विचार / लेख
-अमिता नीरव
अखबार में काम करते हुए अपनी रूचि से इतर भी कई तरह की चीजें पढऩे को मिलती है, पढऩा पड़ती है। ऐसे पढऩा भी अपनी समझ में अलग तरह से विस्तार करती है। उन्हीं दिनों कहीं पढ़ा था कि दुनिया में सबसे ज्यादा खाना ब्रिटिश लोग फेंकते हैं। खाने की पूरी भरी हुई प्लेट वे डस्टबिन में उलट देते हैं।
हमने तो परंपरा से अन्न को ईश्वर माना है, लेकिन वहाँ लोग खाना फेंकते हुए किसी तरह के गिल्ट में नहीं रहते हैं। इसी तरह कहीं पढ़ा था कि क्रिसमस वीक (क्रिसमस और न्यू ईयर के बीच) में अमेरिका और योरोप में दिए जाने वाले गिफ्ट्स की पैकिंग में इतना कागज लगता है, जिससे पूरी धरती को तीन बार रैप किया जा सके।
हमारे शहर में कई लोगों को खाने का इतना शौक है कि वे उज्जैन की एक खास दुकान पर पुरी-सब्जी खाने इंदौर से खासतौर पर जाते हैं। कुछ इससे भी ज्यादा रईस हैं तो वे होटल ताज में सिर्फ कॉफी पीने के लिए फ्लाइट से मुंबई जाते हैं। क्योंकि वे इसे अफोर्ड कर सकते हैं।
हमारी एक साथी थी, वो हद दर्जे की जागरूक...। एक दिन उसने कहा कि, ‘लोग बिना बेस्ट बिफोर देखकर बिस्कुट या चॉकलेट खऱीद लेते हैं!’, ‘मतलब बिस्कुट या चॉकलेट की भी एक्सपायरी होती है?’, मेरे जैसे गाफिल इंसान के लिए यह एक सूचना थी।
‘हाँ... यहाँ तक कि सेनेटरी नैपकिंस की भी एक्सपायरी होती है।’, उसने बताया। यह मेरे लिए शर्म से डूब मरने वाली बात थी कि मुझे इतना भी नहीं पता है। मेरी अपनी समझ में तो बस दवाइयों की ही एक्सपायरी होती है। क्योंकि उसे हम अन्यथा नहीं जान पाते हैं।
हमारी पीढ़ी ने घर में ग्रॉसरी का सामान अखबारी कागज में आते देखा है। जिस पर बेस्ट बिफोर होने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता है। हमने अपनी पारंपरिक पद्धति से जाना है कि खाने का सामान खऱाब होने को हम देखकर, सूँघकर या फिर चखकर जान सकते हैं।
देखते-देखते हमारे यहाँ अनाज, दालें सहित सारा ग्रॉसरी का सामान पॉलिथीन पैक आ रहा है। उस पर बेस्ट बिफोर भी लिखा होता है। मैं सोचती थी कि शायद कुछ ऐसे रईस भी होते होंगे जो बेस्ट बिफोर देखकर ही सामान इस्तेमाल करते होंगे। खराब न होने की स्थिति में भी फेंक दिया करते होंगे।
सदी के पहले दशक में जब अमेरिका में मंदी का दौर चल रहा था, तब एक इसी सिलसिले की खबर पढ़ी तो चौंक गई। खबर थी कि वहाँ एक्सपायरी सामान के स्टोर्स पर भारी भीड़ होने लगी है। इससे एक औऱ चीज समझ आई कि वहाँ एक्सपायरी सामान के स्टोर्स भी होते हैं। मतलब वहाँ का गरीब तबका एक्सपायरी सामान खरीदता है।
इसका सीधा-सा मतलब यह हुआ कि बेस्ट बिफोर के बाद भी सामान खराब तो नहीं ही होता है। उसी साथी ने बताया कि मिठाई यदि जिस दिन खरीदी उसी दिन खत्म नहीं हुई तो अगले दिन हम उसे फेंक देते हैं। मैं चौंकी थी। जिन दिनों फ्रिज की सुविधा नहीं थी, उन दिनों तो यह ठीक है, लेकिन फ्रिज के होते हुए भी।
एक दोस्त है जो लंदन के पास कहीं रहती है। पिछले कुछ सालों में पर्यावरण को लेकर वह बेहद संवेदनशील हो गई है। इस साल जुलाई-अगस्त में उससे बात हो रही थी। तो मैंने उससे कहा कि अमीर देशों की पर्यावरण को लेकर चिंता गरीब देशों को दबाने का उनका टूल है, असल में अमीर देश पर्यावरण को ज्यादा नुकसान पहुंचा रहे हैं।
उसने सहमति जताई और बताया कि फिलहाल हमारे यहाँ तापमान 40 के आसपास पहुंच गया है, लेकिन यहाँ के लोगों को यह ग्लोबल वार्मिंग नहीं लग रहा है। उन्हें लग रहा है कि मौसम कितना खूबसूरत हो गया है। इसी तरह हल्की-फुल्की दाग लगी सब्जियाँ, फल यहाँ कूड़े में फेंक दिए जाते है।
जाहिर है कि वे ऐसा करने की लग्जरी कर सकते हैं। गरीब देश ऐसा करने की लग्जरी नहीं कर सकते हैं। जबकि फल-सब्जियाँ उगाने में लगे श्रम के साथ-साथ संसाधन और उपभोक्ता तक पहुँचाने के लिए हुए उपायों तक सब कुछ किसी न किसी स्तर पर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाता है।
तेज गर्मी के दिनों में जबकि पूरा शहर जलसंकट से जूझ रहा होता है, अपने इर्द गिर्द लोगों को हर दिन गाड़ी धोते, पोर्च धोते और अंधाधुंध पानी बहाते देखती हूँ। हम जैसे-जैसे अमीर होते जाते हैं, वैसे-वैसे चीजों के प्रति लापरवाह होते जाते हैं, क्योंकि हमने यह जान लिया है कि पैसा खर्च करेंगे तो किसी चीज की कमी नहीं होगी।
हिंदुओं की यह आम शिकायत रहती है कि उनके त्योहारों पर खासतौर पर दशहरा-दीपावली के दिनों में पावर कट होता है। कभी ईद पर नहीं किया जाता है। ऐसी ही शिकायत एक दिन भाई ने भी की थी। मैंने पूछा था, ‘कब से लाइट जला रहे हो तुम लोग?’
‘गणपति चतुर्थी से लेकर कार्तिक पूर्णिमा तक घर-बाजार सबको झकाझक रखे हुए हो, लाइट क्या पेड़ पर उगती है? जितनी बनेगी, उतने में ही बँटेगी... कोई बिजली को सेव तो किया नहीं जा सकता है! चूँकि आप बिजली का बिल भर सकते हैं तो आप बिजली की कमी की चिंता नहीं करते हैं।’
अपने इर्द गिर्द के समृद्ध लोगों में एक खास किस्म की गैर-जिम्मेदारी, एक खास किस्म की फिजूलखर्ची और लापरवाही देखती हूँ। हमारे देखते-देखते यूज एंड थ्रो का दौर आ पहुँचा है। पहली बार जब यूज एंड थ्रो बॉल पेन देखा तो भीतर कुछ तडक़ा था।
यह विचार बड़ा असुविधाजनक लगा था कि इसे बस एक ही बार इस्तेमाल करके फेंक देना होगा। इसमें रीफिल नहीं होगी। धीरे-धीरे हमारी जीवन शैली में यूज एंड थ्रो चीजों की भरमार होने लगी है। अब रिपेयर करने का काम ही नहीं होता है।
बचपन में जब स्लीपर टूट जाती थी तो उसकी बद्दी लाकर बदल दी जाती थी और वो फिर से नई हो जाती थी। चप्पलें टूटती थी और उसे ठीक करवाकर काम में ले लिया जाता था। उदारवाद के बाद आए पैसे ने चीजों को रिपेयर करवाने को गरीब होने की निशानी बना दिया है।
यही चीज वैचारिकता में चली आई है। पढ़ा-लिखा, खाता-कमाता मध्यम, उच्च मध्यम और उच्च वर्ग की चिंता बस अपने जीवन की लग्जरी तक ही होती है। देखिए पैकेज में कमाते आईटी प्रोफेशनल्स, डॉक्टर्स, इंजीनियर, प्रोफेसर, व्यापारी और उद्योगपतियों को।
सामाजिक जिम्मेदारी नामक कोई चीज उनके पास भी नहीं फटकती है। चूँकि पैसे ने सब कुछ हासिल करना आसान कर दिया है तो उन चीजों के प्रति भी लापरवाही आ गई है, जो अर्न नहीं की जाती, प्रोड्यूस नहीं की जा सकती जैसे हवा, पानी, धूप। बाकी तो सब उनको उपलब्ध हो ही जाना है।
आर्थिक समृद्धि अपने साथ गैर-जिम्मेदारी लाती है।
नोट- यहाँ समृद्धि का इस्तेमाल तुलनात्मक रूप से किया गया है।