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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अदालत से सीधे राज्यसभा या राजभवन का सफर बंद हो...
31-May-2023 4:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अदालत से सीधे राज्यसभा या राजभवन का सफर बंद हो...

वकीलों के एक संगठन, बॉम्बे लॉयर्स एसोसिएशन ने सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की है कि किसी भी रिटायर्ड जज को कार्यकाल खत्म होने के दो साल बाद तक किसी तरह की राजनीतिक नियुक्ति नहीं मिलनी चाहिए। यह याचिका कुछ मिसालों के साथ लगाई गई है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश रहे हुए मोहम्मद हिदायतुल्ला ने रिटायरमेंट के दस साल बाद उपराष्ट्रपति बनना मंजूर किया, इसके पहले तक वे तमाम प्रस्तावों को मना करते रहे। वकीलों के संगठन ने कहा है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता के लिए ऐसी रोक लगाना जरूरी है क्योंकि अगर कम से कम से दो साल का ऐसा प्रतिबंध नहीं रहेगा तो कोई भी जज सरकारी ओहदे की चाह में सरकार की पसंद के फैसले देने से नहीं हिचकेंगे। यह पिटीशन ऐसे वक्त आई है जब एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई राममंदिर के फैसले के चार महीने बाद ही राज्यसभा भेज दिए गए, और इसी बेंच के एक दूसरे जज को रिटायर होने के एक माह बाद ही आंध्र का राज्यपाल बना दिया गया। ये दूसरे जज, जस्टिस एस अब्दुल नजीर नोटबंदी के खिलाफ दायर तमाम याचिकाओं को खारिज करने वाली बेंच में भी थे। मोदी सरकार ने इनके अलावा भी रिटायर्ड जजों को राज्यपाल बनाया और दूसरी जगह भेजा।

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बरसों से हितों के ऐसे टकराव के खिलाफ लिखते चले आ रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों ने अपने स्तर पर भी ऐसे इंतजाम कर रखे हैं कि देश के बहुत से संवैधानिक पदों पर, और कानूनी जरूरतों वाले दूसरे पदों पर रिटायर्ड जजों को ही रखा जा सकता है। ऐसे दर्जनों ओहदे हैं, और अधिकतर जज रिटायर होने के बाद भी इन कुर्सियों पर कानूनी जानकारी वाले कामों पर रखे जाते हैं। लेकिन उपराष्ट्रपति बनाना, राज्यपाल या राज्यसभा सदस्य बनाना इसके लिए किसी का रिटायर्ड जज होना जरूरी नहीं रहता, और ऐसे में जजों को इन जगहों पर लेकर आना एक खतरनाक सिलसिला है।

यह बात सिर्फ रिटायर्ड जजों पर लागू नहीं होती है। रिटायर्ड अफसरों पर भी लागू होती है जो कि अपने राज्यों में सरकार को खुश रखते हैं, और कार्यकाल पूरा होने के बाद वृद्धावस्था पुनर्वास की तरह कोई न कोई ओहदा पा जाते हैं, और भारी महत्व, भारी मेहनताने, और भारी सहूलियतों के कई साल गुजारते हैं। ऐसे अफसर अपनी नौकरी के आखिरी बरसों में सत्ता को खुश करने में लगे रहते हैं ताकि उन्हें रिटायर होते ही कोई न कोई काम मिले। कई अफसर तो सत्ता के ऐसे चहेते बन जाते हैं कि वे वृद्धावस्था पुनर्वास भी एक के बाद एक कई तरह के पाते रहते हैं। यह एक सीधे-सीधे लेनदेन का मामला रहता है, और हम इसका विरोध लंबे समय से कर रहे हैं। अगर प्रदेश के कुछ संवैधानिक ओहदों पर कुछ खास किस्म के तजुर्बे वाले रिटायर्ड जजों और अफसरों को रखना ही है, तो उन्हें दूसरे प्रदेशों से लाना चाहिए, न कि ठकुरसुहाती के फैसले देने वाले, काम करने वाले उसी प्रदेश के जजों और अफसरों को रखना चाहिए। इसके लिए जरूरत हो तो पूरे देश में एक टेलेंटपूल बनाया जा सकता है, और राज्य उसमें से बाहरी लोगों को छांट सकते हैं। आज सत्ता की मेहरबानी इस तरह हावी रहती है कि ऐसे ओहदों पर आने के बाद भी ये लोग सत्ता की पसंद के खिलाफ का कोई काम नहीं करते। हितों के टकराव का यह मामला भ्रष्ट आचरण से कम कुछ नहीं है। इस पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। हम लगातार यह मांग उठाते रहे हैं, और अब जजों तक सीमित ऐसी एक याचिका वकीलों के संगठन ने लगाई है, जिसे जनहित में मंजूर किया जाना चाहिए।

बहुत किस्म की ऐसी सरकारी नौकरियां रहती हैं जिनमें रिटायर होने के कुछ बरस बाद तक कोई दूसरी नौकरी नहीं की जा सकती। यह तो एक सामान्य समझबूझ की बात है कि रिटायर्ड फौजी अगले ही दिन से किसी हथियार कंपनी की नौकरी करने लगे, तो उसमें एक सीधा खतरा यह रहेगा कि फौज में रहते हुए उसने इस कंपनी के लिए कारोबार की जगह बनाकर छोड़ी होगी। चूंकि न्यायपालिका एक अलग किस्म का सम्मान चाहती है, और अपने-आपको अवमानना के सामंती कानूनों के घेरे में महफूज भी रखती है, इसलिए उसे तो संदेहों से और भी परे रहना चाहिए। पूरे देश में हितों के टकराव पर एक व्यापक फैसला आना चाहिए जो कि जजों और अफसरों पर बराबरी से लागू होता हो, और सार्वजनिक जीवन से भ्रष्ट आचरण और संदेह दोनों को खत्म कर सके।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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