दिखाया गया कि किस तरह से नसबंदी के लिए ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पकड़ा गया।

फिल्म का एक गाना था ‘गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार’ जिसके बोल कुछ यूँ थे, ‘कितने ही निर्दोष यहाँ मीसा के अंदर बंद हुए/अपनी सत्ता रखने को जो छीने जनता के अधिकार/गांधी तेरे देश में ये कैसा अत्याचार’

इसे इत्तेफाक कहिए या सोचा-समझा क़दम कि ये गाना किशोर कुमार ने गाया था। दरअसल, इमरजेंसी के दौरान किशोर कुमार उस वकत बहुत नाराज हो गए थे जब उन्हें कांग्रेस की रैली में गाने के लिए कहा गया।

प्रीतिश नंदी के साथ छपे एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था, ‘मैं किसी के आदेश पर नहीं गाता।’

जब इमरजेंसी के दौरान कलाकारों ने उठाई आवाज

किशोर कुमार और देव आनंद ने जिस तरह इमरजेंसी का विरोध किया इसके किस्से तो जगज़ाहिर हैं।

देव आनंद तो इतने नाराज थे कि उन्होंने नेशनल पार्टी ऑफ इंडिया नाम की राजनीतिक पार्टी तक बनाई थी। शिवाजी पार्क में इसका बड़ा जलसा भी हुआ।

मैं समझ गया था कि मैं उन लोगों के निशाने पर हूँ, जो संजय गांधी के करीब हैं।

सिनेमा, कांग्रेस, भाजपा, लेफ्ट, प्रोपेगैंडा ।।ये तार उलझे हुए लगते हैं लेकिन इसमें कई अपवाद भी रहे हैं।

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी अपने सिनेमा प्रेम के लिए जाने जाते रहे हैं। फिल्म ‘कोई मिल गया’ की खास स्क्रीनिंग राकेश रोशन ने वाजपेयी के लिए रखी थी लेकिन उस वक्त कोई विवाद नहीं हुआ था।

इतना ही नहीं, आमिर खान ने अपनी फिल्म ‘तारे जमीं पर’ (2007) की ख़ास स्क्रीनिंग लालकृष्ण आडवाणी के लिए रखी थी जिसके बाद ये सुर्खी मशहूर हुई थी कि फिल्म ने फिल्म क्रिटिक रहे आडवाणी को रुला दिया था।

जबकि इससे पहले 2006 में नर्मदा बचाओ आंदोलन में हिस्सा लेने के कारण आमिर संघ परिवार के निशाने पर थे और आमिर की फिल्म ‘फना’ गुजरात में बैन भी कर दी गई थी।

प्रोपैगैंडा बनाम मनोरंजन

पिछले कई सालों से भारत में ऐसी फि़ल्में बन रही हैं जो देश में लोकप्रिय मुद्दों और सरकार की नीतियों के अनुरूप कहानियाँ चुन रही हैं।

स्वच्छ भारत को देखते हुए ‘टॉयलेट एक प्रेमकथा’ और उद्यम को बढ़ावा देने की सरकार की नीति को ध्यान में रखकर बनी ‘सुई-धागा’ सरकारी योजनाओं के प्रचार पर आधारित लगती हैं।

देश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के दौर में ऐसी ऐतिहासिक फि़ल्मों की बाढ़ आ गई है जिनमें हिंदू सेनानियों की वीरता और ‘मुसलमान आक्रांताओं’ की क्रूरता को दिखाया जा रहा है, जैसा कि फिल्म क्रिटिक अर्नब बनर्जी ने भी कहा। तानाजी, पृथ्वीराज, पद्मावत, पानीपत और बाजीराव मस्तानी वगैरह ऐसी फिल्में हैं।

धर्म, समुदाय, दंगों और जातीय हिंसा को लेकर भी फिल्में बनती रही हैं। पंजाब के हालात को लेकर 90 के दशक में गुलजार ने ‘माचिस’ बनाई। राहुल ढोलकिया की ‘परज़ानिया’ आई।(बाकी पेज 5 पर)

पंजाब में दंगों पर ‘पंजाब 1984’ आई। बँटवारे से पहले हुई धार्मिक हिंसा पर ‘तमस’ जैसी टेलीफि़ल्म बनी। ‘गर्म हवा’ में बँटवारे के बाद का दर्द दिखाया गया। 1959 में जब यश चोपड़ा ने अपनी पहली फिल्म निर्देशित की तो एक ऐसे मुसलमान व्यक्ति पर बनाई जो एक नाजायज हिंदू बच्चे को गोद लेता है और दो साल बाद ही वो ‘धर्मपुत्र’ बनाते हैं जो बँटवारे के बाद एक हिंदू युवक, उसकी धार्मिक कट्टरता और बदलाव की कहानी है।

इन पर प्रोपेगैंडा के आरोप नहीं लगे, लेकिन आज के बँटे हुए समाज में ये अंतर धूमिल-सा होता दिखता है कि किस फिल्म में समाज की सच्चाईयों को दिखाने की कोशिश की गई है, कहाँ केवल कोरा प्रोपेगैंडा है।

जैसा कि कश्मीर फाइल्स से जुड़ी एक बातचीत में डॉक्यूमेंट्री फिल्ममेकर सिद्धार्थ काक ने कहा था, ‘कश्मीर फ़ाइल्स को लेकर कहा गया कि यही सच है। लेकिन कश्मीरी पंडितों की कहानी आप तब तक नहीं बता सकते जब तक आप पिछले 30 सालों के कश्मीर की कहानी न बताई जाए।’

‘शायद यही वजह है कि फिल्मों में इनकी कहानी पहले नहीं दिखाई गई क्योंकि इन जटिल मुद्दों को जिस तरह परत-दर-परत दिखाने की जरूरत है, उसे कहने का शायद स्पेस ही नहीं है।’

अंत में जिक्र मनोज कुमार का, उन्होंने राज्यसभा टीवी को दिए गए इंटरव्यू में कहा था, ‘मुझे राग दरबारी बहुत पसंद है लेकिन मैं इंसान दरबारी नहीं हूँ। मैं किसी नेता के ड्राइंग रूम में बैठने वाला नहीं हूँ। मेरी नेता मेरी पब्लिक है।’ (bbc.com/hindi)

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