संपादकीय
बिहार की एक हैरान-परेशान करने वाली खबर है। पांच बरस के एलकेजी के छात्र ने स्कूल में अपने पिता की पिस्तौल ले जाकर दस बरस के एक दूसरे छात्र को गोली मार दी। गनीमत कि गोली चलने के झटके से पिस्तौल झुक गई थी, और गोली इस छात्र को हथेली पर लगी। पांच बरस के इस बच्चे का पिता स्कूल में गार्ड रह चुका है, और यह बच्चा अपने स्कूल बैग में पिस्तौल लेकर आया था। कहां तो हम अमरीका में बंदूकों की संस्कृति को कोसते हुए नहीं थकते हैं, और अब हिन्दुस्तान में सात बरस का बच्चा घर से पिस्तौल लाकर दूसरे छात्र को गोली मार रहा है! यह सिलसिला महज इस घटना तक सीमित नहीं है, बल्कि हथियारों के प्रति बच्चों के मोह को पैदा करने, और बढ़ाने की बाजार की कोशिश और साजिश का एक मामूली सा सुबूत भी है। दुनिया के अमरीका सरीखे देशों में जहां बच्चे घर में बचपन से बंदूकें देखते बड़े होते हैं, वहां तो ऐसी बात समझ आ सकती थी, लेकिन हिन्दुस्तान में इसकी कल्पना बड़ी मुश्किल थी।
आज अधिकतर परिवारों में बच्चों को खिलौना-पिस्तौल दिलवा दी जाती है, और उसके खतरों से लोग अनजान रहते हैं। और तो और होली की पिचकारियां भी अब बंदूकों की शक्ल में आने लगी हैं, और दूसरों पर रंग फेंकना भी गोली चलाने के अंदाज में होने लगा है। इन दिनों भारत में बहुत सी धार्मिक और पौराणिक कहानियां हवा में तैर रही हैं, कई जगहों पर तो स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं, और उनमें त्रिशूल से लेकर गदा तक का जिक्र रहता है कि उस वक्त कैसे हथियारों का इस्तेमाल होता था। और बाजार को देखें तो प्लास्टिक के अलग-अलग तरह के त्रिशूल और गदा भरे पड़े हैं। अभी कुछ अरसा पहले एक खेल मैदान पर छोटे-छोटे स्कूली बच्चों को लाकर कुछ खेल करवाए जा रहे थे, और शिक्षिकाएं ही बड़े-बड़े बक्सों में प्लास्टिक की बड़ी-बड़ी गदा भरकर लाई थीं, और दर्जनों बच्चों के बीच शायद युद्ध जैसा कुछ करवाया गया होगा। अब सवाल यह उठता है कि आज के लोकतंत्र में गदा और त्रिशूल का इस्तेमाल क्या हो सकता है? आज तो आत्मरक्षा के लिए भी इस तरह के हथियार काम नहीं लाए जा सकते क्योंकि ये रक्षा के लिए नहीं, हमले के लिए बने दिखते हैं। असल जिंदगी में तो इनका उपयोग आज नहीं रह गया है, क्योंकि आज पुलिस और अदालत का रास्ता है, लेकिन बच्चों के मन में हिंसा भरने का काम इससे जरूर हो सकता है, और तथाकथित ऐतिहासिक कहानियों को पढ़ाते या सुनाते हुए ऐसी हिंसा किनके खिलाफ सिखाई जा सकती है, इसके लिए अधिक कल्पना की भी जरूरत नहीं है।
छोटे बच्चों पर परिवार के माहौल का, उन्हें सुनाई जाने वाली कहानियों का, उनके देखे हुए टीवी कार्यक्रमों का बड़ा असर पड़ता है। बहुत छोटी उम्र के बच्चे भी कहीं किसी के फोन पर पोर्नो देखकर वैसा प्रयोग करने में लग जाते हैं। जिन घरों में मारपीट करने, गालियां देने, और गोली मार देने जैसी बातें होती होंगी, वहां पर बच्चे तेजी से इन चीजों को सीखते होंगे। पांच बरस का बच्चा किस तरह अपने घर पर पिस्तौल तक पहुंच पाया, किस तरह उसे बैग में स्कूल ले आया, और किस तरह उसने अपने से पांच बरस बड़े बच्चे को गोली मार दी, यह बहुत बारीक विश्लेषण का मामला भी है। पहली नजर में हमारा मानना है कि उसने परिवार से ही पिस्तौल के इस्तेमाल की बात सीखी होगी।
परिवार और समाज को बच्चों के सामने किसी भी तरह की मिसाल पेश करते हुए बड़ा सावधान रहना चाहिए। जिन घरों में गालियां देकर बात करने की संस्कृति है, वहां के बच्चे आनन-फानन गालियां सीख जाते हैं। हम अपने यूट्यूब चैनल पर लगातार यह नसीहत देते हैं कि लोगों को तम्बाकू से दूर रहना चाहिए क्योंकि छोटे बच्चे तुरंत ही बड़ों को देखकर ऐसी लत पकड़ लेते हैं। अगर वे बड़ों को शराब पीते या जुआ खेलते देखते हैं, तो बड़े होकर उनके भी ऐसे ही हो जाने का खतरा बहुत बड़ा रहता है। जिन परिवारों में लडक़ों के सामने परिवार की लड़कियों और महिलाओं से भेदभाव होता है, उनके खिलाफ हिंसक माहौल रहता है, उन परिवारों में लडक़े बड़े होकर ऐसे ही हिंसक मर्द बनते हैं, और हिंसा की यह पारिवारिक परंपरा आगे बढ़ती रहती है। यही वजह है कि स्कूलों में भी शिक्षकों को सिगरेट-तम्बाकू से दूर रखने का नियम बनाया गया है, यह एक और बात है कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में हर कुछ दिनों में कोई शराबी शिक्षक या हेडमास्टर का वीडियो सामने आता है, और उनकी नौकरी जाने से भी बाकी शराबी शिक्षकों पर कोई असर नहीं होता।
यह देश बच्चों के सामने मिसाल के मामले में बहुत ही लापरवाह है। सडक़ों पर धर्म का नाम लेकर निकले हुए दीवाने लोग जिस तरह की हिंसा करते हैं, तोडफ़ोड़ करते हैं, पुलिस गाडिय़ों तक को चकनाचूर करते हैं, उसे देखकर बच्चे भी बड़े होने पर ऐसा करने को अपना एक धार्मिक अधिकार मान लेते हैं। हिंसा की परंपरा पीढ़ी-दर-पीढ़ी बढ़ती जाती है। हिन्दुस्तान में जब धार्मिक कपड़े पहने हुए लोग, साध्वी और साधू कहे जाने वाले लोग गांधी की तस्वीरों पर गोलियां दागते हैं, और नाथूराम गोडसे की प्रतिमा पर माला पहनाते हैं, तो वे बच्चों के मन में हत्या के प्रति हमदर्दी पैदा करते हैं, और हत्यारे के प्रति तारीफ की भावना। जब परिवारों में लोग किसी धर्म या जाति के खिलाफ हिंसक और अपमानजनक बातें करते हैं, तो फिर वहां के बच्चे बड़े होने के पहले ही उन धर्मों, और उन जातियों के खिलाफ नफरत का पूर्वाग्रह पाल चुके रहते हैं।
भारतीय समाज को अपनी खुद की नजर में अपने आपको विश्व गुरू करार देने में बड़ा मजा आता है। अपने मुंह अपनी तारीफ करने, और अपनी पीठ थपथपाने के लिए किसी सच्चाई की जरूरत नहीं रहती। इसके लिए बस एक बेशर्मी काफी होती है। आज हिन्दुस्तान में गरीबों, दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों, और महिलाओं के खिलाफ जिस परले दर्जे की हिंसा दिखाई पड़ती है, उससे भी बच्चों के मन में बड़ा बुरा असर पड़ता है। बिहार की जिस घटना को लेकर हम यह लिख रहे हैं, उसमें गोली मारने वाले पांच बरस के बच्चे के मन में क्या जाति और धर्म का कोई पूर्वाग्रह भी था। घायल बच्चे ने अस्पताल में यह बताया है कि बैग से पिस्तौल निकालकर गोली मारने वाले लडक़े से उसकी कोई दुश्मनी नहीं थी। जो बच्चा स्कूल में ऐसा कर सकता है उसे अगर घर पर इस तरह पिस्तौल हासिल हो, तो वह घर पर भी किसी को गोली मार सकता है। तमाम परिवारों को ऐसी असुविधाजनक कल्पनाओं की जरूरत है, और इन्हें कैसे-कैसे रोका जा सकता है, उसकी भी। फिलहाल जो लोग इसे पढ़ रहे हैं, उन्हें पिस्तौल से परे भी दूसरी नकारात्मक बातों के बारे में सोचना चाहिए कि वे अपने बच्चों के सामने बेहतर मिसालें कैसे रख सकते हैं।
अभी हमें व्यापार किस्म का एक ऐसा खेल देखने मिला जिसमें बच्चे अलग-अलग देशों को खरीद सकते हैं, और उन देशों के अलग-अलग दाम हैं। अंग्रेजी में व्यापार नाम के खेल को मोनोपोली भी कहा जाता है, और अगर बच्चों की सोच देशों को खरीदने की बना दी जाएगी, तो किसी देश के लोकतंत्र के लिए उनके मन में कोई सम्मान भी नहीं रह जाएगा।