विचार / लेख
-अपूर्व
कभी अमरनाथ से कटरा जा रही बस के ड्राइवर सलीम शेख गुजरात के तीर्थ यात्रियों को आतंकी हमले से बचाते हैं, तो कभी आशिक अली गंगा में डूबने से कावडिय़े को बचाते हैं। कोरोना के दौरान मुंबई में मुस्लिम बहुल बस्ती में हिन्दू बुजुर्ग की मौत होने के बाद पड़ोसी मुस्लिमों ने पूरे हिंदू रीति रिवाज से अंतिम संस्कार करवाया।
दरअसल, ये खबरें आम हैं। रोज की बात है पर आज का मीडिया इन्हें तवज्जो नहीं देता क्योंकि इसमें प्यार है।
आपको याद है शैल देवी मुजफ्फरपुर की जिन्होंने कई मुस्लिम परिवार की जान बचाई थी और तत्कालीन सीएम मांझी ने उन्हें झाँसी की रानी कह कर प्रशंसा की, पुरस्कृत किया था।
उत्तराखंड के डोईवाला(देहरादून) के हिंदू और मुस्लिम परिवार ने हिमालयन अस्पताल में भर्ती एक-दूसरे के बेटे को किडनी देते हैं।
ऐसी खबरें ही नहीं इससे ज़्यादा प्यार है पर जिस मीडिया को आप देखते पढ़ते हैं उसके लिए ये खबरें नहीं?
वैसे ठीक भी है जो प्यार-दोस्ती हमेशा रही हो और हर समय कायम हो वो खबर क्यों बने?
इतिहास के पन्ने पलटिये ये प्यार हर पन्ने में दर्ज है ।
प्रेमचंद जब अपने अंतिम दिनों में तबियत खराब होने के चलते लखनऊ इलाज के लिए पहुंचे तो कुछ दिन अपने दोस्त कृपा शंकर निगम के घर रुके। इसके बाद अमीनाबाद के सूर्य होटल चले गए।
यहाँ पता चला उन्हें ‘लिवर सिरोसिस’ है।
काफी गंभीर हो गए थे प्रेमचंदजी, उन्हें इलाज के साथ देखरेख की भी उतनी ही जरूरत थी ।
लखनऊ में ही प्रेमचंद के एक दोस्त थे, आर्टिस्ट अब्दुल हकीम साहब। उनका घर बहुत छोटा था पर दिल बड़ा वो मुंशी प्रेमचंद जी को होटल से जबरदस्ती आग्रहपूर्वक, अधिकार से अपने घर ले आये।
प्रेमचंद के सुपुत्र अमृत राय ने लिखा है कि ‘...अब्दुल हकीम साहब ने बिल्कुल अपने सगे भाई की तरह उनकी सेवा की, कमोड तक साफ किया, धुन्नू [बड़े बेटे] को सुला देते और खुद रात-रात भर जागते मगर चेहरे पर शिकन नहीं।
अब्दुल हकीम साहब और प्रेमचंद जी का प्यार इस मिट्टी में शामिल है, ये हमेशा महकता रहेगा और ये मोहब्बत बनी रहेगी।