विचार / लेख

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-अमिता नीरव
जब मैं अखबार में आई थी, तब तक हमारे अखबार में लगभग सारा काम मैनुएल ही होता था। हम मिनिएचर प्रिंट के पिछले खाली हिस्सों में हाथ से खबरें लिखा करते थे, यदि किसी खबर की कॉपी अच्छी होती थी तो हम सिर्फ इंट्रो बनाकर कॉपी में ही एडिट कर दिया करते थे।
हमारे ही सामने कंप्यूटरीकरण शुरू हुआ था। जब हमें कंप्यूटर मिला तो फिर काम करते-करते ही टाइपिंग भी सीखनी थी। चूँकि अखबार के अपने फॉण्ट थे औऱ उस वक्त तक हिंदी टाइपिंग के मामले में तकनीकी विकास धीमा भी था और कुछ अपनी भी अनभिज्ञता थी तो जो अखबार का की-बोर्ड था हमने वही सीखा था।
अखबार के ही एक सहकर्मी थे, जिनसे हर दिन बात हुआ करती थी। एक दिन उन्होंने कहा कि तुम्हारे अंदर इतनी प्रतिक्रिया है, इतने विचार है तो तुम ब्लॉगिंग क्यों नहीं शुरू करती? तब तक रीजनल से फीचर में ट्रांसफर हो गई थी, तो इंटरनेट की उपलब्धता में संस्थान ने उदारता बरती थी।
तकनीक की ज्यादा समझ नहीं थी, जब मैंने उन्हें बताया तो उन्होंने मुझे ब्लॉग बनाकर दिया। मगर मसला ये आया कि अखबार में हम जिस की-बोर्ड का इस्तेमाल करते थे, उससे ब्लॉग पर नहीं लिखा जा सकता था। इधर-उधर से सब जगह से पता कर लिया।
सबने यही बताया कि यदि ब्लॉग लिखना है तो नया की-बोर्ड सीखना ही होगा। फिर से समस्या आई कि दो-दो की-बोर्ड को निभाएँगे कैसे। एक जो अखबार के लिए सीखा और दूसरा जो ब्लॉग के लिए सीखना होगा। तब आईटी के लड़कों ने बताया कि ब्लॉगिंग के लिए सीखा की-बोर्ड अखबार में भी काम दे देगा।
राहत हुई। नया की-बोर्ड सीखना शुरू किया। जब पहली बार टाइपिंग शुरू की थी तो हफ्ते भर में सीख लिया था और उसके अगले ही हफ्ते में ठीक-ठाक काम लायक स्पीड भी आ गई थी। तो लगा कि उसी स्पीड से नया की-बोर्ड भी सीख लिया जाएगा।
अनुमान पूरी तरह से गलत सिद्ध हुआ। नया की-बोर्ड सीखने में लगभग तीन महीने लग गए। हाँ स्पीड एक हफ्ते में पा ली। मगर सीखने में उम्मीद से ज्यादा वक्त लगा। बाद में समझ आया कि सीखने में उतना वक्त नहीं लगा। हुआ ये कि पहले जो सीखा था पहले उसे अनलर्न करना पड़ा तो अनलर्न करने में ज्यादा वक्त लगा।
मैं जो भी जानती हूँ, उसे मान लेने के बाद भी उस पर संदेह करती हूँ। अपने थोड़े से अनुभवों से जाना है कि कुछ भी जान लेना अंतिम रूप से जान लेना नहीं है। अंतिम रूप से कुछ भी जाना नहीं जा सकता है, इसलिए जो भी जानती-समझती हूँ उस पर संदेह भी करती हूँ।
कितनी ही बार ऐसा हुआ कि जिस जानने के आधार पर मैं कोई विचार बनाती हूँ, कुछ वक्त बाद वो आधार ही मुझे गलत लगने लगता है। इस तरह से बिना मेरी समझ के मेरी लर्निंग और अनलर्निंग की प्रक्रिया चलती रही है औऱ चलती रहती है।
अनलर्न शब्द अभी कुछ वक्त पहले ही सुना था। इस प्रक्रिया से चीजों को समझ रही हूँ फिर भी इस शब्द ने मुझे एकबारगी ठिठका दिया, क्योंकि हमने सीखना ही सीखा है, सीखे हुए को भूलने को तो हम यह मानकर चलते हैं कि वो तो होना ही है। मगर यह भूलना ऐसा नहीं है कि जिसे हम चाहते हैं, यह बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है, हम वो भी भूल जाते हैं, जो हमें याद रखना चाहिए।
इतिहास और विज्ञान यह बताता है कि दरअसल हमारा व्यक्तित्व एक परिवेश में विकसित होता है, हरेक व्यक्ति अलग तो होता है, लेकिन उसके अलग होने में उसके परिवेश की भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। हमने यह जाना है कि इंसान की विशिष्टता उसके भूगोल और फिर उसके परिवेश से तय होती है।
फिर भी हम तमाम तरह के विभाजनों को लेकर रूढ़ हैं, क्योंकि हममें से हरेक ने अपने बचपन से उन विभाजनों को जाना है और उसकी सोशल हैरार्की को भी जाना है। हुआ तो यह भी कि कुछ दो-चार लोगों के अनुभव उदाहरण के तौर पर पीढ़ी दर पीढ़ी सुनाए गए और उन्हें सिद्धांत मान लिया गया।
जैसे कि ब्राह्मण विद्वान होते हैं, राजपूत साहसी, महिलाएँ निर्बुद्धि होती हैं, पढ़ी लिखी महिला खुद को ज्यादा स्मार्ट समझती है, वैश्य की व्यापारिक बुद्धि होती है, शूद्र कम योग्य होते हैं, मुसलमान धोखेबाज होते हैं, अंग्रेजी बोलने वाले समझदार होते हैं, क्रिश्चियन सभ्य होते हैं, आदि-आदि।
हम इन सामान्यीकरणों को सिद्धांत की तरह स्वीकार करते हैं और उसे जस-का-तस मान लेते हैं। कई बार हम लोगों से खुद ही बचने लगते हैं और कई बार हमारे पूर्वग्रह हमें स्थापित मान्यता से अलग को अपवाद मानने की लिए प्रेरित करते हैं। धीरे-धीरे ये सामान्यीकरण सिद्धांत का रूप ले लेते हैं और समाज के विभाजन सख्त से सख्ततर होते चले जाते हैं।
यदि कोई इन्हें चुनौती देता है तो उसे विरोधी सिद्ध कर उसकी बात को अमान्य कर दिया जाता है। जबकि बदले हुए वक्त में इस किस्म का सामान्यीकरण न सिर्फ हानिकारक है, बल्कि बहुत हद तक क्रूरता और असंवेदनशीलता की सृष्टि करता है।
हममें से ज्यादातर लोग स्थापित मान्यताओं को इस कट्टर तरीके से लर्न करते हैं कि उनके पास अनलर्न करने की गुंजाइश ही नहीं बची रहती है। अभी अनलर्निंग को गूगल सर्च कर रही थी तो उसका अर्थ देखकर चौंक गई। मैं जिस दिशा में इसे समझ रही थी, अर्थ ठीक-ठीक उसी दिशा में ले जा रहा है।
गूगल बता रहा है कि, The more you learn about things – be they true or not- the more rigid and the more we compartmentalize our reality. एक मोटी समझ कहती है कि यदि कोई पात्र ऊपर तक भरा हुआ है तो उसमें यदि कुछ और डाला जाएगा तो वह बाहर ही गिरेगा। हमारा दिमाग भी ऐसा ही है।
अनलर्न करना, असल में लर्न करने का महत्वपूर्ण हिस्सा है।