विचार / लेख
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-डॉ. आर.के. पालीवाल
हाल में केन्द्र सरकार ने दो ऐसे राजनीतिक विवादों को जन्म दिया है जिनसे देश के राष्ट्रपति का नाम और गरिमा जुड़ी है। अभी निवर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द को सरकार द्वारा गठित वन नेशन वन इलेक्सन समिति का अध्यक्ष बनाए जाने का विवाद थमा नहीं था कि जी 20 शिखर सम्मेलन में वर्तमान राष्ट्रपति के रात्रिभोज के आमंत्रण पर प्रेजिडेंट ऑफ इंडिया की जगह प्रेजिडेंट ऑफ भारत लिखने से नया विवाद छिड़ गया है।
इस विवाद की जड़ में भी विपक्षी गठबंधन का नाम इंडिया होना माना जा रहा है। अभी तक सभी कार्यक्रमों और दस्तावेजों में प्रेजिडेंट ऑफ इंडिया के नाम से ही आमंत्रण और उच्च सरकारी पदों पर नियुक्तियां आदि जारी हुआ करती थी। यह पहला मौका है जब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आयोजित समारोह के निमंत्रण पत्र में अचानक इंडिया की जगह भारत लिखा गया है। निश्चित रूप से सरकार को यह अंदेशा रहा होगा कि अचानक इस बदलाव पर लोग चौंकेंगे और काफी लोग सरकार की आलोचना भी करेंगे क्योंकि सरकार ने ऐसा कदम अचानक उठाया है।
विपक्षी दलों के गठबंधन के नेता सरकार के इस कदम को गठबंधन से नफरत और उसके इंडिया नाम से डर के रूप में प्रचारित कर रहे हैं जो किसी हद तक उचित भी लगता है। आखिर सरकार को अचानक ऐसा करने की क्या आवश्यकता महसूस हुई। नोटबंदी की तरह इस बदलाव को बगैर किसी चर्चा के अचानक करने के पीछे क्या मंशा थी। सरकारें जब तब अपनी पीठ थपथपाने के लिए सडक़ों और शहरों आदि के नाम बदलती रहती हैं। वर्तमान सरकार और भारतीय जनता पार्टी इस मामले में काफी आगे है।
मध्यप्रदेश की बात करें तो इसी साल हबीबगंज स्टेशन का नाम रानी कमलापति स्टेशन किया गया है। नाम परिवर्तनों के पीछे वोट बैंक की राजनीति होती है लेकिन इस तरह अचानक देश का ही नाम बदलना निश्चित रूप से अकल्पनीय है! बेहतर होता सरकार ऐसा करने से पहले व्यापक चर्चा करती। सभी देशों की एंबेसिज और संयुक्त राष्ट्र संघ मुख्यालय आदि अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को भी सूचित किया जाना चाहिए था कि अमुक दिन से इंडिया को भारत कहा जाएगा ताकि नाम परिर्वतन को लेकर अनावश्यक भ्रम की हास्यास्पद स्थिति से बचा जा सके।
अक्सर यह कहा जाता है कि हमारे देश में दो वर्ग हैं एक अंग्रेजीदा अमीर महानगरीय वर्ग है जो विकसित इंडिया का प्रतिनिधित्व करता है और दूसरा भारत है जो गरीब पिछड़े गांव देहात और बदहाल झुग्गी बस्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। सरकार शायद पूरे भारत को एक नजरिए से देखने के लिए कृत संकल्पित है इसलिए उसने इंडिया शब्द को सरकारी फाइलों से मुक्त करने का मन बनाया है। संभव है अब हर जगह से इंडिया हटाकर भारत लिखे जाने का सरकारी फरमान जारी हो। उदाहरण के तौर पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की जगह रिजर्व बैंक ऑफ भारत और स्टेट बैंक ऑफ भारत हो जाए। यह भी संभव है कि इंडिया से जुड़े अन्य शब्द ,यथा इंडो आदि भी बदले जाएं इंडियन करेंसी भारतीय करेंसी इंडियन एंबेसी भारतीय एंबेसी या भारत एंबेसी कहलाए आदि आदि।
सरकार के इस कदम से लगता है कि लोकसभा चुनाव के पहले इंडिया को भारत कहकर वह एक तीर से दो शिकार करना चाहती है। एक तरफ विपक्ष को यह कहकर घेरना चाहती है कि उन्होंने अपने गठबंधन का अंग्रेजीदा नाम रखा है और दूसरी तरफ खुद को भारतीय संस्कृति और हिंदी का पैरोकार साबित कर हिन्दी पट्टी में भावनात्मक जुड़ाव महसूस कराना चाहती है।
हालांकि अचानक ऐसा कर सरकार ने विपक्षी गठबंधन को अपना मजाक उड़ाने का मौका भी दिया है क्योंकि अटल बिहारी बाजपेई के नेतृत्व में बनी भाजपा सरकार ने अंग्रेजीदा शाइनिंग इंडिया का नारा दिया था और हाल में खुद प्रधानमंत्री ने मेड इन इंडिया पर काफी जोर दिया है। इसलिए विपक्ष का यह तर्क सही लगता है कि सरकार ने विपक्षी गठबंधन के इंडिया नाम से घबराकर हड़बड़ी में यह कदम उठाया है। अभी रक्षाबंधन पर अचानक केन्द्र सरकार ने गैस सिलेंडर पर दो सौ रुपए कम किए थे उसे भी ममता बनर्जी जैसे ने इसे विपक्षी गठबंधन का असर बताया था। इंडिया की जगह अचानक भारत लिखने से विपक्ष का दावा और पुख्ता होता है।