राष्ट्रीय

मणिपुर हिंसा: दूसरे राज्यों के लोगों की जान सांसत में फंसी
08-Jun-2023 1:20 PM
मणिपुर हिंसा: दूसरे राज्यों के लोगों की जान सांसत में फंसी

मणिपुर में बड़े स्तर पर हिंसा, आगजनी और विस्थापन के बीच दूसरे प्रदेशों से आए कामगारों और कारोबारियों की भी हालत खराब है. एक ओर जहां उन्हें सुरक्षा की चिंता है, वहीं कामकाज भी ठंडा है. बाहर जाना भी आसान नहीं है.

    डॉयचे वैले पर प्रभाकर मणि तिवारी की रिपोर्ट-


पूर्वोत्तर राज्य मणिपुर मई की शुरुआत से ही मैतेयी और कुकी-नागा समुदाय के बीच बड़े पैमाने पर हो रही हिंसा और आगजनी का शिकार है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, अब तक 100 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. सैकड़ों लोग घायल हुए हैं और हजारों मकान और अन्य इमारतों को जला दिया गया है. हिंसा से डरे लोगों ने घर से पलायन कर राज्य के राहत शिविरों या पड़ोसी मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम और सुदूर दिल्ली तक शरण ली है. लेकिन यहां एक तबका ऐसा भी है, जो चक्की के दो पाटों के बीच फंसने पर मजबूर है.

अनुमान के मुताबिक, राज्य में दूसरे राज्यों से आए प्रवासियों की तादाद करीब पांच हजार है. इनमें बंगाली और मारवाड़ी के अलावा बिहार और उत्तरप्रदेश के लोग और म्यांमार से दशकों पहले लौटे तमिल समुदाय के लोग भी शामिल हैं. राज्य में उन्हें बाहरी कहा जाता है. हालांकि हिंसा में अब तक ऐसे लोगों में से किसी के जान-माल के नुकसान की कोई सूचना नहीं मिली है, लेकिन ये लोग बीते महीने भर से ज्यादा समय से असुरक्षित माहौल में जीने पर मजबूर हैं.

केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, हिंसा और आगजनी शुरू होने के 26 दिनों बाद 29 मई को मणिपुर के दौरे पर पहुंचे. इसके बाद सरकार और पुलिस भले स्थिति सामान्य होने का दावा कर रही हो, लेकिन हकीकत इसके ठीक उलट है. यह जरूर है कि अब हिंसाकी घटनाएं और इसकी गंभीरता पहले के मुकाबले कम हुई हैं, लेकिन इन पर पूरी तरह अंकुश नहीं लगाया जा सका है. राज्य में ऐसा माहौल बन गया है कि हर व्यक्ति सामने वाले को संदेह की निगाहों से देखने लगा है. पहले ऐसा नहीं था.

बीते दो-चार दिनों से इन प्रवासी कामगारों ने दोबारा काम शुरू किया है, लेकिन ग्राहक नहीं के बराबर हैं. कुछ लोगों का कहना है कि अब मौका मिलते ही वे कहीं और 

बाहर जाना भी आसान नहीं है

विजय कुमार, बिहार के वैशाली जिले के रहने वाले हैं. कई साल से वह राजधानी इंफाल में एयरपोर्ट से शहर जाने वाली मुख्य सड़क के किनारे चाय और नाश्ते की दुकान चलाते हैं. वह बताते हैं, "हिंसा शुरू होने के बाद बहुत डर लग रहा था. हमने कई सप्ताह तक अपनी दुकान बंद रखी थी. हर पल जान का डर सता रहा था, लेकिन यहां से घर लौटना भी आसान नहीं था. बिहार की ट्रेन पकड़ने के लिए पहाड़ी रास्तों पर आठ घंटे का सफर करने के बाद नागालैंड के दीमापुर पहुंचना होता है. घर में तो फिर भी कुछ सुरक्षा थी, लेकिन रास्ते का क्या भरोसा? इसलिए हम चार लोग यहीं रह रहे हैं."

इंफाल के मुख्य बाजार में दुकान चलाने या बड़ी दुकानों में काम करने वाले सैकड़ों लोगों ने भी खुद को घर में बंद कर लिया था. हालांकि मणिपुरी मालिकों ने उन्हें सुरक्षा का भरोसा दिया था. लेकिन फिर भी लोग डरे हुए थे. विजय कहते हैं कि जब मैतेयी समुदाय के इन मालिकों की अपनी सुरक्षा का ही ठिकाना नहीं था, तो वे दूसरों को क्या सुरक्षा देते? लेकिन फिर बात घूम-फिर कर वहीं अटक गई कि अपने गांव के लिए निकलना ज्यादा खतरनाक है. उसके लिए पूरा नागालैंड पार कर दीमापुर तक जाना पड़ता.

"खुद को घर में कैद कर लिया"

इंफाल से करीब 100 किलोमीटर दूर म्यांमार से लगा मोरे नाम का एक कस्बा है. यहां भी बाहरी कहे जाने वाले प्रवासी समुदायों के तीन हजार से ज्यादा लोग रहते हैं. सिलचर के प्रदीप शुक्ल वैद्य कई दशकों से यहां रहते हुए एक दुकान चलाते हैं. प्रदीप बताते हैं, "हम लोग काफी डर गए थे. लेकिन घरों में खुद को कैद करने के अलावा कोई चारा नहीं था. यहां से निकलने का रास्ता पर्वतीय इलाकों से होकर ही इंफाल जाता है. हिंसा और आगजनी से सबसे ज्यादा प्रभावित चूड़ाचांदपुर जिला इसी रास्ते में है."

प्रदीप बताते हैं कि स्थानीय लोगों और पुलिस ने उन्हें सुरक्षा का पूरा भरोसा दिया था. लेकिन जब दशकों का भाईचारा और सामाजिक ताना बाना पल भर में छिन्न-भिन्न होता नजर आ रहा था, तब आम लोगों के भरोसे पर भला भरोसा कैसे होता? स्थानीय लोगों को तो खुद ही अपनी जान के लाले पड़े थे.

हिंसा से डरे लोगों ने घर से पलायन कर राज्य के राहत शिविरों या पड़ोसी मिजोरम, नागालैंड, सिक्किम और सुदूर दिल्ली तक शरण ली है. तस्वीर में एक राहत शिविर में रह रहे कुकी समुदाय के लोग नजर आ रहे हैं.

"यहां से भाग कर भी कहां जाते"

स्थानीय तमिल समुदाय के सचिव ख्वाजा मोइनुद्दीन भी लगभग ऐसी ही बात कहते हैं. वह बताते हैं, "तमिल समुदाय के लोगों ने ही आपस में एक-दूसरे की सुरक्षा का जिम्मा लिया था. अब यही हमारा घर है. यहां से भाग कर भी कहां जाते." 1970 के दशक में मोरे में तमिल समुदाय के करीब 15 हजार लोग रहते थे. अब इनकी आबादी घट कर 3,000 रह गई है. इसकी वजह है यहां शिक्षा और रोजगार के समुचित अवसरों की कमी.

ये लोग सीमा पार म्यांमार (तब बर्मा) से यहां आए थे. तमिलनाडु की संस्कृति और खानपान से तालमेल नहीं जमा, तो लौट कर मोरे में बस गए. मोरे की आबोहवा और खानपान काफी हद तक म्यांमार से मिलता है.

बीते करीब 20 साल से यहां कारोबार कर रहे राम अवधेश वर्मा कहते हैं, "म्यांमार सीमा बंद होने के कारण रोजी-रोटी तो पहले से ही खतरे में पड़ी थी. कारोबार पूरी तरह चौपट होने की कगार पर था. अब इस हिंसा से जान के भी लाले पड़ गए हैं." राम अवधेश बताते हैं कि हिंसा के दौरान यहां किसी बाहरी व्यक्ति को कोई नुकसान तो नहीं पहुंचा. लेकिन हर पल मौत के आतंक से डर-डर कर जीना भी कम तकलीफदेह नहीं है.

स्थानीय लोगों का कहना है कि पुलिस ने उनको सुरक्षा का आश्वासन दिया था और घरों से बेवजह बाहर ना निकलने की सलाह दी थी. अब दो-चार दिनों से इन लोगों ने दोबारा काम शुरू किया है, लेकिन ग्राहक नहीं के बराबर हैं. इन लोगों का कहना है कि अब मौका मिलते ही वे कहीं और ठिकाना बनाएंगे.

नाम ना छापने की शर्त पर एक व्यापारी बताते हैं, "मणिपुर में अब दोनों समुदायों के बीच संदेह और अविश्वास की खाई इतनी चौड़ी हो गई है कि निकट भविष्य में उसे पाटना मुमकिन नहीं है. ऐसे में आगे भी रह-रह कर हिंसा भड़कने का अंदेशा बना हुआ है."

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news