संपादकीय
त्रयंबक शर्मा का कार्टून
देश के एक सबसे प्रतिष्ठित उद्योगपति रतन टाटा के गुजरने से एक बार फिर भारत की कार्पोरेट दुनिया और उसके सामाजिक सरोकारों पर चर्चा शुरू हुई है। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि देश में समाज सेवा करने में सबसे आगे दो कारोबारी रहे, एक पारसी रतन टाटा, और एक मुस्लिम अजीम प्रेमजी। कहने को कुछ दूसरे बड़े उद्योगपति भी जेब की चिल्हर सरीखी रकम दान में देते हैं, लेकिन अपनी दौलत का एक बड़ा हिस्सा, कमाई का एक बड़ा हिस्सा समाज सेवा में देने का काम गिने-चुने हिन्दुस्तानी कारोबारी करते हैं, और उनमें ये दो नाम सबसे ऊपर हैं। रतन टाटा और अजीम प्रेमजी दोनों की निजी जिंदगी की सादगी की चर्चा भी देखने लायक है। और अपनी बेतहाशा कमाई, कुबेर सरीखी दौलत का समाज के लिए इस्तेमाल उनके लिए सबसे बड़ी बात है। दूसरों के लिए कुछ करने को अपनी जिंदगी का मकसद बना लेना, दुनिया में कई और कारोबारियों ने भी किया है, और कुछ सबसे बड़े कारोबारियों ने यह अभियान भी चलाया है कि दूसरे अतिसंपन्न लोग अपनी आधी दौलत समाज के लिए दें। भारत में यह अभियान इक्का-दुक्का लोगों को ही छू पाया।
लेकिन इस चर्चा से थोड़ा सा परे एक दूसरी खबर भी आज की है कि महीने भर बाद रिटायर होने वाले सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड़ कुछ बेचैन हैं। उनका कहना है कि कार्यकाल खत्म हो रहा है इसलिए मेरा मन भविष्य और अतीत के बारे में आशंकाओं और चिंताओं से ग्रस्त है। उन्होंने अभी कानून के छात्रों के बीच कहा कि वे अपने को ऐसे सवालों से घिरे पा रहे हैं कि क्या उन्होंने वह सब हासिल किया जो करने का लक्ष्य रखा था? इतिहास उनके कार्यकाल का कैसा आंकलन करेगा? क्या वे चीजों को कुछ अलग तरीके से कर सकते थे? और क्या वे जजों और कानून के पेशेवरों की भावी पीढिय़ों के लिए कोई अच्छी विरासत छोडक़र जा रहे हैं? उन्होंने खुद ही इन सवालों का एक जवाब पेश किया है कि अधिकांश सवालों के जवाब उनके काबू से बाहर है, लेकिन उन्हें बस इतनी तसल्ली है कि पिछले दो बरस से सीजेआई रहते हुए वे हर दिन देश की सेवा पूरी लगन से करते रहे।
रतन टाटा और डी.वाई.चन्द्रचूड़ के कामकाज और व्यक्तित्व में कुछ भी एक सरीखा नहीं है लेकिन दोनों में एक चीज है कि अपने काम को उन्होंने बड़ी मेहनत से किया, और अपने काम को लेकर उनके मन में सवाल भी उठते रहे, जो कि किसी भी जिम्मेदार व्यक्ति के मन में कभी बंद नहीं होने चाहिए। हमारा मानना है कि जिंदगी के किसी भी दायरे में ऊपर पहुंचने वाले लोगों की अपनी सोच और मेहनत उनकी कामयाबी में एक बड़ा योगदान देती है। मेहनत तो मजदूर सबसे अधिक करते हैं, लेकिन ऊपर पहुंचने की जगहों पर पहुंचने वाले लोग जब एक मौलिक सोच के साथ, दूरदर्शिता और अनुशासन से मेहनत करते हैं, तो वह कुछ अलग रंग लाती है। इस मेहनत का एक हिस्सा लोगों को अपने सहयोगी तय करने में लगाना पड़ता है क्योंकि पिकासो या मकबूल फिदा हुसैन तो बिना सहयोगी के अकेले अपनी पेंटिंग बना सकते हैं, लेकिन कोई कारोबारी, समाजसेवी, या नेता ऐसा नहीं कर सकते। जहां कहीं एक टीम की जरूरत पड़ती है, वहां मुखिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती काबिल सहयोगी छांटने की रहती है। हमारा एक मोटा अंदाज यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने सबसे करीबी आधा दर्जन लोगों की औसत प्रतिभा से अधिक आगे नहीं बढ़ पाते। सबसे काबिल नेता या कारोबारी भी गलत सहयोगी छांटकर गहरे गड्ढे की तरफ बढ़ सकते हैं। देश के आज के सबसे बड़े कारोबारी भी अपनी कंपनियों में बहुत काबिल सहयोगियों की वजह से ही कंपनी को कामयाब कर पाते हैं। यही हाल राजनीति में रहता है। आज देश या किसी प्रदेश में कोई नेता बहुत कामयाब होते हैं, तो वे अपने राजनीतिक सहयोगियों, प्रशासनिक और दूसरे रणनीतिक सहयोगियों को छांटने की कामयाबी के बाद ही बाकी दायरे में कामयाबी की तरफ बढ़ सकते हैं।
इस बातचीत को हम जिंदगी के कुछ दूसरे दायरों की तरफ ले चलें, तो एक फिल्म निर्देशक अपने इर्द-गिर्द के आधा दर्जन सबसे करीबी लोगों को छांटकर ही सफल या असफल होते हैं। लेखक, संगीतकार, गीतकार, फोटोग्राफर, और कलाकार, ऐसे लोगों को छांटने में चूक करने वाले लोग कभी भी शानदार फिल्म नहीं बना पाते। ऐसा ही किसी टीवी चैनल, या अखबार के साथ भी होता है। कोई भी संपादक उतना ही अच्छा काम कर पाते हैं जितना कि उनके आसपास के आधा दर्जन लोगों के कामकाज का औसत रहता है। एक गलत सहयोगी को छांटना कुछ उसी तरह का रहता है जैसा कि कल एक मालवाहक गाड़ी में लदे हुए 20-25 लोगों का नहर में गिरना रहा क्योंकि ड्राइवर नशे में था। किसी सफर की कामयाबी इस पर टिकी रहती है कि गाड़ी कैसी है, और ड्राइवर कैसा है, साथ ही इस पर भी कि रास्ता कौन सा छांटा गया है। रतन टाटा उस पारसी समुदाय के थे जो कि अपने लोगों को आगे बढ़ाने के लिए जाना जाता है। लेकिन हमें टाटा की सबसे कामयाब इंडस्ट्री टाटा स्टील में उसके मुखिया एक दक्षिण भारतीय लंबे समय से दिखते चले आ रहे हैं। बड़ा उद्योग समूह अपनी अलग-अलग यूनिट के लिए कैसे लोगों को छांटता है, इस पर भी उसकी कामयाबी टिकी रहती है। लेकिन इसके साथ-साथ जो सवाल जस्टिस चन्द्रचूड़ के दिमाग में उठ रहा है कि इतिहास उनका मूल्यांकन कैसे करेगा, यह सवाल ऊंचाई पर पहुंचे हुए हर व्यक्ति के दिमाग में रहना चाहिए। इतिहास सिर्फ बड़े व्यक्तियों का लिखा जाता है, इसलिए बड़े व्यक्ति इतिहास लेखकों की अधिक खुर्दबीनी नजरों तले भी रहते हैं। और ऐसे में उन्हें अपने सामाजिक सरोकारों की बात भी सोचनी चाहिए, लोगों से अपने व्यवहार में इंसानियत के बेहतर मूल्यों को जिंदा रखना चाहिए, और बेहतर सहयोगी छांटने चाहिए। राजनीति, समाज, या कारोबार के अगुवा और मुखिया लोग सहयोगियों की अपनी पसंद की वजह से ही इतिहास में अच्छे या बुरे व्यक्ति की तरह दर्ज होते हैं। ऊंचे ओहदे पर पहुंचे हुए हर व्यक्ति को इस बारे में सबसे अधिक सावधान रहना चाहिए। दुनिया में लगातार ऐसी मिसालें सामने आती रहती हैं कि किन और कैसे सहयोगियों की वजह से कोई व्यक्ति अपनी संभावनाओं से बहुत पीछे रह गए।