संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धार्मिक परंपरा के नाम पर कट्टर रीति-रिवाज कब तक जिंदा रखे जाएं लोकतंत्र में?
22-May-2023 4:35 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  धार्मिक परंपरा के नाम पर कट्टर रीति-रिवाज कब तक जिंदा रखे जाएं लोकतंत्र में?

Photo : SEETU TEWARI/BBC

बिहार से बीबीसी की एक रिपोर्ट है कि वहां मुस्लिमों के शेरशाहबादी तबके में एक रिवाज के चलते लड़कियां बूढ़ी हो जाती हैं, लेकिन उनकी शादी नहीं हो पाती। छोटे-छोटे गांव-कस्बों में भी ऐसी दर्जनों लड़कियां हैं जिनकी शादी की उम्र निकलती चली गई, और अब उम्र बढ़ जाने से शादी की गुंजाइश नहीं सरीखी रह गई। यह रिपोर्ट इस समुदाय के एक रिवाज को बताती है कि शेरशाहबादी मुस्लिम अपनी लड़कियों का रिश्ता करने की पहल खुद नहीं करते, बल्कि लडक़ों की तरफ से शादी के लिए पैगाम आता है, या मध्यस्थता करने वाले अगुवा आते हैं। समाज में यह माना जाता है कि अगर लड़कियों के मां-बाप पहल कर रहे हैं, तो उनमें कोई खोट होगी। अब इस सामाजिक धारणा के तहत जीते हुए लड़कियों के परिवार अपनी लड़कियों को बूढ़ा होते देखते हैं, खुद मर जाते हैं, और लड़कियों को अकेले मरने के लिए छोड़ देते हैं। जैसे ही शादी की उम्र थोड़ी सी पार होती है, संभावनाएं तेजी से फिसलती चली जाती हैं। अब हाल यह है कि कमउम्र से ही बच्चियों पर यह डर मंडराते रहता है कि कहीं वे बिना शादी के न रह जाएं। एक और चलन यह है कि यह समाज सिर्फ गोरी लडक़ी ढूंढता है, इसलिए जो लड़कियां गोरी नहीं हैं, वे भी घर बैठे रह जाती हैं। ऐसे में परिवार किसी बूढ़े से भी अपनी जवान लडक़ी की शादी कर देते हैं, ताकि शादी हो तो सही। 

यह रिपोर्ट कई सवाल खड़े करती है। और बुनियादी तौर पर तो मुस्लिमों के इस समुदाय के लिए करती है, लेकिन मुस्लिमों के बाकी समुदायों में भी कमउम्र की नाबालिग गरीब लडक़ी को किसी बूढ़े पैसे वाले के साथ शादी करके भेज देने के मामले हैदराबाद से बहुत सुनाई देते थे। सोशल मीडिया पर ऐसी तस्वीरें समाज का मखौल बनाते रहती हैं जिनमें किसी बहुत बूढ़े के साथ कोई कमउम्र लडक़ी दिखती है। एक तो गरीबी, दूसरी अशिक्षा, तीसरी बात किसी तरह की आत्मनिर्भरता की क्षमता न होना, और फिर समाज के तंगनजरिये का कैदी रहना, इन सब वजहों से न सिर्फ मुस्लिमों, बल्कि कई समाजों में लड़कियों की संभावनाएं शुरू होने के पहले ही खत्म हो जाती हैं। मुस्लिमों में खासकर इसलिए कि कमउम्र में शादी कानूनी है, इसलिए गरीब परिवार लडक़ी की पढ़ाई बिना, उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के बिना कोई लडक़ा, आदमी, या बूढ़ा देखकर शादी कर देते हैं, और फिर उस लडक़ी की जिंदगी का रूख हमेशा के लिए एक खाई की तरफ तय हो जाता है। इसलिए जब हिन्दुस्तान के किसी प्रदेश का मुख्यमंत्री अपनी सारी साम्प्रदायिकता के साथ भी एक से अधिक शादियों पर रोक लगाने की बात करता है, तो हम उसका समर्थन करते हैं। जब देश में ऐसा कानून बना कि तीन बार तलाक शब्द कहकर मुस्लिम पति पत्नी को छोड़ न सके, तो हमने उसका भी समर्थन किया। जब हिजाब पर कर्नाटक में रोक की बात आई, तो हमने व्यक्तिगत पसंद की वकालत करते हुए मुस्लिम लडक़ी के हिजाब के हक का तो समर्थन किया, लेकिन उसे हिजाब से मुक्ति दिलाने के समाज के भीतर माहौल बनाने की भी वकालत की। आज बुर्के और हिजाब की वजह से, और बहुत से गैरमुस्लिम समाजों में तरह-तरह के पर्दों की वजह से लड़कियों और महिलाओं के बराबरी से आगे बढऩे की संभावनाएं खत्म होती हैं। ये चीजें व्यक्तिगत पसंद की हद तक तो ठीक हैं, इन्हें कोई स्कूल-कॉलेज या सरकारी दफ्तर जबर्दस्ती रोके, हम उसके खिलाफ हैं, लेकिन हम ऐसी पोशाक के खिलाफ हैं जो कि महज महिलाओं पर लादी जाती है, चाहे वह मुस्लिम महिला का हिजाब-बुर्का हो, चाहे वह राजस्थानी महिला का घूंघट हो। 

बिहार के जिस मुस्लिम समुदाय में लड़कियों की हालत देखकर यह बात लिखी जा रही है, उसे सरकार के स्तर पर भी देखने की जरूरत है। सरकार को ऐसी सामाजिक जागरूकता की कोशिश भी करनी चाहिए कि अलग-अलग समुदाय अपने पुराने पड़ चुके रिवाजों से निकल सकें, वहां महिलाओं को बराबरी के हक मिल सकें, और बेइंसाफी खत्म हो सके। बहुत से समाजों में पर्दे से परे की भी कई तरह की पुरानी परंपराएं चली आ रही हैं, वे नई पीढ़ी की महत्वाकांक्षाओं को खत्म करती हैं, उनकी संभावनाओं का गला घोंटती हैं, और समाज के मठाधीश उन्हें जारी रखने में अपनी कामयाबी मानते हैं। धर्म और समाज के अधिकतर मुखियाओं का राज पाखंड के जारी रहने से आसानी से जिंदा रहता है, और आगे बढ़ता है। शहरीकरण तो खुद होकर कुछ हद तक इस सिलसिले को तोड़ता है, लेकिन कहीं कानून बनाकर, कहीं सामाजिक जागरूकता लाकर यह सिलसिला खत्म भी करना चाहिए। 

जब हम किसी धर्म की परंपराओं और उस धर्म में महिलाओं के हक के बीच टकराव देखते हैं, तो हम महिलाओं के हक के हिमायती रहते हैं। धर्म तो ताजा-ताजा है, लेकिन महिलाओं का अस्तित्व तो धरती पर इंसानों के अस्तित्व से चले आ रहा है, उनका हक धर्म के ऊपर रहना चाहिए। इसलिए किसी धर्म के रिवाज अगर महिलाओं के हक को छीनते हैं, कुचलते हैं, तो ऐसे रिवाज बदलने की जरूरत है। इसके लिए लोकतंत्र अगर कानून भी बदलना पड़े, तो वह भी करना चाहिए। धार्मिक कट्टरता से लादे जा रहे पाखंडी रीति-रिवाजों को लोकतंत्र और मानवाधिकार से ऊपर दर्जा नहीं देना चाहिए। एक वक्त हिन्दुस्तान में सती बनाने की भी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी, बाल विवाह धड़ल्ले से होते थे, अब कानून बनाकर इनको रोका गया। कुछ लोग कह सकते हैं कि ये कानून किसी धर्म के रिवाज को खत्म कर रहे हैं, लेकिन धर्म को इंसान के बुनियादी हकों से ऊपर जगह देना नाजायज है। इसलिए जहां समाज खुद होकर सुधार नहीं ला पाता है, वहां लोकतांत्रिक सरकार को दखल देनी ही चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news