विचार / लेख

अमृता यादव
(नर्स, कैंसर विभाग)
‘अस्पताल में कैंसर विभाग के शुरुआत से ही मेरी पोस्टिंग यहां हो गई। फिर ट्रेनिंग के लिए मुझे बैंगलोर भेजा गया। तब से मैं यहीं, कैंसर रोगियों की सेवा कर रही हूं।’
‘नर्स होने की वजह से मुझे हर मरीज को करीब से जानने का मौका मिलता है। डॉक्टर के मुक़ाबले, रोगी हम नर्सों के साथ ज्यादा वक्त गुजारते हैं। स्वस्थ हो जाने के बाद भी, वो या उनका परिवार हमारे संपर्क में बना रहता है।’
‘कुछ साल पहले की बात है। एक सुबह एक बूढ़े बाबा मेरे पास आए। उन्हें जीभ का कैंसर था। उनकी रेडियो थेरेपी चल रही थी और वे डॉक्टर से मिलना चाहते थे। मैंने सोचा, शायद वे इलाज के संबंध में कुछ जानना चाहते हों, सो तुरंत डॉक्टर साहब से मिलवा दिया।’
‘मगर ऐसी कोई बात थी नहीं। दरअसल बाबा इलाज बीच में छोडक़र घर लौट जाना चाहते थे। सो, डॉक्टर सर के समझाने के बाद, मैंने उनसे अकेले में पूछा ‘बाबा, क्या तकलीफ़ है? घर क्यों लौटना चाहते हैं?’
‘वे रूआंसा होकर बोले ‘इलाज के लिए रायपुर एक रिश्तेदार के घर रुका हूं। दो दिन पहले, उसकी पत्नी ने ग़ुस्से में मेरी तरफ खाना फेंककर कहा ‘पता नहीं, कब तक हमारे गले में टंगे रहेंगे ये लोग! फिर बड़बड़ाती चली गई।’
‘मैडम, मैं बीमारी से मर जाऊंगा, पर इतना अपमान सहकर इलाज नहीं करवा सकूंगा!’
‘ये सुनने के बाद, हमारी कैंसर विभाग की टीम ने मिलकर पैसे इक_े किया। इन पैसों से उनके रुकने और दवाइयों की व्यवस्था की गई। रात का खाना बाहर से आने लगा। और जब तब वे रायपुर में रहे, उनका दिन का खाना मैं बनाकर लाती थी। हफ्तों बाद, बाबा स्वस्थ होकर लौट गए। ख़ूब आशीर्वाद मिला उनका।’
‘मैं लगातार उनके संपर्क में रही। कुछ सालों बाद पता चला कैंसर फैल गया है। किसी ठंड की सुबह उनके नंबर से फोन आया। ‘आज सुबह...बाबा ने...खेत में फांसी लगा ली। बड़ी तकलीफ में थे वो। घाव बहुत बढ़ गया था...’
‘मैं क्या कहती? उनकी तकलीफ हमारी पूरी टीम समझती थी। दल्ली-राजहरा से रायपुर आकर बार-बार इलाज कराना संभव नहीं था उनके लिए। फिर रायपुर का वह अनुभव!’
‘मगर हां, आज भी उनके घर से फोन आता है। हम आज भी बाबा को याद करके मुस्कुराते हैं। मुझे गर्व होता है कई बार कि ईश्वर ने मुझे कैंसर मरीजों की सेवा के लिए चुना।’
( सुदेशना रूहान के फेसबुक पेज से)