संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : झीरम को श्रद्धांजलि की नहीं, सोच-विचार की जरूरत...
25-May-2023 4:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय :  झीरम को श्रद्धांजलि की नहीं,  सोच-विचार की जरूरत...

देश के इतिहास में नेताओं पर हुए सबसे बड़े नक्सल हमले, झीरम घाटी, में छत्तीसगढ़ के दो दर्जन से अधिक लोग मारे गए थे, जिनमें कांग्रेस के कुछ सबसे बड़े नेता थे, कुछ उनके साथ के लोग थे। आज उसके दस बरस पूरे हो रहे हैं, और इस पर जितनी जांच और अदालती कार्रवाई हुई है, उससे कहीं अधिक राजनीति चल रही है, वह जारी ही है। लोकतंत्र में नक्सलियों के इलाके में घुसकर राजनीतिक कार्यक्रम करना खतरे से खाली नहीं था, लेकिन उसमें उस वक्त के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, कांग्रेस के एक और सबसे बड़े नेता विद्याचरण शुक्ल, बस्तर के सबसे बड़े नक्सल-विरोधी नेता और कांग्रेस पार्टी के महेन्द्र कर्मा, विधायक उदय मुदलियार जैसे बड़े-बड़े नेता उस हमले में शहीद हुए। राज्य में भाजपा की सरकार थी, रमन सिंह मुख्यमंत्री थे, केन्द्र में यूपीए के मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, उस वक्त से जांच, जांच आयोग, सरकारों के बीच टकराव, हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक तरह-तरह की पिटीशन का जो सिलसिला चल रहा है, वह आज भी थमा नहीं है, वह बस अदालती स्थगन से रोका गया है, वरना कार्रवाई जारी है। 

यह मामला भारत में अलग-अलग राजनीतिक दलों वाले संघीय ढांचे का है, जांच एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र के टकराव का भी है, और राज्य की सत्ता पर, केन्द्र की सत्ता पर अलग-अलग पार्टियों के आने-जाने से बदले हुए हालात, और अदालतों की दखल का भी है। छत्तीसगढ़ में घटना के समय भाजपा की सरकार थी, और मारे गए लोग कांग्रेस के थे। उस वक्त से ही झीरम को लेकर एक राजनीतिक टकराव ऐसा चले आ रहा है कि इस मामले की जांच और अदालती फैसला किसी किनारे नहीं पहुंच पा रहे। जांच आयोग के काम करने के तरीके से असहमति, आयोग में नई नियुक्ति, नए मुद्दे तो चल ही रहे हैं, वे खत्म होने का नाम नहीं ले रहे हैं, बल्कि मौजूदा कांग्रेस सरकार का कार्यकाल खत्म होने के करीब है, और अदालती स्थगन से उसके हाथ बंधे हुए हैं। दस बरस बाद भी देश की सबसे बड़े जांच एजेंसी एनआईए का मामला एनआईए कोर्ट में चल ही रहा है, और वह किसी किनारे पहुंचते नहीं दिख रहा है। यह हालत न्यायपालिका की भी है कि ऐसे खुले हमले के दस बरस बाद भी पहली अदालत से भी कोई फैसला अभी तक नहीं हो पाया है, जाहिर है कि इसके बाद हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का रास्ता सभी के लिए खुला रहेगा, और शायद अगले दस बरस भी आखिरी इंसाफ न हो सके। 

नक्सल संगठनों के भीतर इस हमले को लेकर असहमति भी सामने आई थी, और नक्सल नेताओं ने यह माना था कि स्थानीय नक्सलियों ने अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर यह अराजकता दिखाई थी, ऐसा हमला किया था, और इसमें नंदकुमार पटेल के बेटे दिनेश पटेल को भी मारा गया था जिनका कि किसी नक्सल-विरोधी अभियान से कोई लेना-देना नहीं था। लेना-देना तो विद्याचरण शुक्ल का भी नहीं था जिन्होंने अपने लंबे राजनीतिक जीवन में कभी राज्य की राजनीति नहीं की थी, और आखिरी दौर में जब वे 2003 का विधानसभा चुनाव एनसीपी में जाकर लड़ रहे थे, तब भी किसी नक्सल मुद्दे से उनका कोई लेना-देना नहीं था। इस तरह नक्सलियों ने उस हमले में जिस तरह की मनमानी की थी, बेकसूर लोगों को छांट-छांटकर मारा था, उससे नक्सल आंदोलन भी बदनाम हुआ था, और उनके नेताओं को भी सार्वजनिक रूप से शर्मिंदगी जाहिर करनी पड़ी थी। 

अब आज इस बरसी पर जब हम झीरम में मरने वाले लोगों के परिवारों के साथ इंसाफ के बारे में सोचते हैं तो लगता है कि पार्टियों की राजनीति, केन्द्र और राज्य की एजेंसियों में टकराहट के चलते इंसाफ अभी दूर कहीं मृगतृष्णा बना हुआ बैठा है। हिन्दुस्तानी अदालती रिवाज के मुताबिक कभी न कभी इस पर फैसला जरूर आएगा, और अपीलों से गुजरते हुए यह मामला सुप्रीम कोर्ट तक जरूर पहुंचेगा, लेकिन इस दौरान जितनी बयानबाजी और जितनी कड़वाहट सामने आ रही है, उससे लगता है कि हर कुछ महीनों में सामने आती ऐसी टकराहट से मृतकों के परिवारों की तकलीफ बढ़ती ही होगी। खैर, जब अधिकतर मृतक या शहीद कांग्रेस से जुड़े हुए थे, तो जाहिर है कि यह मामला राजनीति से परे का रह भी नहीं सकता। अब एक दिक्कत यह है कि कांग्रेस और भाजपा से जुड़े हुए नेता हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक पिटीशनर बने हुए हैं, और अदालतें अपने मिजाज के मुताबिक बरसों तक सुनवाई कर रही हैं, हर किस्म की जांच पर स्थगन आया हुआ है, तो फिर इंसाफ का सिलसिला आगे बढ़े तो कैसे बढ़े? हम यहां किसी पार्टी को कुसूरवार ठहराने का काम नहीं कर रहे, लेकिन इतना जरूर सोच रहे हैं कि यह मामला जांच, राजनीति, और अदालती प्रक्रिया की उलझनों की एक इतनी बड़ी मिसाल है कि उसे कई किस्म के कोर्स में पढ़ाया जा सकता है। इसमें केन्द्र-राज्य संबंध भी हैं, नक्सली-लोकतांत्रिक टकराव भी है, राजनीतिक दलों के बीच की कटुता भी है, केन्द्र और राज्य की एजेंसियों के अधिकार क्षेत्र की बहस भी इसमें है, और केन्द्र और राज्य में सत्तारूढ़ पार्टियां बदल जाने से जांच और अदालती कार्रवाई में आने वाला फर्क भी इसमें है। यह समझना मुश्किल है कि चुनावी लोकतंत्र में ऐसी उलझन को कम कैसे किया जा सकता है? झीरम की बरसी के इस मौके पर श्रद्धांजलि देकर फिर अगले बरस तक उसे अनदेखा करना बड़ी गैरजिम्मेदारी का काम होगा, लोकतंत्र में ऐसी जटिलताओं पर कुछ बेहतर सोच-विचार करना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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