संपादकीय
हिन्दुस्तान में राज्य सरकारों के कई तरह की योजनाओं के ढांचे खड़े हो जाते हैं जिन्हें बनाने में नेता, अफसर, और ठेकेदार तीनों की अपार दिलचस्पी रहती है। लेकिन इसके बाद उन्हें चलाने में कमाई रहने के बावजूद भी दिलचस्पी खत्म होने लगती है, और ये ढांचे कई जगह सरकारी भ्रष्टाचार के स्मारक बने सरकारों का ही मुंह चिढ़ाते रहते हैं। शहरों में जगह-जगह स्मार्ट सिटी के नाम पर अंधाधुंध खर्च होता है, कम से कम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में यह साफ देखने मिलता है कि तकनीकी विशेषज्ञता की कोई जगह नहीं रहती है, स्थानीय जरूरतों की परवाह नहीं रहती, और एक बार फिर नेता-अफसर, और ठेकेदार-सप्लायर मिलकर यह तय कर लेते हैं कि पैसा कैसे डुबोया जाए, और अगर वह डीएमएफ, कैम्पा, या सीएसआर जैसे किसी मद का है, तो फिर उसे अधिक तेजी से डुबाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के दूसरे सबसे बड़े शहर, बिलासपुर में दो सौ करोड़ की लागत से एक सुपर स्पेशिलिटी अस्पताल बनकर तैयार हुआ है जिसमें बहुत किस्म की आधुनिक चिकित्सा का इंतजाम होने की बात सरकार ने की है। प्रधानमंत्री इस अस्पताल का ऑनलाईन लोकार्पण करने जा रहे हैं। ऐन इसी समय पिछले कई महीनों से लगातार छत्तीसगढ़ के अखबार इन खबरों से पटे हुए हैं कि किस तरह राज्य के सरकारी अस्पतालों की हजारों मशीनों पर मरीजों की जांच इसलिए नहीं हो रही है कि इन मशीनों में लगने वाले रसायन नहीं खरीदे गए हैं। कई जगहों पर मशीनें बक्सों में बंद हैं, और करोड़ों की लागत आ जाने के बाद भी उन्हें शुरू नहीं किया गया है। कहीं मशीन है तो चलाने वाले तकनीकी कर्मचारी नहीं है, कहीं कर्मचारी हैं तो डॉक्टर नहीं है। अखबारी खबरों में अफसरों के बयान छपते हैं कि दवाई खरीदने की प्रक्रिया शुरू की गई है, रसायन के लिए टेंडर किया गया है, मशीनों के रख-रखाव के लिए कंपनियों से अनुबंध किया जाएगा। सरकार का पूरा का पूरा सिलसिला ऐसा लगता है कि जैसे किसी पुल के निर्माण को छह महीने रोकने से कोई फर्क नहीं पड़ता, मरीज की जांच, इलाज, उसकी दवा छह महीने बाद आने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सरकार की नजर में मरीज और ईंट की जिंदगी में कोई अधिक फर्क नहीं दिखता। सरकारी अस्पतालों की हर मशीन में रसायनों की खपत के आंकड़े विभाग के पास रहते हैं, और खत्म होने के पहले ही अगली सप्लाई का इंतजाम आसानी से किया जा सकता है, लेकिन तड़पते और भटकते मरीजों की तकलीफ से सरकार के माथे पर कोई शिकन नहीं दिखती।
सरकारी मेडिकल कॉलेजों में चिकित्सा-शिक्षकों की कुर्सियां खाली हैं, और इन्हें भरने का कोई ठिकाना नहीं है। फॉर्मेसी और नर्सिंग कॉलेजों की गड़बडिय़ां खबरों में बनी हुई हैं, जाहिर है कि राज्य का स्वास्थ्य का ढांचा कमजोर पड़ा हुआ है, और अधिक कमजोर होने जा रहा है। सरकारी डॉक्टरों की प्राइवेट प्रेक्टिस पर लगी रोक का कोई असर नहीं है, और डॉक्टरों के संगठन अपने सदस्यों की मोटी कमाई के इस धंधे को बचाने के लिए सरकार के खिलाफ खड़े हो रहे हैं। चिकित्सा-शिक्षा चाहे वह सरकारी मेडिकल कॉलेजों की हो, चाहे निजी चिकित्सा महाविद्यालयों की, विवादों से घिरी हुई हैं, और अभी निजी कॉलेजों में एनआरआई कोटे से फर्जी दाखिले देने का एक बहुत बड़ा भ्रष्टाचार सामने आया है जिसमें सरकार के कुछ लोगों की भागीदारी भी जाहिर तौर पर दिख रही है। सरकार के अपने स्वास्थ्य ढांचे के चरमराने के अलावा दूसरी दिक्कत यह है कि निजी अस्पतालों को सरकारी बीमा योजना के तहत होने वाला भुगतान बढक़र सैकड़ों करोड़ पार कर चुका है, और अब बहुत से निजी अस्पताल इस सरकारी योजना के तहत पहुंचने वाले गरीब मरीजों को वापिस भेजने लगे हैं। मरीजों के बदन की सांसों को स्कूलों में छात्राओं में बंटने वाली साइकिलों की तरह कबाड़ में धर दिया गया है, और इन साइकिलों की तरह ही गरीब मरीजों के बदन में टूट-फूट चल ही रही है।
हमारा ख्याल है कि किसी भी सत्तारूढ़ पार्टी के दुबारा जीतकर आने में सबसे बड़ा योगदान, या इसमें सबसे बड़ा अड़ंगा पटवारी-तहसील के स्तर पर जनता को होने वाली दिक्कत का रहता है, और सरकारी इलाज का रहता है। जब गरीब बीमार होकर सरकारी इंतजाम तक पहुंचते हैं, या सरकारी बीमा कार्ड लेकर निजी अस्पताल पहुंचते हैं, और उन्हें वहां इलाज नहीं मिलता, तो अगले चुनाव का उनका वोट तय हो जाता है। उसके हाथ में और तो कुछ नहीं रहता, अगला चुनाव ही रहता है। यही वजह है कि हम एक के बाद दूसरे स्वास्थ्य मंत्री को चुनाव हारते देखते हैं। जोगी सरकार के समय स्वास्थ्य मंत्री रहे के.के.गुप्ता चुनाव हारे, कृष्णमूर्ति बांधी चुनाव हारे, अमर अग्रवाल, टी.एस.सिंहदेव जैसे कई लोग स्वास्थ्य मंत्री रहने के बाद चुनाव हारे। इसकी एक वजह हमें यह लगती है कि इनमें से कोई भी इस विभाग को ठीक से नहीं चला पाए, गरीब मरीजों की आह के असर पर चुनाव हार जाने तक इन नेताओं को भी भरोसा नहीं रहा होगा। हो सकता है कुछ स्वास्थ्य मंत्री इस मंत्रालय को संभालने के बाद जीत गए हों, और गरीब-कमजोर मरीजों की आह ने हिसाब कुछ देर से चुकता किया हो।
छत्तीसगढ़ में जिस दंतेवाड़ा जिले को डीएमएफ में प्रदेश का सबसे अधिक पैसा मिलता है, उन सैकड़ों करोड़ रूपए सालाना से बनाए, सुधारे, और संवारे गए सरकारी अस्पतालों का हाल यह है कि कल से यह अस्पताल खबरों में है कि वहां ऑपरेशन थियेटर की सफाई किए बिना आपराधिक लापरवाही से गरीब आदिवासी मरीजों की आंखों का थोक में ऑपरेशन कर दिया गया, और संक्रमण से दस लोगों की आंखें खतरे में आ गई हैं। अब मुख्यमंत्री के कहने पर स्वास्थ्य मंत्री राजधानी के अस्पताल जाकर इन मरीजों को देख जरूर आए हैं, और डॉक्टर को निलंबित कर दिया है, लेकिन सवाल यह उठता है कि जिन अस्पतालों को करोड़ों रूपए अतिरिक्त पाने की डीएमएफ-सहूलियत हासिल है, वहां भी अगर इस दर्जे की लापरवाही है, तो फिर प्रधानमंत्री के हाथों दो सौ करोड़ के अस्पताल का उद्घाटन हो, या चार सौ करोड़ के अस्पताल का, उसे चलाना तो इसी सरकार के लोगों को है। लोगों को याद होगा कि जिस बिलासपुर में इस अस्पताल का उद्घाटन कल होगा, उसी बिलासपुर में एक सरकारी नसबंदी शिविर में दर्जन भर गरीब महिलाओं की एक साथ मौत हुई थीं, और उन मरीज महिलाओं के बीच खड़े हँसते हुए स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल की तस्वीरों ने लोगों को स्तब्ध कर दिया था। नए चिकित्सा ढांचे की शुरूआत अच्छी बात है, लेकिन राज्य में मौजूद हजारों चिकित्सा ढांचों को सरकार जिस तरह चला रही है, उन्हीं हाथों में एक और नई गाड़ी का स्टीयरिंग दे देने से मरीजों की जिंदगी का सफर सुहाना नहीं होने जा रहा है। छत्तीसगढ़ सरकार को अगर प्रदेश में कानून-व्यवस्था के बाद किसी एक मामले में युद्धस्तर पर सुधार और मरम्मत करने की जरूरत है, तो वह सरकारी चिकित्सा व्यवस्था है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)