संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मां के ऑपरेशन को नाबालिग बेटा किडनी बेचने को घूमे, ऐसे देश को धिक्कार है
12-May-2023 4:36 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  मां के ऑपरेशन को नाबालिग बेटा किडनी बेचने को घूमे, ऐसे  देश को धिक्कार है

photo : twitter

रांची का एक वीडियो सामने आया है जिसमें एक बच्चा अपनी मां के इलाज के लिए किडनी बेचना चाहता है। पिता गुजर चुके हैं, घर पर मां-बहन हैं, मां का पैर टूटा, इलाज में बड़ा खर्च होना है, तो वह झारखंड की इस राजधानी में एक निजी अस्पताल में किडनी बेचने पहुंचा। वहां लोग हड़बड़ा गए, और वहां के कर्मचारी ने सरकारी मेडिकल कॉलेज रिम्स के एक डॉक्टर को यह वाकिया बताया। उन्होंने उस लडक़े को बुलाकर समझाया, और उसकी मां को इलाज के लिए लाने के लिए कहा। साथ ही उन्होंने बिहार के मुख्यमंत्री और पुलिस प्रशासन को टैग करते हुए इस लडक़े का वीडियो पोस्ट किया ताकि उसकी बेबसी का कोई फायदा न उठा ले। अब इस तरह की खबरें कई बार कुछ दिन बाद जाकर गलत भी साबित होती हैं, इसलिए हम आज यहां जो लिख रहे हैं वह इस समझ पर टिकी हुई बात है कि यह मामला सही है। अगर यह खबर झूठी साबित होगी, तो बिना इस मिसाल के भी हमारे तर्क और हमारी सोच तो अपनी जगह बने ही रहेंगे। 

यह लडक़ा किसी होटल में मजदूरी करता है, और खबरों के मुताबिक यह बात मदर्स डे पर सामने आई है। अधिकतर अखबारों में यह खबर डॉ. विकास कुमार नाम के न्यूरोसर्जन की एक ट्वीट से बनी है, और यह ट्विटर अकाउंट सही लग रहा है। अब सवाल यह उठता है कि सरकार की बहुत सी योजनाओं के रहते हुए यह नौबत क्यों आ रही है? केन्द्र सरकार और अलग-अलग राज्य सरकारों की कई तरह की इलाज-बीमा योजनाएं हैं, बड़े-बड़े सरकारी अस्पताल हैं। उनके रहते हुए अगर किसी को कोई दुर्लभ बीमारी हो, जिसके इंजेक्शन ही करोड़ों के हों, तो उनकी खबर बनना तो समझ पड़ता है, लेकिन टूटे पैर के ऑपरेशन जैसी मामूली और साधारण तकलीफ का इलाज भी अगर नहीं हो पा रहा है तो यह सरकारों के लिए फिक्र की बात होनी चाहिए। जिस परिवार का नाबालिग लडक़ा किडनी बेचने को मजबूर हो रहा हो, वहां ऐसे तनाव और ऐसी निराशा में कोई खुदकुशी भी हो सकती है। इस सिलसिले को सुधारने की जरूरत है। 

हम केन्द्र और राज्य की अलग-अलग योजनाओं की बारीकियों पर जाना नहीं चाहते लेकिन प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों की तस्वीरों वाले इलाज और इलाज बीमा के इश्तहार तो जगह-जगह दिखते हैं। या तो लोगों का सरकारी अस्पतालों पर भरोसा नहीं जमता, या कम पढ़े-लिखे और गरीब, कमजोर लोगों को सरकारी योजनाओं तक पहुंचना मुश्किल रहता है, इसे एक नमूना मानकर सरकारों को अपनी योजनाओं का मूल्यांकन करना चाहिए। वैसे भी हमारा तजुर्बा यह रहा है कि प्रदेशों की राजधानियों में सबसे बड़े सरकारी मेडिकल कॉलेज अस्पताल में भी स्ट्रेचर और व्हीलचेयर जैसी मामूली चीजें भी आसानी से हासिल नहीं हो पाती हैं, दवा, जांच, और ऑपरेशन तो आगे की बात है। इन अस्पतालों में इस कदर भीड़ रहती है कि कम पढ़े-लिखे, गांव से आए हुए गरीब लोग तो उस भीड़ में खो से जाते हैं। और जब किसी तरह शहर तक पहुंचने का इंतजाम करके ग्रामीण गरीब वहां पहुंचते हैं तो उन्हें महंगी जांच के लिए महीनों बाद की तारीख मिलती है, फिर ऑपरेशन की बारी की एक और लंबी कतार रहती है। थक-हारकर बहुत से लोग घरबार बेचकर भी निजी अस्पतालों में जाने को बेबस रहते हैं। सरकार का ढांचा इस हद तक नाकाफी रहता है कि मरीज सामने बैठे रहते हैं, और डॉक्टरों का वक्त खत्म हो जाता है, वे उठकर चले जाते हैं, अपनी प्राइवेट प्रैक्टिस के लिए। 

ऐसा लगता है कि देश में इलाज की जरूरत और इलाज के ढांचे के बीच कोई तालमेल नहीं है। जहां सरकार हर गरीब के इलाज का दावा करती है, वहां भी सरकारी स्वास्थ्य सेवा की क्षमता बिल्कुल आधी-अधूरी रहती है। और यह सिलसिला दशकों से चले आ रहा है, शायद आजादी के वक्त से भी। शुरू में तो निजी मेडिकल कॉलेज अधिक नहीं रहे होंगे, लेकिन अब तो हर किस्म के कारोबारियों के लिए मेडिकल कॉलेज का कारोबार खुला हुआ है, और उसके बाद भी न मेडिकल कॉलेजों में सीट हैं, न वहां पढ़ाने वाले हैं, और न वहां से निकलकर इलाज करने के लिए सरकारी अस्पतालों का पर्याप्त ढांचा ही है। इस जगह पर और अधिक खुलासे से लिखना मुश्किल है लेकिन यह बात तय है कि सरकारी योजनाओं में दस-बीस बरस बाद की नौबत सोचकर कुछ किया गया हो, ऐसा लगता नहीं है। 

हिन्दुस्तान से यूक्रेन जैसे देशों में जाकर मेडिकल की पढ़ाई करके लोग लौटते हैं, और उसके बाद यहां के इम्तिहान पास करके वे यहां इलाज करने का हक पाते हैं। अब सहज बुद्धि तो यह कहती है कि अगर यूक्रेन जैसे देश ऐसी पढ़ाई करवाकर लोगों से कमाई कर सकते हैं, तो यह काम इस देश के भीतर क्यों नहीं किया जा सकता? डॉक्टरों की डिमांड और सप्लाई का फर्क इस देश में इतना बड़ा है कि सरकारी तनख्वाह बहुत से डॉक्टरों को आकर्षित नहीं कर पाती, क्योंकि अब बढ़ते चल रहे महंगे निजी अस्पतालों में उन्हीं डॉक्टरों को खासी अधिक तनख्वाह मिलने लगती है, और वहां अधिक जांच, अधिक इलाज पर अधिक कमीशन भी मिलता है। ऐसी बाजार व्यवस्था में सरकारी ढांचे में हमेशा ही कमी बनी रहेगी क्योंकि सरकार में किसी को दूसरे विभागों से बहुत अधिक तनख्वाह देना किसी नौकरशाह को नहीं सुहाता है। 

रांची के जिस बच्चे की मां के इलाज को लेकर यह सब लिखना हुआ है, उसका इलाज तो इतना महंगा और जटिल भी नहीं था कि ऐसी नौबत आई होती। लेकिन सरकारों को सोचना चाहिए कि गरीबों को किस तरह जिंदा रहने की बेहतर सहूलियतें दी जा सकती हैं। निजी अस्पताल बड़े-बड़े बन जरूर रहे हैं, लेकिन वे कभी भी गरीबों के लिए नहीं रहेंगे, और अगर गरीब वहां जाने को मजबूर भी होंगे, तो उनकी पूरी दुनिया बिकने के बाद ही ऐसा हो पाएगा। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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