विचार / लेख
कर्नाटक विधानसभा चुनाव भरी गर्मी कांग्रेस के लिए लहलहाती फसल उसके गोदाम में भर गया। पार्टी और नेता एक स्वर से जनता और मतदाताओं का शुक्रिया अदा कर रहे कि कर्नाटक में मजहबपरस्ती को धता बताकर धर्मनिरपेक्षता का साथ दिया है। कांग्रेस के मुताबिक 40 प्रतिषत की दर से की जा रही सरकारी कमीशनखोरी, भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी, महिला विरोधी आचरण और पूरी जनता में निराषा भर देने की हरकतों के खिलाफ वोट देने से लोकतंत्र का चेहरा उजला हुआ है। इसमें कहां शक है कांग्रेस को पिछले चुनाव की 80 सीटों के मुकाबले 57 सीटों का इजाफा हुआ। भाजपा को 38 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा है। तीसरी पार्टी जनता दल सेक्युलर पिछले चुनाव में विधानसभा में 39 विधायक भेज सकी थी। उसकी ही मदद से पहले सरकार बनी और उसके पहले जुगत बिठाकर उसकी भी सरकार बनी थी। पूर्व प्रधानमंत्री एच. डी. देवेगौड़ा के बड़े बेटे एच. डी. कुमारस्वामी मुख्यमंत्री बने थे। कांग्रेस का खुश होना स्वाभाविक है। उसके नेताओं ने ही करीब 120 सीटें जीतकर बहुमत का आंकड़ा पाने का दावा तो किया था, लेकिन सीटें उससे ज्यादा आईं।
चुनाव में सबसे अजीब बात हुई कि प्रधानमंत्री होकर भी नरेन्द्र मोदी ने भाजपा के लिए दस दिनों तक पार्टी का ट्रंपकार्ड बनकर गली गली, मोहल्ले मोहल्ले तूफानी प्रचार किया। किसी प्रधानमंत्री ने इतिहास में ऐसा नहीं किया क्योंकि प्रधानमंत्री को ऐसा करना भी नहीं चाहिए। वह संविधान की भावना के खिलाफ है। प्रधानमंत्री का चयन केन्द्र सरकार के मुखिया के रूप में होता है। संविधान में बाबा साहेब अम्बेडकर ने बार बार कहा कि केन्द्र भले मजबूत हो लेकिन उसका चरित्र फेडरल अर्थात् प्रदेशों की समानांतर अहमियत है। यही चीफ जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ ने दिल्ली सरकार बनाम लेफ्टिनेन्ट जनरल के मामले में कहा कि संविधान के फेडरल चरित्र की रक्षा करनी है क्योंकि कुछ दायित्व स्वायत्त रूप से प्रदेषों को दिए गए हैं। प्रधानमंत्री को भाजपा की कर्नाटक इकाई को ताकतवर बनाकर प्रचार कार्य का सर्वेक्षण और निरीक्षण कर सकना था। गोदी मीडिया ने जहरीला प्रचार सत्ता के इशारे पर किया कि भाजपा की हालत जहां कहीं चुनाव में खराब होगी, नरेन्द्र मोदी जाकर देवदूत की तरह माहौल पलट सकते हैं। वे अपराजेय योद्धा हैं। उनका जाना ही जीत की गारंटी है। इस मिथक के रचे जाने में मोदी, अमित शाह और जे.पी. नड्डा सहित प्रधानमंत्री कार्यालय और गोदी मीडिया की संयुक्त साजिशी भूमिका रही। यही साफ साफ दिखाई पड़ा। प्रधानमंत्री की देह पर कई टन फूलों की बारिश कराई गई। एक चुनाव प्रचारक के ऊपर उतने फूल तो विजेता के ऊपर भी नहीं बरसाए जाते। पता नहीं अयोध्या लौटने पर राजा राम को भी ऐसा नसीब हुआ भी होगा।
कांग्रेस ने अलबत्ता सांप्रदायिक माहौल उकसाने वाले बजरंग दल पर बैन लगाने की बात कही। इसे भी फूहड़ तरीके से धार्मिक उन्माद में बदलते मोदी और भाजपा ने कह दिया कांग्रेस हिन्दुओं के आराध्य देव बजरंग बली के नाम पर प्रतिबंध लगाने की बात करती है। उसे बजरंग नाम से एलर्जी है। यह अलग बात है कि मध्यप्रदेष के मुख्यमंत्री रहे कमलनाथ ने पिछले बरसों में बजरंगबली की सार्वजनिक तौर पर इतनी पूजा की कि नेशनल रिकॉर्ड बन गया है। चुनाव जीतने के बाद प्रियंका गांधी भी हिमाचल में बजरंगबली के मंदिर जाकर पूजा अर्चना कर आईं। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े ने कर्नाटक चुनाव में कहा मैंने अपने जीवन में सौ से अधिक हनुमान मंदिर बनवाए होंगे। कुल मिलाकर कट्टर हिन्दुत्व और सॉफ्ट हिन्दुत्व में भक्ति के अखाड़े में मल्लयुद्ध होता रहा। धर्मनिरपेक्षता कराहती रही। प्रधानमंत्री ने चुनाव नियमों की धज्जियां उड़ाते अपराधिक कृत्य कर दिए। कहा वोट का बटन दबाते समय सबको जय बजंरगबली के नाम लेकर वोट डालना है। ऐसी ही समानान्तर परिस्थितियों में महाराष्ट्र के दमदार नेता बाला साहब ठाकरे को चुनाव कानून के तहत अपात्र भी घोषित किया गया था। मौजूदा चुनाव आयोग ने प्रधानमंत्री के आचरण को लेकर आंख कान सब स्थायी रूप से बंद कर लिए हैं। मामला हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर दस्तक दे सकता है। पक्षकार भी ढूंढ़ रहा होगा। अचरज है और संतोष है प्रधानमंत्री के उन्मादी आचरण और आह्वान का अनुकूल असर नहीं हुआ।
वोटों की अंकगणित में बीजगणित के सवाल सांप की तरह फुफकार रहे हैं। एक समीक्षक ने लिखा 2018 के विधानसभा चुनाव में कर्नाटक में भाजपा को उतने ही प्रतिशत वोट मिले जितने 2023 के चुनाव में मिले। भाजपा के वोटों में घट बढ़ नहीं हुई। वे जस के तस रहे। कांग्रेस को मिले वोटों में इजाफा उतना ही हुआ जितना जनता दल सेक्युलर के वोट घट गए। जनता दल से करीब 20 सीटें कांग्रेस की ओर खिसकी भी हैं। तब भी कांग्रेस को वोटों की कांट-छांट के कारण कुल 57 सीटों का लाभ हुआ। उसमें से कुछ बीजेपी के खाते में जा सकती थीं। यक्ष प्रश्न है जब तक बीजेपी के वोटों में सेंध लगाकर उनमें कमी नहीं होती। तब तक कांग्रेस की जीत का तात्विक या आर्गेेनिक क्या महत्व हैै? कर्नाटक चुनाव के वक्त उत्तर प्रदेश में नगरपालिका निर्वाचन हुए। नगरपालिक निगम के चुनाव में किसी अन्य पार्टी को एक मेयर तक नहीं मिला। भाजपा ने षत प्रतिशत जीत दर्ज की। उत्तरप्रदेश में हिन्दुत्व और कर्नाटक में धर्मनिरपेक्षता भारतीय लोकतंत्र का अद्भुत लक्षण है।
शायद कांग्रेस ने चुनाव अभियान में प्रो. एम. एन. कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्याओं की भूमिका पर चर्चा नहीं की होगी। वे ही घटनाएं कर्नाटक में भाजपा को नफरत के शिखर पर ले जाती सत्ता तक पहुंचाती रहीं। श्रीराम सेना जैसे संगठन के अध्यक्ष प्रमोद मुतालिक आतंक का पर्याय कहे गए। उन्हीं की पार्टी भाजपा की गोवा सरकार ने श्रीराम सेना पर अभी भी प्रतिबंध लगा रखा है। इसी तरह महाराष्ट्र के नरेन्द्र दाभोलकर और गोविन्द पानसरे की हत्या भी की गई। वह राष्ट्रीय चिंता का कारण बनी। महिलाओं, बेरोजगार, नौजवानों, पिछड़े वर्गों, दलितों, आदिवासियों की समस्याएं उठाकर उन्हें अपनी पारी में लाने की कांग्रेस की कोशिशें महत्वपूर्ण हैं। लेकिन यही काफी नहीं है। जब तक हिन्दू मुस्लिम नफरत के सांप्रदायिक घाव का इलाज कर उसे सुखाया नहीं जाएगा। तब तक गैर भाजपाई वोटों को एक साथ लाकर भाजपा का मुकाबला करना फौरी तौर पर इलाज हो सकता है। लेकिन भारतीय लोकतंत्र संविधान के उसूलों को लेकर कैसे मजबूत होगा? मिथकों के अनुसार भी कर्नाटक ही रामायणकालीन किश्किंधा कांड में हनुमान के चरित्र के जरिए संजीवनी बूटी लाने का ब्यौरा रेखांकित करता है। इसलिए बजरंगबली का संदर्भ कर्नाटक के लिए सभी को मुफीद नजऱ आया। छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस ने सॉफ्ट हिन्दुत्व के जरिए कौशल्या का मायका राजिम में तलाषा है। भाजपा ‘जय श्री राम’ का नारा लगाएगी तो छत्तीसगढ़ में राम को अपनी ननिहाल में ऐसा करने में कैसा लगेगा? यह कांग्रेस का सोच होगा। इक्कीसवीं सदी की राजनीति में संविधान को किनारे रखकर मिथकों, धर्मग्रंथों और नफरती हिंसा के सहारे सियासती दांव पेंच होंगे तो कैसा हिन्दुस्तान बनेगा?
इन सब घटनाओं के बीच सबसे कारगर बात राहुल गांधी ने कही कि हम नफरत के वक्त और जगह में मोहब्बत की फसल उगा रहे हैं। यही हमारी कोशिश है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान कर्नाटक में ही भारी बरसते पानी में भीगते राहुल गांधी ने एक लंबी तकरीर की थी। उसे हजारों कर्नाटकवासी खुद भी भीगते हुए सुनते रहे। कांग्रेस के पक्ष में होने वाले विधानसभा चुनाव का परिणाम उसी दिन खामोशी में भविष्य ने सुन लिया होगा। वही वक्त की सही आवाज है। चालीस प्रतिशत सरकारी कमीशन की बात तो एक भाजपा कार्यकर्ता सह ठेकेदार ने बुलन्द की थी। श्रेय उसको तो मिलना चाहिए।
अजीब समय है। भाजपा का ही एक मंत्री चुनाव के दौरान कह गया हमें मुसलमानों के वोट नहीं चाहिए। नरेन्द्र मोदी, जे. पी. नड्डा और अमित शाह खंडन कर सकते थे, लेकिन नहीं किया। भाजपा कई बार कई प्रदेशों में एक भी मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारती नहीं। कर्नाटक में ही स्कूली बच्ची को लेकर हिजाब प्रकरण की हिंसा और दंगा फैलता रहा था। हाई कोर्ट में मुकदमा हारने के बाद सुप्रीम कोर्ट से आंशिक राहत मिली। वहां जज सुधांशु धूलिया ने एक नायाब मौलिक फैसला किया। जिस व्यक्ति ने हिजाब का विरोध किया था, वह उम्मीदवार कर्नाटक चुनाव में हार भी गया। कांग्रेस ने भाजपा के वोट बैंक में सेंध तो मारी है। वरना आंकड़ों की अंकगणित में इतनी सफलता कैसे मिलती। जरूरी लेकिन यही है कि जो विचारधारा राजनीति को संविधान के घोषित मकसद और मूल्यों के खिलाफ भडक़ा रही हो, उस पर सार्थक प्रतिबंध लगाने के साथ साथ धर्मनिरपेक्ष पार्टियों को मैदानी स्तर पर धार्मिक चोचलों से अलग हटकर मुकाबला करने का ढांचा तैयार करना होगा। धर्म एक उन्माद के रूप में फलता फूलता तो है, लेकिन उसकी लंबी उम्र नहीं होती। कर्नाटक ने इसका भी इशारा किया है। नरेन्द्र मोदी जैसे प्रधानमंत्री को आगामी चुनावों में ताबड़तोड़ प्रचार के जरिए धार्मिक उन्माद फैलाने की देश का अवाम यदि इजाजत नहीं देता। तो लोकतंत्र की मजबूती की उम्मीद तो होनी चाहिए। चुनाव आयोग जैसी लाचार, पक्षपाती और मजबूर संस्था को प्रताडऩा की जरूरत है। यह बात भी सुप्रीम कोर्ट के इजलास तक पहुंचनी चाहिए। सुनते हैं कि मतदान गणना के दिन 13 मई को पिछले दस साल में पहली बार नरेन्द्र मोदी किसी इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में नहीं दिखे।