संपादकीय
हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनावी नतीजे बड़े दिलचस्प हैं। जम्मू-कश्मीर में 2014 के बाद अभी विधानसभा चुनाव हुए हैं, और वहां इस बीच संवैधानिक और राजनीतिक स्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं। इस बार वहां की स्थानीय पार्टी नेशनल कांफ्रेंस के साथ कांग्रेस के गठबंधन में 48 सीटें पाकर 90 सीटों की विधानसभा में बहुमत हासिल किया है, दूसरी तरफ 2014 के मुकाबले भाजपा ने भी चार सीटें अधिक जीती हैं। नेशनल कांफ्रेंस को पिछले 2014 के चुनावों के मुकाबले 27 सीटें अधिक मिली हैं जो कि सीधे-सीधे महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के नुकसान से हासिल हुई हैं। महबूबा की पार्टी पिछले चुनाव के मुकाबले 25 सीटें खो चुकी हैं, और उसे कुल तीन सीटें मिली हैं। दिलचस्प बात यह भी है कि भाजपा ने अपनी पिछली 25 सीटों की गिनती बढ़ाकर 29 सीटें हासिल की हैं, और कांग्रेस ने पिछली 12 सीटों में से 6 सीटें खो दी हैं। एक दिलचस्प बात यह भी है कि कश्मीर में जितने अलगाववादी और पिछले आतंकी या उग्रवादी चुनाव लड़ रहे थे, सारे के सारे चुनाव हार गए। लोगों को याद रखना चाहिए कि जब कश्मीर से धारा 370 खत्म की गई थी, तो महबूबा मुफ्ती का बयान था कि इससे कश्मीर में आग लग जाएगी, लेकिन कश्मीर में एक पत्थर भी नहीं चला था। और न सिर्फ आतंक की घटनाएं, बल्कि पथराव की लंबी परंपरा भी खत्म हो गई थी। फौजी की मौजूदगी कश्मीर में हमेशा से रहती आई है, और उसके मौजूद रहते हुए भी आतंकी घटनाएं होती थीं, जो कि अब कम से कम कश्मीर-घाटी में न के बराबर हो गई हैं, शहरों में नागरिकों का पथराव खत्म हो गया। यह एक अलग बात है कि जम्मू का इलाका जो कि आतंकियों के असर के बाहर था, वहां आतंकियों के हमले बढ़े हैं। लेकिन धारा 370 खत्म करने के बाद से अब तक, और इस चुनाव के मतदान तक यह एक बड़ी कामयाबी दिख रही है। चाहे सरकार नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस की बन रही हो, भाजपा ने सीटें बढ़ाई हैं, और पहले के मुकाबले वोट भी बहुत अधिक गिरे हैं। इस तरह चुनाव में पार्टियों, अलगाववादियों, भूतपूर्व आतंकियों, और जनता की बढ़ी हुई भागीदारी लोकतंत्र, और केन्द्र की मोदी सरकार की एक बड़ी कामयाबी रही। भाजपा किसी पार्टी से मिलकर सरकार चाहे न बना पा रही हो, लेकिन लोकतांत्रिक चुनावों का इतनी कामयाबी से होना छोटी बात नहीं है। जब पूरी दुनिया से मोदी सरकार ने पर्यवेक्षकों को इस चुनाव को देखने के लिए न्यौता दिया था, और कई देशों के पर्यवेक्षक कश्मीर चुनाव में पहुंचे भी थे, तो इससे कश्मीर के लोकतांत्रिक स्वरूप को एक नई अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता भी मिली है।
अब उस हरियाणा की बात की जाए जो कि देश के बाकी हिस्से के कुछ अधिक करीब है, और जिस पर लोगों की नजरें लगी हुई थीं क्योंकि वहां भाजपा का राज चले आ रहा था, और इस बार तमाम एक्जिट पोल वहां कांग्रेस की भारी-भरकम जीत की भविष्यवाणी कर चुके थे, और भाजपा को साफ-साफ हरा चुके थे। ऐसे हरियाणा में भाजपा ने अकेले अपने दम पर, बिना किसी सहयोगी दल के, सरकार बनाने की जरूरत से दो सीटें ज्यादा पाकर भाजपा की एक बड़ी जीत साबित की है। जिस सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ जनता की नाराजगी की चर्चा थी, वह भाजपा हरियाणा में तीसरी बार सरकार बना रही है, और सत्तारूढ़ रहते हुए भी उसने 8 सीटें अधिक हासिल की हैं, और उसे किसी सहयोगी दल की जरूरत भी नहीं है। यह एक अलग बात है कि पिछले कार्यकाल में उसके गठबंधन के साथी दल जेजेपी ने अपनी तमाम 10 सीटें खो दी हैं, और 8 सीटें भाजपा की बढ़ गई हैं। कांग्रेस पार्टी ने हालांकि 6 सीटें अधिक हासिल की हैं, लेकिन वह सरकार बनाने से कोसों दूर है। और अब देश में चर्चा यह हो रही है कि कांग्रेस के पक्ष में एक्जिट पोल एकतरफा क्यों जा रहे थे, और वह जीत से इतने पीछे क्यों धकेल दी गई?
चुनाव से 6 महीने पहले भाजपा ने अपना मुख्यमंत्री बदल दिया था, और मनोहरलाल के खिलाफ जितनी भी नाराजगी रही होगी, वह अगले मुख्यमंत्री नायब सैनी के हिस्से कम आई है। वोटरों को साढ़े चार बरस के, और उसके पहले के कार्यकाल के भी मुख्यमंत्री रहे मनोहरलाल को बेदर्दी से हटाए जाते देखकर एक तसल्ली मिली होगी, और सत्ता से वोटरों की नाराजगी इन 6 महीनों में घट गई दिखती है। दूसरी तरफ कांग्रेस पार्टी मतदान के दिन तक पार्टी के दो नेताओं, भूतपूर्व मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा, और सांसद कुमारी सैलजा के बीच कुकुरहाव चलते रहा। इन दोनों के बीच बातचीत के रिश्ते भी नहीं रह गए थे, और चुनावी मंच पर राहुल गांधी को इन दोनों के हाथ एक साथ पकडक़र एकता का एक दिखावा भी करना पड़ा था। चर्चा यह रही कि सैलजा कांग्रेस छोडक़र भाजपा जा सकती हैं, वे जाहिर तौर पर चुनाव प्रचार से दूर रहीं, और हुड्डा बिना विधानसभा जीते मुख्यमंत्री बनने की हड़बड़ी में थे। हरियाणा में और भी बहुत सारे मुद्दे रहे, कुछ किसानों के, कुछ जातीय समीकरण के, और कुछ परिवारवाद और मौजूदा विधायकों की टिकट काटने के। हम बहुत बारीक विश्लेषण में जाना नहीं चाहते, लेकिन यह बात साफ है कि भाजपा की रणनीति इनमें से अधिकतर मुद्दों पर कामयाब रही, और उसका यह तीसरा कार्यकाल पिछली बार से 20 फीसदी अधिक विधायकों के साथ शुरू हो रहा है जो कि किसी भी पार्टी के लिए बहुत बड़ा सर्टिफिकेट है।
अब हरियाणा में कांग्रेस के हाथ आती दिख रही सरकार इस तरह फिसलकर निकल जाना कांग्रेस के लिए आत्ममंथन का एक बड़ा मौका है। दोनों पार्टियों के बीच एक बड़ा फर्क यह है कि भाजपा तकरीबन पूरे देश में अपने प्रदेश के नेताओं पर एक फौलादी पकड़ रखती है, मोदी और शाह की लीडरशिप के मुकाबले किसी नेता का कोई वजन नहीं है। नतीजा यह होता है कि भाजपा जब जिसे चाहे उसे नेता बना सकती है, जब जिसे चाहे उसे किसी ओहदे से हटा सकती है। उसने राजस्थान में पहली बार के विधायक को मुख्यमंत्री बना दिया, और देश के अपने एक सबसे वरिष्ठ विधायक, और एक सबसे वरिष्ठ मंत्री, बृजमोहन अग्रवाल को छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल से हटाकर महज सांसद बनाकर रख छोड़ा है। कांग्रेस के पास ऐसी कोई सहूलियत नहीं है। उसने छत्तीसगढ़ में अपने घरेलू वायदे को पूरा करके टी.एस.सिंहदेव को ढाई बरस के बाद मुख्यमंत्री बनाने की हिम्मत भी नहीं दिखाई, क्योंकि वह भूपेश बघेल के असाधारण दबाव तले दबी हुई थी। हो सकता है कि कांग्रेस इतने कम राज्यों में सत्ता पर रह गई है कि उसकी लीडरशिप का वजन खत्म हो चुका है, और उसके क्षेत्रीय जागीरदार जरूरत से अधिक मजबूत हो गए हैं। हरियाणा में भी कुछ ऐसा ही दिखता है जहां पर उसके पिछले मुख्यमंत्री भूपिन्दर सिंह हुड्डा कांग्रेस के दामाद रॉबर्ट वाड्रा के साथ जमीनों के कथित घोटालों में फंसे हुए हैं, और ईडी की जांच के घेरे में भी हैं, और ऐसा लगता है कि ऐसे में पार्टी के लिए हुड्डा को खफा करना मुमकिन भी नहीं था। कांग्रेस जब तक अपना खुद का घर नहीं सुधार लेती, तब तक वह वोटरों के बीच अधिक विश्वसनीयता नहीं पा सकती। पिछले आम चुनाव में उसकी सीटें जरूर बढ़ गई हैं, एनडीए और भाजपा की सीटें घट गई हैं, लेकिन कांग्रेस सत्ता से कोसों दूर भी रह गई है। सीट और वोट में चढ़ाव-उतार तब तक अधिक मायने नहीं रखते जब तक कि पार्टी सरकार बनाने के लायक न हो जाए। कांग्रेस को पहले तो अपने आपको एक मजबूत पार्टी बनकर दिखाना होगा, तभी जाकर वोटरों के बीच उसे मजबूत सरकार बनाने की संभावना वाली माना जाएगा।