संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सीखने के लिए तो जामताड़ा सरीखे मुजरिम शहर से भी कामयाबी सीखी जा सकती है
19-Aug-2024 6:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सीखने के लिए तो जामताड़ा  सरीखे मुजरिम शहर से भी कामयाबी सीखी जा सकती है

जिस बांग्लादेश को लेकर आज हिंसा और उपद्रव की खबरें चारों तरफ छाई हुई हैं, अभी कुछ अरसा पहले तक ही वही बांग्लादेश जीडीपी में भी भारत से भी आगे हो गया था क्योंकि वहां पर अब हट चुकी हसीना सरकार ने अपने बेहतर दिनों में लोगों के लिए अंतरराष्ट्रीय रोजगार जुटाए थे। दुनिया भर की चारों तरफ की कंपनियां अपने महंगे कपड़े बांग्लादेश में सिलवाती थीं, जूते और खेल के सामान वहां बनते थे, और बिना किसी अधिक पढ़ाई-लिखाई के लोगों को मामूली ट्रेनिंग देकर बांग्लादेश ने आम लोगों के लिए अभूतपूर्व रोजगार जुटा दिए थे। भारत में भी कई जगह इस तरह की कहानियां सामने आती हैं। और जरूरी नहीं कि कामयाबी की कहानियां सिर्फ अच्छी बात की हों, झारखंड के जामताड़ा नाम के गांव-कस्बे में हजारों या दसियों हजार लोग टेलीफोन पर जालसाजी के धंधे में ऐसे लगे कि बात की बात में गांव से बेरोजगारी खत्म हो गई, और हर कोई साइबर-मुजरिम बन गए। अब हरियाणा के मेवात इलाके के कुछ गांवों का नाम आ रहा है कि उन्होंने जामताड़ा को भी पीछे छोड़ दिया है। अभी पिछले पखवाड़े ही पश्चिम भारत के एक किसी कस्बे की रिपोर्ट आई थी कि किस तरह वहां एक पूरा का पूरा कस्बा शादी के उद्योग में तब्दील हो गया है, और देश भर से लोग वहां शादी के लिए पहुंचते हैं, वहां विवाह मंदिर पंडित से लेकर वकील तक, फोटोग्राफर से लेकर वीडियोग्राफर तक सबका इंतजाम रखते हैं, और कानूनी रूप से जांच के बाद शादी के सुबूत देने वाले संस्कार करवाए जाते हैं, और कम खर्च में शादी के सभी विधि-विधान वैधानिक जरूरतों के साथ-साथ पूरे हो जाते हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि किस तरह वह कस्बा एक-एक दिन में सैकड़ों शादियां करवाता है। अभी मध्यप्रदेश के चंबल इलाके की एक रिपोर्ट एक अखबार भास्कर में आई है कि किस तरह डकैतों के आतंक वाले इस इलाके में अब बड़ी-बड़ी कंपनियों ने इतनी फैक्ट्रियां लगा ली हैं कि रात की शिफ्ट में भी अब वहां महिलाएं पूरी हिफाजत के साथ काम करती हैं, और सबकी अच्छी खासी कमाई हो रही है। कई फैक्ट्रियों में पुरूषों से ज्यादा महिला कर्मचारी हो गई हैं। यह मामला करीब-करीब बांग्लादेश जैसा दिख रहा है, और इस इलाके में अगर मामूली टेक्नॉलॉजी ट्रेनिंग के साथ काम करने की संस्कृति इसी तरह बढ़ गई तो कोई हैरानी की बात नहीं है कि यहां के कारखानों को सिलाई या दूसरे कामों के अंतरराष्ट्रीय ऑर्डर भी मिलने लगें। भारत में मजदूरी अभी भी दुनिया के कई देशों के मुकाबले सस्ती है, बिजली भी भरपूर है, और सौर ऊर्जा का भविष्य दुनिया में सबसे अच्छा यहीं पर रहने वाला है।

देश के अलग-अलग प्रदेशों को जगह-जगह बिखरे ऐसे गांवों की कामयाबी का अध्ययन करना चाहिए। देश के प्रमुख शैक्षणिक संस्थान, आईआईएम, और आईआईटी भी इनका अध्ययन कर सकते हैं कि इन गांव-कस्बों में ऐसा क्या था कि कोई कारोबार यहां उस ऊंचाई पर पहुंच गया जहां देश की बाकी जगहों को वैसी कामयाबी नहीं मिली। हमें याद है कि जब छत्तीसगढ़ नया राज्य बना तब एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनाते हुए इस संपादक ने राजधानी रायपुर के जिले के ही कुछ गांवों में जाकर शूटिंग की थी, और उनमें से एक गांव ऐसा था जिसमें करीब साढ़े चार सौ घरों में हाथकरघे लगे थे, उन्हें ओडिशा के व्यापारी आकर धागा, रंग, और डिजाइनें दे जाते थे, और विश्वविख्यात संबलपुरी साडिय़ां छत्तीसगढ़ के इस गांव में भी बनती थीं। राज्य बन ही रहा था, और उस वक्त यहां बिजली की भारी कमी थी, और छोटे-छोटे घरों में लगे हुए हाथकरघे पर काम करने के लिए एक ट्यूबलाईट की भी बिजली नहीं मिलती थी। उस गांव के जितने लोगों से बात हुई थी, उन्हें छत्तीसगढ़ सरकार से या यहां के किसी बैंक से कोई भी मदद नहीं मिली थी, लेकिन गांव इतना आत्मनिर्भर था कि कैसा भी अकाल पड़े, वहां के लोग काम करने बाहर नहीं जाते थे।

किसी गांव या इलाके की तस्वीर बदलने के लिए जादू की कोई छड़ी नहीं लगती। एक अकेले वर्गीज कुरियन ने गुजरात के आनंद में देश की सबसे बड़ी सहकारी डेयरी खड़ी कर दी, और इसके साथ-साथ उन्होंने दुग्ध उत्पादनों का सबसे ब्रांड, अमूल भी खड़ा कर दिया। उन्हें देश में श्वेत क्रांति का जनक कहा जाता है, और 1949 में डेयरी टेक्नॉलॉजी के इंजीनियर कुरियन को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने गुजरात में दुग्ध उत्पादकों के सहकारी आंदोलन का प्रयोग करने के लिए भेजा था। उसके बाद से इस एक अकेले आदमी ने भारत सरकार से मिले अधिकारों की बदौलत हिन्दुस्तान में दूध के कारोबार का नक्शा ही बदल दिया। केरल का यह आदमी गुजरात के रास्ते देश के हर घर में पहुंच गया। आज देश का शायद ही कोई ऐसा घर हो जो अमूल दूध से लेकर चॉकलेट और आइस्क्रीम तक किसी न किसी चीज का इस्तेमाल न करता हो। दूध उत्पादकों के सहकारी आंदोलन की अंतरराष्ट्रीय मिसाल कायम करने वाले कुरियन को मैग्सेसे पुरस्कार, पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण सहित खाद्यान्न और किसानी के जाने कितने ही अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिले।

हमारा मानना है कि अगर कोई सचमुच के कल्पनाशील व्यक्ति हों, तो वे सरकार या समाज से मिले सहयोग और प्रोत्साहन से किसी इलाके की संभावनाओं को आंककर वहां के लोगों को बढ़ावा देकर उसे आसमान तक पहुंचा सकते हैं। हर प्रदेश में ऐसी संभावनाएं रहती हैं, और यह जरूरी नहीं है कि ये कल्पनाशील लोग सरकार के भीतर के ही हों। आज अमरीका अगर दुनिया का सबसे कामयाब और ताकतवर देश बना हुआ है, तो वह इसलिए नहीं है कि वहां की सरकार खुद तमाम काम करने में भरोसा रखती है। अमरीकी सरकार ने दुनिया भर से वहां पहुंचे हुए लोगों का हौसला जितना बढ़ाया है, उन्हें काम करने का मौका बिना सरकारी दखल और बिना सरकारी उगाही के जिस हद तक दिया है, उससे ऐसे तमाम लोग खुद भी आगे बढ़े, और उनकी कामयाबी में टैक्स के रास्ते सरकार का अपना हिस्सा तो रहता ही है। इसलिए अमरीकी सरकार ने खुद अधिक काम करने के एकाधिकार के बजाय लोगों को खुली छूट दी कि वे अपनी कल्पनाओं को आसमान तक पहुंचाएं। और इसके लिए अमरीका ने दुनिया भर से वहां पहुंचे हुए तमाम लोगों को बराबरी से बढ़ावा दिया, तब जाकर ऐसी बेमिसाल कामयाबी हासिल हो सकी।

भारत के अलग-अलग प्रदेश भी यह सोच सकते हैं कि क्या उनके यहां राजस्थान के कोटा जैसा कोई ट्रेनिंग कारोबार खड़ा हो सकता है, या हस्तशिल्प और हाथकरघा का कोई नया केन्द्र बन सकता है, या अंतरराष्ट्रीय रोजगार के लायक लोगों के शिक्षण-प्रशिक्षण का केन्द्र खड़ा किया जा सकता है? सरकार का अपना ढांचा अगर इतना कल्पनाशील न भी हो पा रहा है, तो भी उसे चाहिए कि वह निजी क्षेत्र को, सहकारी क्षेत्र को, या देश-विदेश के पूंजीनिवेशकों को लाकर अपने प्रदेश में कुछ ऐसा अनोखा काम करवाए कि जिससे इलाके की तस्वीर बदल जाए। अब अगर कोई कस्बा सिर्फ शादी उद्योग चलाकर अरबों रूपए सालाना कमा सकता है, तो फिर ऐसी कई दूसरी कल्पनाएं भी शक्ल ले सकती हैं।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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