विचार / लेख

कनक तिवारी लिखते हैं-चौकड़ी की हेकड़ी!
26-May-2023 4:32 PM
कनक तिवारी लिखते हैं-चौकड़ी की हेकड़ी!

चीफ  जस्टिस धनंजय चंद्रचूड़ की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट संविधानसम्मत फॉर्म में लौटने की कोशिश में है। पूरा समाज मोदी के प्रशासनिक आतंक के सामने पस्तहिम्मत है। कई वकील जनता की लड़ाई लडऩे के बदले फीस और सरकारी प्रतिष्ठानों की वकालत जुगाडऩे के फेर में ज्यादा लगते हैं। साधारण लोग तो अंकगणित की इकाइयां समझे जाते मर्दुमशुमारी और वोट बैंक में इस्तेमाल किए जाते हैं। कई जज भी संविधान से बैर किए भी लगते हैं। ऐसे माहौल में जस्टिस चंद्रचूड़ की कोशिशें लोगों को उम्मीद की रोषनी दिखाती भी हैं। अहंकारी निजाम फूंक मारकर उसे बुझा देना क्यों नहीं चाहेगा?

मुश्किल हालातों में भारत का संविधान बना और आजादी मिली। बहुत बड़े जनआंदोलन के कारण अंगरेजों से आजादी मिली। पुरखों का इरादा था कि जन अधिकारों का बाइज्जत अहसास कराया जाए। उन्हें अमल में लाने का जिम्मा सरकार को दिया जाए। भारतीयों को आत्ममुग्ध भले हो, लेकिन उनका बड़ा हिस्सा सांप्रदायिक है। उसे हिन्दू मुसलमान पचड़ा बढ़ाए बिना रोटी हजम नहीं होती। इसीलिए आजाद होता मुल्क नफरत की आरी से चीरकर हिन्दुस्तान और पाकिस्तान हो गया। मुसलमान सदस्यों ने संविधान सभा में आना कबूल नहीं किया तो हिन्दू सदस्यों का काफी बड़ा बहुमत हो गया। इसी मानसिक घबराहट में मजबूत केन्द्र की अवधारणा संविधान में उभरी। उसका बुनियादी इरादा अन्यथा पूरी तौर पर नागरिक को मजबूत बनाने का था।

अम्बेडकर ने समझाया भले ही केन्द्र सरकार को पहले से ज्यादा मजबूत बल्कि एकाधिकारवादी नस्ल का बना रहे। फिर भी ऐसा करना केवल आपात प्रावधान  होगा। राज्यों की स्वायत्तता पूरी तौर पर मजबूत और महफूज रखी जाएगी। यह वायदा बाद की संसदों के कारण हवा में उड़ गया। सांसद और केन्द्र सरकार अधिकारों की लूट-खसोट में गाफिल और आत्ममुग्ध लगातार होते रहे। आज हालत है कि भारत के प्रधानमंत्री को सामंतों और राजाओं से ज्यादा अधिकार और रुतबा मिला हुआ है। संविधान में यह बहुत बड़ी दुर्घटना हो गई। अब देश में कोई नागरिक केन्द्रीय निजाम के खिलाफ फुसफुसाता भी है। तो उसे सीबीआई, ईडी, इन्कम टैक्स, एनआईए वगैरह की चौकड़ी फुफकार कर डसने दौड़ पड़ती है।

ऐसे माहौल में एक ताजा मामला फिर उठा है। दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी की सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दस्तक दी कि उसे आधे अधूरे अधिकार संविधान के अनुच्छेद 239 क-क में मिले हैं। उन्हें भी केन्द्र सरकार जजिया कर की तरह वसूले पड़ी है। संविधान के तहत फेडरल लोकतंत्र किस तरह जीवित रहेगा जिसका आष्वासन अम्बेडकर ने दिया था? इसके पहले भी 2018 में ऐसी ही समस्या आने पर सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने दो टूक कहा था कि मनोनीत उपराज्यपाल को चुनी गई विधानसभा के ऊपर या विकल्प में विधायन या कार्यपालिक अधिकार नहीं दिए जा सकते। उसमें एक पूरक फैसला नायाब बुद्धि के जस्टिस चंद्रचूड़ ने ही लिखा था। एक लोकधर्मी कहावत है मुर्गी की डेढ़ टांग। भारत की राजनीति में उसका मतलब है एक टांग केन्द्र सरकार और आधी टांग दिल्ली (और तमाम केन्द्र शासित प्रदेशों) के लेफ्टिनेंट गवर्नर की। एक चौकड़ी बन जाती है। उसमें प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, लेफ्टिनेंट गवर्नर और केन्द्रीय कानून मंत्री आदि वक्तन बावक्तन अपनी भूमिका तलाषते रहते हैं। दिल्ली में यही वर्षों से हो रहा है।

अब आम आदमी पार्टी की सरकार को फिर सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देनी पड़ेगी। दिक्कत है कि संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची की प्रविष्टि क्रमांक 41 में विधानसभा को अधिकार देते लिखा था ‘‘राज्य लोकसेवाएं,  राज्य लोकसेवा आयोग, सुप्रीम कोर्ट के फैसले से बेरुख केन्द्र सरकार ने अध्यादेश जारी कर राज्य की सेवाओं को अनुच्छेद 239 क-क के तहत संशोधित कर दिया है कि वे अधिकार अब केन्द्र सरकार के तहत हो जाएंगे। उनमेंं भी फैसला आखिरकार लेफ्टिनेंंट गवर्नर का ही मान्य होगा। बराएनाम एक दिखाऊ कमेटी बनाई जाएगी। उसमें मुख्यमंत्री, मुख्य सचिव और एक और सचिव होंगे। वह बहुमत से फैसला कर सकती है। मुख्यमंत्री के तहत काम करने वाले मुख्य सचिव और उनके तहत काम करने वाले एक और सचिव मिलकर मुख्यमंत्री की पसंद या सिफारिश का खुलेआम मजाक उड़ा सकते हैं और सुझाव खारिज कर सकते हैं।

यह सही है कि सुप्रीम कोर्ट को संसद को मिली विधायी शक्तियों (मसलन अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन) को कमतर करने का अधिकार नहीं है। लेकिन किन कारणों से अध्यादेश लाया गया है और उससे संविधान की भावनाओं का क्या रिश्ता है। ऐसे कई पेचीदे सवालों को सुलझाते कई साल गुजर जाएंगे। नरेन्द्र मोदी की सरकार को संविधान से क्या लेना देना? इस सरकार में अभी तक बीफ भक्षी कानून मंत्री तो अब पापड़ प्रचारक के मंत्री के जिम्मे संविधान की इबारतें हैं। यह सरकार तो अपनी मंजिल तक पहुंचने के लिए संविधान की बुनियाद को ही खोदकर उसमें सुरंग बना लेती है। उसे बंकर भी समझ सकती है। सुप्रीम कोर्ट के जज तो संविधान के लिए एक षरीफ-संकुल है। वे बहुत नीचे नहीं गिर सकते। जिसके लिए केन्द्र सरकार उसे चुनौती या आमंत्रण दे रही होगी। केजरीवाल ने ठीक किया है कि ज्यादा से ज्यादा विपक्षी पार्टियों को इक_ा कर यदि अध्यादेश राज्यसभा में आता है। तो उसको पारित नहीं होने दिया जाए। इस मामले में सभी विपक्षी पार्टियों को सडक़ पर आकर आंदोलन करना चाहिए।

भारत की सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों के सबसे बड़े फैसले केशवानन्द भारती में धर्मनिरपेक्षता को संविधान का बुनियादी ढांचा कहा गया है। उसका जवाब भाजपा की केन्द्र सरकार बागेष्वर धाम बाबा जैसे लोगों को समाज की भीड़ में छोडक़र ताली बजाती है। भारत की आजादी के वक्त कश्मीर की जनता को वचन दिए गए थे। उनका मजाक उड़ाते कश्मीर का राज्य का ओहदा घटाकर केन्द्र शासित प्रदेश कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट कहता रहे नफरती भाषण नहीं चलेंगे। लेकिन प्रधानमंत्री को ही उसके बिना बोलने की आदत कहां है? मजहब के आधार पर चुनाव नहीं होगा लेकिन प्रधानमंत्री तो खुद मुष्टिका प्रहार करते कर्नाटक में मतदाताओं को खुल्लमखुल्ला बरगलाते रहे कि जोर से बजरंगबली की जय बोलो और फिर वोट के लिए बटन दबा दो। उनसे कांपता, सहमता केन्द्रीय चुनाव आयोग गांधी जी के तीन बंदरों से सीख चुका है कि न तो सरकार की बुराई देखो। न सरकार की बुराई सुनो और न सरकार की बुराई करो। ऐसे माहैाल में यदि आम आदमी पार्टी लोकतंत्र की हिफाजत के लिए लडऩे बढ़ती है। तो उसमें बाकी पार्टियों को वोट बैंक की गणित लगाने के बदले सडक़ पर आकर जनता का साथ देना चाहिए। 

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