विचार / लेख
संजय श्रमण
जिद्दू कृष्णमूर्ति ने जोर देकर कहा है कि मनुष्यता का मनोवैज्ञानिक क्रमविकास अर्थात इवोल्यूशन हुआ ही नहीं है। इसी तरह की एक और बात अभी के एक जि़ंदा अमरीकी दार्शनिक केन विल्बर्स भी करते हैं।
हाल ही में मकबूल हो रहे युवाल नोवा हरारी भी कह रहे हैं कि टेक्नोलोजी जितनी तेजी से बदल रही है उसके हिसाब से मनुष्य की मानवीय क्षमताएं, संवेदनाएं और शक्तियां नहीं बढ़ रही हैं। जीवन के अधिकाँश प्राचीन तौर तरीके अब आउट डेटेड हुए जा रहे हैं। लेकिन इंसानों के बीच की आदिम घृणा और असुरक्षाएं कम होने की बजाय नए नये कलेवरों में सामने आ रही हैं।
टेक्नोलोजी के साथ मनोविज्ञान और धर्म का पर्याप्त विकास नहीं हो रहा है इसीलिये अब नये ‘टेक्नोरिलीजन’ मैदान संभालने वाले हैं जो अगले कुछ दशकों में नीति, नैतिकता और सौन्दर्यबोध आदि की सारी परिभाषाएं बदल डालेंगे।
इस बदलाव से तीसरी दुनिया के लोग अर्थात लातिन अमेरिका और दक्षिण एशिया के अधिकाँश गरीब देश वैश्विक विकास और सभ्यता की दौड़ में अचानक से बहुत पीछे छुट जायेंगे।
केन विल्बर्स कृष्णमूर्ति की बात को एक दूसरे ढंग से भी रखते हैं। वे कहते हैं कि अधिकाँश समाज और संस्कृतियाँ सिर्फ तकनीक और विज्ञान के सहारे उन सुविधाओं का उपभोग करने लगी हैं जो कुछ सभ्य और लोकतांत्रिक (तुलनात्मक रूप से) देश उपभोग करते आये हैं। लेकिन चूँकि इन समाजों ने अपनी जमीन पर सामाजिक, राजीनीतिक, दार्शनिक और वैज्ञानिक पुनर्जागरण की लड़ाई नहीं लड़ी इसलिए ऊपर ऊपर से वे सभ्य नजर आते हैं लेकिन अंदर से वे एकदम बर्बर और आदिम हैं।
सीरिया, अफगानिस्तान का पिछले कुछ सालों का उदाहरण हमारे सामने है। सीरिया, अफगानिस्तान से पलायन करते लोगों को मालदार अरब मुल्क मिलकर संभाल सकते हैं। लेकिन वे ऐसा नहीं करेंगे। वे रात भर की अय्याशी में लाखों डालर उड़ा देंगे लेकिन अपने ही धर्म के लोगों को बचाने के लिए सामने नहीं आयेंगे।
हालाँकि ठीक यही सवाल उन तथाकथित सभ्य और लोकतांत्रिक यूरोपीय या अमरीकी समाजों पर भी लागू होता है जिन्होंने पूरे अरब सहित लेबनान, अफगानिस्तान और सीरिया में आग लगाईं हुई है, लेकिन शरणार्थियों की दुर्दशा के सन्दर्भ में यूरोप की तुलना में अरब समाज की बेरुखी बहुत पीडि़त करती है।
भारत में भी इसी तरह की बर्बादी का इंतज़ाम कश्मीर, आसाम और बंगाल में शुरू हो गया है। मनुष्यों को एकदूसरे की चिंताओं और तकलीफों का जऱा भी एहसास नहीं है। दो चार शब्दों के इधर उधर हो जाने से कोई राष्ट्रवादी हो जाता है कोई विदेशी हो जाता है कोई घुसपैठिया हो जाता है।
इन शब्दों के खेल में मीडिया ने पूरा चिडिय़ाघर खोला हुआ है। हर तरह का मनोरंजन मौजूद है देश के जेहन को बर्बाद करने में सरकार, कारपोरेट और धर्म तीनों ने गजब का निवेश किया हुआ है।इस निवेश की सफलता के चिन्ह भी नजऱ आने लगे हैं। ऐसे में हरारी, केन विल्बर्स और कृष्णमूर्ति शेष मनुष्यता के लिए न सही तो कम से कम भारत के लिए बिलकुल सही साबित होते हैं।
भारत को तत्काल नए धर्म नयी सभ्यता और नयी नैतिकता की जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्य से नयी नैतिकता की बजाय पुराने श्मशानों में से वेदान्त का भूत फिर से जि़ंदा किया जा रहा है।