संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हजारों जोड़े, लाखों मेहमान ऐसी शादी सीखने लायक...
26-May-2023 5:20 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : हजारों जोड़े, लाखों मेहमान ऐसी शादी सीखने लायक...

फोटो : सोशल मीडिया

राजस्थान में होने जा रहे एक सामूहिक विवाह की दावत के इंतजाम की खबर आई है, इसमें पांच लाख मेहमानों के आने का अंदाज है, और हजार रसोईये सात दिनों से पकवान बनाने में लगे हैं, समारोह स्थल पर ट्रैक्टरों से खाना सप्लाई होगा, और गिनीज बुक ऑफ वल्र्ड रिकॉर्ड्स वाले इस रिकॉर्ड को दर्ज करने के लिए डेरा डाले हुए हैं। इसमें 22 सौ जोड़ों की शादी होने जा रही है, जिनमें 111 जोड़े मुस्लिम हैं, और बाकी हिन्दू समाज की अलग-अलग जातियों के हैं। एक सामाजिक संस्था इसे करीब सौ करोड़ रूपये की लागत से करवा रही है। 

इस खबर पर आज लिखने की जरूरत कुछ अलग-अलग वजहों से लगती है, पहली बात तो यह कि न सिर्फ अलग-अलग जातियों के जोड़ों की शादी एक साथ हो रही है, बल्कि हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग भी इसमें शामिल हैं। हर जोड़े पर औसत करीब डेढ़ लाख रूपये खर्च होने का अंदाज है जो कि आज किसी भी आम शादी के खर्च से कम ही है। इसलिए इसे बहुत खर्चीला आयोजन नहीं कहा जा सकता क्योंकि गरीबों में भी कुछ खर्च तो होता ही है। इसमें एक दिलचस्प बात यह भी है कि समाज से सौ करोड़ रूपये का यह खर्च निकल रहा है, और किसी धार्मिक आयोजन के बिना, एक सामाजिक मकसद से लोग पैसे दे रहे हैं। भारत में धर्म और आध्यात्म के नाम पर तो लोगों की जेब से पैसे निकल जाते हैं, लेकिन अन्य किसी किस्म की मदद के लिए कम निकलते हैं। इसलिए सामूहिक विवाह जो कि इस किस्म से धर्म और जातियों को एक साथ जगह दे रहा है, गरीबों को भी धूमधाम से शादी का एक मौका दे रहा है, और जिस तरह 22 सौ जोड़ों पर पांच लाख मेहमानों का अंदाज है, तो हर जोड़े के पीछे दो सौ मेहमानों को जगह मिलने वाली है, और यह धूमधाम से हो रही शादी दिखती है। फिर यह भी है कि बिना खर्च, बराबरी से, और विश्व रिकॉर्ड बनाने वाली ये शादियां मामूली या गरीब आय वर्ग के लोगों को हमेशा याद भी रहेंगी। 

यह मुद्दा केवल इसी एक वजह से लिखने के लिए काफी नहीं है इसलिए इसके कुछ दूसरे पहलुओं पर भी कुछ अलग बातें लिखनी हैं। एक तो यह कि अलग-अलग शादियों में साधन और सुविधाओं की इतनी बर्बादी होती है, फिजूलखर्ची होती है, हर किसी को असुविधा होती है, इसलिए भी सामूहिक विवाहों का चलन बढऩा चाहिए। यह एक अलग बात है कि शादियों में जिसे हम फिजूलखर्ची कह रहे हैं, वह करोड़ों लोगों के लिए रोजगार भी है, अर्थव्यवस्था का एक हिस्सा भी है, लेकिन राजस्थान की इस मिसाल को देखकर, या हमारी सलाह को पढक़र रातों-रात तो शादियां खत्म होनी नहीं हैं, और न ही इससे जुड़े कारोबार खत्म होने हैं। अपने से अधिक संपन्नता वाले समाज की देखादेखी लोगों के बीच शादियों पर अपनी औकात से बाहर जाकर खर्च करने की परंपरा बनी हुई है, और उसका सामाजिक दबाव भी बना रहता है। ऐसे सामाजिक दबाव को खत्म करने के लिए सामूहिक विवाह एक अच्छा जरिया है, और इससे खासकर कमजोर तबकों और मध्यम वर्ग को बड़ी राहत मिल सकती है। ऐसे आयोजनों से समाज के कुछ सबसे रईस लोगों को भी जुडऩा चाहिए जो अपने परिवार की शादियां यहां पर करें, और उससे ऐसे आयोजनों को एक अधिक सामाजिक मान्यता मिल सके। अभी मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में सरकारी खर्च पर ऐसी शादियां होती हैं, लेकिन वे सरकारी मदद से होती हैं, इसलिए शायद उनमें समाज के संपन्न तबकों के लोग शामिल नहीं होते। इसकी बजाय, या इसके साथ-साथ अलग से अगर सामाजिक स्तर पर ऐसी पहल होगी, संपन्न और मशहूर लोग भी अपने परिवारों की शादियां सामूहिक विवाह में करेंगे, तो बाकी लोगों के बीच भी उसे एक अधिक प्रतिष्ठा मिलेगी, और गरीब-मध्यमवर्गीय परिवारों पर पडऩे वाला अंधाधुंध दबाव खत्म होगा। 

राजस्थान के इस आयोजन का जो बड़ा पैमाना है, वह भीड़भरे कार्यक्रमों के मैनेजमेंट के अध्ययन का एक दिलचस्प केस भी है। हमें भरोसा है कि कुछ बड़े मैनेजमेंट संस्थानों के छात्र और प्राध्यापक इसे देखने, और इससे सीखने को जरूर पहुंचे होंगे, लेकिन इनके साथ-साथ उन राज्यों को भी अपने अफसरों को भेजना चाहिए जहां पर छोटे पैमाने पर ही सही इस तरह के कार्यक्रम होते हैं। तमाम राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं को ऐसे बड़े आयोजनों का अनुभव अपने अमले को करवाना चाहिए। हो तो यह भी सकता था कि आईएएस जैसी नौकरी के प्रशिक्षण संस्थान भी अपने नए अफसरों को ऐसी जगह भेज सकें, और हो सकता है कि उन्होंने भेजा भी हो। हमें तो इतने बड़े पैमाने की और कोई दूसरी खबर याद नहीं पड़ रही है, इसलिए यह तो माना ही जा सकता है कि सीखने और सिखाने के ऐसे अधिक मौके बार-बार नहीं आते हैं। 

भारत जैसे परंपराओं वाले देश में राज्य सरकारों को अपनी सामाजिक जवाबदेही के तहत ऐसे आयोजनों को बढ़ावा देना चाहिए, और अपने खर्च का बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार में डुबाने के बजाय सामाजिक संस्थाओं को ऐसे आयोजन करने में मदद करनी चाहिए। भारत एक गरीब देश है, और यहां के कमजोर तबके भी बहुत सी परंपराओं को ढोते हैं, सामाजिक रीति-रिवाज उन पर लदे रहते हैं, इसलिए सरकारों को सामाजिक सरलता और किफायत को बढ़ावा देने की ऐसी सामूहिक कोशिशों को बढ़ावा देना चाहिए। 

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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