संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हिन्दुस्तानी चुनाव और लोकतंत्र को बेहतर बनाने कुछ सोचने की जरूरत
14-May-2023 3:54 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  हिन्दुस्तानी चुनाव और  लोकतंत्र को बेहतर बनाने कुछ सोचने की जरूरत

कर्नाटक के विधानसभा चुनाव के साथ-साथ कुछ और राज्यों में उपचुनाव भी हुए हैं। चुनाव आयोग इसी तरह करता है कि उपचुनावों को किसी दूसरे बड़े चुनाव के साथ जोड़ देता है। ऐसे में पंजाब के जलंधर में लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुआ तो वहां आम आदमी पार्टी के सुशील रिंकू ने कांग्रेस की करमजीत कौर चौधरी को 58 हजार से अधिक वोटों से हराया। राज्य में आम आदमी पार्टी की ही सरकार है, और उपचुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी की ताकत कुछ तो काम आती है। लेकिन इसमें देखने की बात यही है कि आप प्रत्याशी सुशील रिंकू चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस छोडक़र आप में आए थे। यह कोई अकेला और अनोखा मामला नहीं है, दलबदल कर आने वाले लोगों को आनन-फानन टिकट देने में किसी पार्टी को परहेज नहीं रहता है, और कुछ पार्टियां तो बाहर से आने वाले लोगों को मंत्री और मुख्यमंत्री भी बना देती हैं। 

लेकिन लोकतंत्र के हिसाब से अगर देखें तो क्या चुनाव सुधारों में यह बात शामिल नहीं होनी चाहिए कि दलबदलुओं को रातों-रात दूसरी पार्टी का उम्मीदवार बनने का हक न रहे? एक वक्त कई किस्म के लोगों को चुनाव लडऩे का हक था, फिर चुनाव सुधारों से नए नियम बने, और कई किस्म के जुर्म वाले नेताओं को चुनाव लडऩे का हक नहीं रहा। इसलिए लोकतंत्र में सुधार तो लगातार चलते रहने चाहिए, और दलबदल करके संसद और विधानसभाओं में पहुंचना जो लोग जारी रखते हैं, उस पर रोक लगनी चाहिए। हमने पहले भी इस बारे में लिखा है कि जब लोग कोई पार्टी छोड़ते हैं, तो नई पार्टी से कुछ बरस के लिए उनके लोकसभा या विधानसभा के चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए। जिस तरह सरकारी अफसर रिटायर होने के बाद कुछ बरस कोई निजी नौकरी नहीं कर सकते, जज रिटायर होने के बाद कुछ वक्त के लिए वकालत नहीं कर सकते, उसी तरह की रोक दलबदल वालों पर भी लगनी चाहिए। रातों-रात पार्टी बदल दें, और उसी विधानसभा में या अगली विधानसभा में नए पार्टी निशान पर पहुंच जाएं, यह सिलसिला ठीक नहीं है, यह लोकतंत्र में ईमानदारी की बात नहीं है। चूंकि नेता और पार्टी को इस सिलसिले से कोई परहेज नहीं है, इसलिए देश में कानून ही ऐसा बनाना चाहिए कि लोग दलबदल के बाद सत्ता पर काबिज रहने की मौकापरस्ती न दिखा सकें। साफ-साफ शब्दों में कहें तो लोगों के पार्टी छोडऩे के बाद कुछ बरस के लिए नए निशान पर उनके चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए। वे नई पार्टी में भी उसके तौर-तरीकों को सीखें, उसकी कुछ सेवा करें, तब जाकर उसके हिस्से का मेवा खाएं। 

चुनाव सुधारों में कई और बातों को जोडऩा ठीक है। अब ऐसे सुधार महज आयोग के दायरे के नहीं हैं, इनके लिए संसद और सुप्रीम कोर्ट की भी जरूरत पड़ सकती है। देश में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की कुर्सियों पर लोगों के कार्यकाल तय होने चाहिए। अमरीकी राष्ट्रपति चार बरसों के दो कार्यकाल के बाद भरी जवानी में बाकी पूरी जिंदगी बिना किसी सरकारी ओहदे के रहते हैं, और वे इन आठ बरसों में अपना सबसे अच्छा काम करना चाहते हैं क्योंकि उन्हें मालूम है कि इसके बाद उनके पास कुछ कर दिखाने का मौका नहीं रहेगा। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान जैसे देश में लोग मरने तक 15-20 बरस भी पीएम-सीएम बने रहते हैं, वे अपना सबसे अच्छा काम कर चुके रहते हैं, उनके पास कोई कल्पनाशीलता बाकी नहीं रहती, कोई उत्साह नहीं रहता, और आखिरी के बरसों में कोई महत्वाकांक्षा भी नहीं रहती। ऐसा सिलसिला देश के लिए ठीक नहीं है। लोगों के कार्यकाल सीमित रहने चाहिए ताकि उन्हें अपने सरकारी भविष्य की आखिरी तारीख मालूम रहे। इसी तरह चुनाव आयोग से मान्यता प्राप्त राजनीतिक दलों के पदों पर रहने वाले लोगों का कार्यकाल भी तय रहना चाहिए कि लोग पूरी जिंदगी एक पार्टी के मुखिया न बने रहें। आज हिन्दुस्तान में हर क्षेत्रीय राजनीतिक दल किसी एक सुप्रीमो के तहत उसके मरने तक मातहत काम करते रहते हैं, और अधिकतर मामलों में उनके बाद उनकी आल-औलाद संगठन संभालने को तैयार रहती हैं। ऐसी कुनबापरस्ती और तमाम जिंदगी के कार्यकाल के खिलाफ भी कुछ करने की जरूरत है, अब पता नहीं इसके लिए संसद, अदालत, या चुनाव आयोग कुछ कर सकते हैं, या नहीं। 

भारतीय लोकतंत्र में कुछ बातों का इलाज बिल्कुल नहीं है। देश की संसद और विधानसभाएं लगातार पैसे वालों से भरती चल रही हैं, और वहां पर गरीब इसलिए भी नहीं पहुंच पाते कि अब पार्टियां भी गरीब को टिकट देने से कतराती हैं कि उनका चुनाव जीतना मुश्किल रहेगा। नतीजा यह होता है कि जो लोग सांसद या विधायक बन रहे हैं, उन्हें गरीबों के मामलों की समझ बहुत कम है, और गरीबों के मुद्दे सदन में उठ ही नहीं पाते। इस सिलसिले को कैसे सुधारा जाए यह राजनीतिक ताकतें तो कभी नहीं करेंगी, क्योंकि वहां पर तो करोड़पतियों और अरबपतियों का कब्जा हो गया है, वे भला अपने हितों के खिलाफ कुछ क्यों करेंगे, लेकिन किसी न किसी को इस बारे में सोचना चाहिए। एक क्रांतिकारी सोच तो यह भी हो सकती है कि संसद या विधानसभा का चुनाव लडऩे वालों पर एक सीमा से अधिक दौलत देश के लिए देने का नियम बना दिया जाए, फिर देखें कि कितने लोगों के मन में देश सेवा का जज्बा बचता है। 

एक आखिर बात इस सिलसिले में महिला आरक्षण की है। संसद में महिला आरक्षण विधेयक कई बार पहुंचा और कई बार दम तोड़ चुका है। अब सार्वजनिक दबाव राजनीतिक दलों पर पडऩा चाहिए, हर सांसद को, हर विधायक को सार्वजनिक रूप से घेरना चाहिए, और अभी से एक ऐसा माहौल बनाना चाहिए कि अगर महिला आरक्षण लागू नहीं होता है, तो देश की महिलाएं, और तमाम महिला समर्थक आदमी भी, मौजूदा सांसदों को पूरी तरह खारिज कर देंगे, और उनके खिलाफ वोट देंगे। ऐसा एक आंदोलन पूरी तरह लोकतांत्रिक हो सकता है, और इसे छेडऩा चाहिए। यह अपने आपमें एक लंबी चर्चा का मुद्दा हो सकता है, लेकिन हिन्दुस्तानी चुनाव कैसे बेहतर बनाए जा सकते हैं, उस चर्चा में बाकी मुद्दों के साथ-साथ इस पर इतनी ही चर्चा हो सकती है। लोगों को चाहिए कि यहां उठाए गए हर मुद्दों पर आसपास के लोगों के साथ विचार-विमर्श करें, और सोचें कि हिन्दुस्तानी लोकतंत्र को बेहतर कैसे बनाया जा सकता है। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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