संपादकीय
सुप्रीम कोर्ट ने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाल दिया है। और सात जजों की संविधान-पीठ का एसटी-एससी आरक्षित तबकों के भीतर उपजातियों के आधार पर आरक्षण के भीतर आरक्षण को सही ठहराने वाला यह फैसला देश की व्यवस्था में सामाजिक न्याय का एक नया नजारा पेश कर सकता है। सात में छह जज इस बात के हिमायती थे कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति में सब कैटेगरी के लिए आरक्षण का एक हिस्सा अलग से आरक्षित किया जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई वाली इस बेंच के फैसले में सिर्फ एक जज, जस्टिस बेला त्रिवेदी असहमत थीं। इस मामले की नौबत इसलिए आई थी कि पंजाब, और आन्ध्र सरीखे कुछ राज्यों ने आरक्षित तबकों के भीतर चुनिंदा-पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण का एक हिस्सा अलग से आरक्षित करने का काम किया था, और उनके खिलाफ आए मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने समय-समय पर फैसले दिए थे। 2004 और 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के भीतर आरक्षण को असंवैधानिक करार दिया था, इसलिए अब इस पर एक व्यापक फैसले के लिए अदालत ने इसे सात जजों की संविधान-पीठ को सौंपा था।
इस फैसले में यह कहा गया है कि आरक्षित वर्ग के भीतर भी हर जाति की हालत एक सरीखी नहीं है। अनुसूचित जाति के भीतर बुनकर भी आते हैं, और सफाई कर्मचारी भी। यह बात जाहिर है कि सफाई कर्मचारी दूसरी अनुसूचित जातियों के मुकाबले अधिक खराब हालत में हैं, इसलिए राज्य चाहें तो उपजातियों के आधार पर आरक्षण का कुछ फीसदी हिस्सा उसके भीतर की जातियों के लिए सुरक्षित रख सकते हैं, लेकिन कोई सरकार किसी एक आरक्षित जाति या जनजाति को उसके लिए आरक्षित सीटों को पूरा का पूरा नहीं दे सकेगी। अदालत ने यह भी कहा कि इस तरह का उपजातीय आरक्षण अदालत के विश्लेषण के लिए भी लाया जा सकेगा। यहां पर दो मुद्दे और उठे जो कि इस मामले की बुनियाद नहीं थे, लेकिन उन पर संविधानपीठ के जजों ने अपनी राय रखी है, और उन पर देश में आगे विचार-विमर्श होना चाहिए। इस बेंच में दलित तबके के जज जस्टिस बी.आर.गवई ने यह कहा कि ओबीसी की तरह एसटी-एससी में भी क्रीमीलेयर आना चाहिए, लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि क्रीमीलेयर के पैमाने ओबीसी की तरह रहें या अलग रहें। चार और जजों ने भी एसटी-एससी में क्रीमीलेयर पर टिप्पणी की हैं। क्रीमीलेयर से परे एक दूसरे मुद्दे पर भी कम से कम एक जज की टिप्पणी सामने आई है। जस्टिस पंकज मिथल ने यह राय भी रखी कि अगर एक पीढ़ी को आरक्षण का फायदा मिल चुका है, तो उसकी अगली पीढ़ी को यह फायदा नहीं मिलना चाहिए।
देश में आज जातीय जनगणना, और आरक्षण एक बहुत बड़ा सामाजिक और राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला देश के हर राज्य के सामने एक नई चुनौती पेश कर रहा है कि वहां के राजनीतिक दल अपने प्रदेश की एसटी-एससी जातियों के भीतर किस तरह अधिक कमजोर उपजातियों के लिए आरक्षण का एक हिस्सा आरक्षित कर सकते हैं। यहां पर एक बहुत बड़ी राजनीतिक समस्या और चुनौती यह भी रहेगी कि जो जातियां अपने आरक्षित वर्ग के भीतर सचमुच ही बहुत अधिक कमजोर और गरीब हैं, लेकिन उसके वोटर गिनती में कम हैं, तो वहां की सत्तारूढ़ पार्टी या दूसरे दल आरक्षण में आरक्षण के उसके न्यायोचित अधिकार को किस तरह दे पाएंगे? यह सामाजिक न्याय के पक्ष में तो होगा, लेकिन चुनावी घाटे का भी हो सकता है। और चुनावी घाटा झेलने की कीमत पर शायद ही कोई राजनीतिक दल आज देश में सामाजिक न्याय के हिमायती बनना चाहेंगे। यह तो अलग-अलग प्रदेशों में आने वाले बरसों में सामने आएगा कि सुप्रीम कोर्ट से मिले इस ताजा अधिकार का इस्तेमाल कौन किस तरह करते हैं। कुछ लोगों को यह आशंका भी है कि आरक्षित वर्ग के भीतर इससे एक फूट डाली जा सकेगी, और उसका सामाजिक नुकसान उस वर्ग को होगा। महाराष्ट्र के दलित नेता प्रकाश आंबेडकर सहित कुछ और लोगों ने भी इसका विरोध किया है, लेकिन जब कभी सामाजिक बुनियाद में थोड़ा सा भी बदलाव होता है, तो कई तबकों में बेचैनी होती है, और कई तबके बिना असली बेचैनी के भी एक बेचैन आंदोलन खड़ा करके इस बदलाव में अधिक हिस्सा पाने की कोशिश करते हैं।
फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के इस बहुत ही ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण फैसले में लिखी गई बातों का असर तो राज्यों में दिखेगा, लेकिन उससे परे भी जो दो बातें जुबानी कही गई हैं, उन पर भी देश में एक बहस शुरू हो सकती है। हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम बरसों से लगातार एसटी-एससी तबकों के भीतर क्रीमीलेयर लागू करने की वकालत करते आए हैं, क्योंकि हमारा यह देखा हुआ है कि इन तबकों का आरक्षित हिस्सा कुछ चुनिंदा अधिक ताकतवर परिवार ही बार-बार उठाते हैं, और इनके भीतर के कमजोर हिस्से खाली हाथ रह जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट जजों ने हमारे इस तर्क को इस मामले की सुनवाई में जुबानी ही सही ठहराया है, और हम उम्मीद करते हैं कि देश में इस पर एक बहस शुरू होगी, और इसके लिए जो भी संविधान संशोधन लगेगा, संसद और देश की विधानसभाएं उसके लिए तैयार होंगी क्योंकि आरक्षण जिस न्याय की सोच के साथ लागू किया गया है, वह सोच बिना क्रीमीलेयर के एसटी-एससी आरक्षण में मार खा रही है। दूसरी बात यह भी महत्वपूर्ण है कि आरक्षण का फायदा मोटेतौर पर एक पीढ़ी को ही मिलना चाहिए, और कुछ पैमाने बनाकर इसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी लागू करने से रोकना चाहिए। आज हालत यह है कि एसटी-एससी तबके के लोग सांसद या विधायक बन जाएं, आईएएस या आईपीएस बन जाएं, उनके बच्चे आरक्षण का फायदा पीढ़ी-दर-पीढ़ी पा सकते हैं। इसे क्रीमीलेयर के तहत भी खत्म करना चाहिए, और एक पीढ़ी के बाद उसी व्यक्ति की संतानों के लिए भी खत्म करना चाहिए।
इस फैसले से देश में आरक्षण की असली नीयत को लागू करने की एक संभावना पैदा हो रही है, और मौजूदा आरक्षण-कानून के शब्दों से परे उसकी भावनाओं की बात भी करने का समय अब आ गया है। हमारा ख्याल है कि एसटी-एससी तबकों के भीतर सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले की रौशनी में उपजातीय आरक्षण की तरफ तो राजनीतिक दल बढ़ सकते हैं, लेकिन इसके साथ-साथ क्रीमीलेयर, और एक पीढ़ी की सीमा पर भी बहस चालू होनी चाहिए, जिस तरह कोई फैसला देने का मौका इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के सामने नहीं था, और यह फैसला संसद और विधानसभाओं को ही लेना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)