विचार / लेख

सनियारा ख़ान
.....मैं जिंदा हूं, लेकिन
दूसरों के समय में
मेरे खाने में भी है
दूसरों की उंगलियों के छाप
मेरे पानी में है
दूसरों के विचारों के जीवाणु
मेरी सोच में है
दूसरों के प्रदूषण
मैं जन्म ले कर
बड़ा हो रहा हूं, लेकिन
दूसरों के समय में.....(हुमायून आजाद)
हुमायून आजाद बांग्लादेश के कवि, लेखक, उपन्यासिक, शोधकर्ता होने के साथ साथ एक प्रखर आलोचक भी थे। वे हमेशा परंपरागत समाज की नकारात्मक मानसिकता के खिलाफ लिखना पसंद करते थे। 28 अगस्त सन 1947 को ढाका के पास मुंशीगंज में उनका जन्म हुआ था। समाज की हर गैरजरूरी प्रथा की आलोचना करते करते वे बहुतों को अपना दुश्मन बना चुके थे। शोषक समाज को ले कर उन्होने कहा था :
....बांग्लादेश में तनख्वाह को एक राष्ट्रीय प्रतारणा के रूप में देखा जाना चाहिए। महीने भर काम करवा कर पांच दिन का पारिश्रमिक दिया जाता है। इस देश में कवि गण झोपड़ी में रहते है और सिनेमा के सभी सुदर्शन गधे शीत ताप नियंत्रित महलों में....
रूढि़वादी समाज, धर्म के नाम पर होनेवाले बर्बरता और सैनिक शासन के खिलाफ तो वे लिखते ही थे, साथ में लोगों में व्याप्त कुप्रथाओं को लेकर भी वे कविता लिखते रहते थे। उनकी कविताओं में ज्यादातर हताशा, प्रेम, घृणा और मानसिक द्वंद होते थे, जैसे कि तथाकथित समाज को ले कर उनके अंदर बहुत ज़्यादा गुस्सा भरा हुआ था। इस गुस्से में लिखी कलम से कविता का रूप मिलता था। उनको शायद मालूम था कि किसी भी समय कोई कट्टर मानसिकता के हाथों उनकी हत्या हो सकती है। तभी उन्होने लिखा था :
.... बहुत ही छोटी सी
किसी बात के लिए
मुझे मरना होगा।
घास के छोटे छोटे
फूलों के लिए
या ओस के लिए?
चैत्र की हवा में ही
क्या मैं मर जाऊंगा?
किसी फूल की
सिर्फ एक पंखुड़ी के लिए
या फिर बारिश की
चंद बूंदों के लिए!....
जन्म के समय उनका नाम था हुमायुन कबीर। लेकिन सन 1988 में उन्होंने कानूनी रूप से अपना नाम हुमायुन आजाद कर लिए था। क्रांति को अपना लक्ष्य मान कर वे समाज और धर्म से जुड़े बेकार रस्मों से खुद को आजाद करना चाहते थे। उनके पिता एक शिक्षक और माता एक आम सी घरेलू महिला थी। बांग्ला साहित्य में स्नातकोत्तर डिग्री लेने के बाद वे एडिनबर्ग विश्वविद्यालय से भाषा विज्ञान में पी एच डी भी किए। देश लौट कर अलग अलग कई स्थानों पर पढ़ाने का काम करते हुए आखिर में ढाका विश्वविद्यालय में बांग्ला साहित्य के प्रोफेसर बन गए। उन्होने करीब करीब सत्तर पुस्तक लिखी थी। बांग्ला भाषा में विशेष अवदान के लिए बांग्लादेश सरकार ने उन्हें बांग्ला अकादमी साहित्य पुरस्कार से सम्मानित किया।
सामाजिक समस्याओं को लेकर वे कई अखबारों में स्तंभ लिखते थे। लोग कहते हैं कि उनकी भाषा और लेखन शैली में पश्चिम बंगाल के बुद्धदेव भट्टाचार्य का प्रभाव देखा जाता है। लेकिन एक बहुआयामी, उत्कृष्ट और स्पष्ट भाषी लेखक के रूप में उनकी अपनी एक अलग पहचान थी, जिसे हम नकार नहीं सकते हैं। धर्मांध समाज की लगातार समालोचना से गुस्साए हुए कुछ कट्टर सोच के लोगों ने सन 2004 में ढाका विश्वविद्यालय में आयोजित एक पुस्तक मेले से घर लौटते समय हुमायुन आजाद पर कातिलाना हमला कर दिया। इस हमले से वे शारीरिक रूप से कुछ हद तक अक्षम हो गए थे।
इस बीच उनकी लिखी हुई तीन पुस्तकों से उस समय के समाज में विवाद की आंधी भी शुरू हो गई। बांग्लादेश सरकार इन तीनों पुस्तकों को प्रतिबंधित करने के लिए मजबूर हो गए। ये पुस्तकें थी :
1. नारी
2. द्वितीय लिंग
3. पाक सर ज़मीन साद वाद
फिर कानूनी लड़ाई हारने के बाद सरकार को इन पुस्तकों पर से प्रतिबंध हटाना पड़ा। इसके बाद उन्नीसवीं शताब्दी की प्रख्यात जर्मन कवि हेनरिक हेन को लेकर शोध करने के लिए हुमायुन आजाद को जर्मनी बुलाया गया। वहां साथ साथ उनका ईलाज भी होना था। लेकिन वहां पहुंचने के एक सप्ताह के अंदर ही, उन्हीं के अपार्टमेंट में वे मृत पाए गए थे। विवाद के साथ उनका हमेशा गहरा संबंध रहा। और हम सभी ये जानते हैं कि धर्म और आजादी के बीच बहुत ज़्यादा फासला रहता है। ये एक कटु सत्य है। हुमायुन आजाद ने नए प्रजन्म के लिए लिखा था :
......किताब के पन्नों पर
दीप जलते हैं
किताब के पन्नों पर
सपने छुपे होते हैं
जिस किताब में
सूरज निकलता है
जिस किताब में
गुलाब खिलता है
उस किताब को पढऩा.....
उनकी हत्या के अठारह साल बाद अब सन 2022 में बांग्लादेश की एक स्थानीय अदालत ने उनकी हत्या के लिए एक प्रतिबंधित इस्लामिक दल के चार उग्रवादियों को दोषी ठहरा कर फांसी देने की आदेश जारी किया। आखिर में, हेनरिक हेन की एक कविता (जिसे हुमायुन आजाद ने अनुवाद किया था) पाठकों के लिए :
..... अगर फूलों को
ये मालूम होता कि
मेरे दिल में
इतनी सारी चोट
छुपी हुई हैं तो
मेरी सारी तकलीफों को
अपना मान कर
वे हमेशा रोते रहते....
एक सवाल हमेशा उठता है कि क्या किसी भी समाज में सभी को बराबरी से आवाज उठाने का अधिकार नहीं होना चाहिए? बांग्लादेश सरकार ने हुमायुन आज़ाद की मौत के बाद बांग्ला साहित्य में उनके योगदान के लिए एकुशे पदक नामक एक और सम्मान से सम्मानित किया। शायद हर समाज में साफ-साफ लिखने वाले बहुत से ऐसे लेखक या कवि होंगे, जिनको जीते जी गाली दे कर, मरने के बाद सम्मान देने की रीत सालों से चली आ रही है।