संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : समाज के सबसे अंधेरे हिस्से में भी रौशनी लाने से होगी असली दीवाली
30-Oct-2024 3:33 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : समाज के सबसे अंधेरे  हिस्से में भी रौशनी लाने  से होगी असली दीवाली

आज जब उत्तर भारत पूरा का पूरा दीवाली मनाने की तैयारी कर रहा है, तब कुछ घर ऐसे होंगे जहां अंधेरा छाया होगा। परिवार के भीतर तरह-तरह की हिंसा और जुर्म के शिकार होने वाले लोग भला क्या त्यौहार मनाएंगे। लेकिन ऐसे में ही यह सोचने की जरूरत है कि बाकी जगहों पर दियों और दीगर किस्म की रौशनी पहुंच रही है, तो कई जगहों पर छाए अंधेरे को दूर करने की क्या कोशिश हो सकती है? और फिर जिन परिवारों में एक बार हिंसा का अंधेरा छा चुका है, उन्हें तो रंग-बिरंगी चीनी लडिय़ों से भी रौशन नहीं किया जा सकता। सरकार और समाज को सोचना यही है कि अंधेरा होने से कैसे रोका जा सकता है। आज की ही दो खबरें हमारे बिल्कुल आसपास की हैं जिनमें से एक में रायपुर रेलवे स्टेशन पर नशे में धुत्त सौतेले बेटे ने नशे में धुत्त बाप को चाकू से मार डाला। शाम को भीड़भरे रेलवे स्टेशन पर लाश पड़ी हुई थी, और अब ऐसे परिवार में भला क्या दीवाली हो सकती है? एक दूसरी वारदात छत्तीसगढ़ के ही कोरबा जिले की है जहां पर रोज शराब पीकर घर आकर मारपीट करने वाले बेटे से थककर बाप ने धुत्त बेटे को मार डाला। अब ये बूढ़े मां-बाप कमाने-खाने के लिए छत्तीसगढ़ से हर बरस जम्मू-कश्मीर चले जाते हैं, और अभी दीवाली मनाने के लिए वहां से लौटे ही थे कि नशेड़ी बेटे ने इतना प्रताडि़त किया, इतनी हिंसा करने लगा कि हजारों किलोमीटर के सफर से आए बूढ़े बाप ने उसे मार डालना ठीक समझा।

यह कोई आम नौबत नहीं रहती है कि औलाद बाप को मार दे, या मां-बाप औलाद को मार दें। लोगों को याद होगा कि कुछ हफ्ते पहले की ही बात है कि एक नशेड़ी बेटे की हिंसा से थककर बूढ़े मां-बाप ने मिलकर उसे पकड़ा, और मार डाला था। हर हफ्ते परिवार के भीतर नशे की हालत में कत्ल के एक से अधिक मामले आते हैं। अब छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को यह समझने की जरूरत है कि सरकार की अलग-अलग योजनाओं से आम जनता को जितने पैसे मिलते हैं, उनकी मेहरबानी से बहुत से लोगों में शराब की खपत खासी बढ़ गई है। शराब से सरकार को टैक्स की कमाई तो होती है, लेकिन शराब की वजह से सेहत की जितनी बर्बादी होती है उसके इलाज का खर्च तो कुल मिलाकर सरकारी स्वास्थ्य-बीमा योजनाओं पर ही आता है। इसके साथ-साथ दो बातें और जुड़ी रहती हैं, एक तो जितने किस्म की हिंसा होती है, उसके निपटारे का जिम्मा सरकार की पुलिस, सरकारी खर्च पर चलने वाली अदालतों, और जेलों पर आता है। परिवार के भीतर के हिंसा का आर्थिक बोझ सरकार पर भी भारी पड़ता है। तीसरी बात, हिंसा के शिकार परिवारों की आर्थिक उत्पादकता बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है, और देश को उसकी भरपाई किसी तरह नहीं हो पाती। ऐसे परिवार हिंसा का शिकार होकर अपने बच्चों को इसके असर से नहीं बचा पाते, और उनके बड़े होने पर उनके भी हिंसक हो जाने का एक खतरा बढ़ जाता है, और उनके बेहतर नागरिक बनने की संभावना घट जाती है। शराब या किसी दूसरे किस्म के नशे से शुरू होने वाली हिंसा का सिलसिला बहुत दूर तक नुकसान पहुंचाता है, और इसे सिर्फ नशेड़ी की सेहत तक सीमित मान लेना नासमझी होगी।

हम इस बारे में जरूरत से कुछ अधिक बार लिखते और बोलते हैं क्योंकि कानूनी शराब से परे गैरकानूनी शराब का चलन भी बढ़ते चल रहा है, जिसके कोई आंकड़े न सेहत के हिसाब से, और न ही टैक्स के हिसाब से सामने आते। फिर केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह छत्तीसगढ़ आकर यह बोल गए हैं कि इस राज्य में गांजे की खपत पूरे देश के औसत से बहुत अधिक है। और छत्तीसगढ़ की पुलिस हर दिन दर्जन भर से अधिक जिलों में गैरकानूनी दर्जे के नशे का कारोबार पकड़ती है, लोगों को गिरफ्तार करती है। आम तजुर्बा यह रहता है कि किसी अवैध कारोबार का बहुत छोटा सा हिस्सा ही सरकार पकड़ पाती है क्योंकि पूरे देश में कदम-कदम पर फौजी दर्जे की चौकसी तो हो नहीं सकती। नशे की यह बढ़ती हुई नौबत एक खतरनाक तस्वीर पेश कर रही है, और जब हम इसे परले दर्जे की पारिवारिक हिंसा से जोडक़र देखते हैं तो लगता है कि घर के भीतर की एक-एक हिंसा के पीछे शायद नशे में बर्बाद होते लाखों परिवार रहते होंगे। नशे में डूबे लोग सडक़ों पर चाकूबाजी कर रहे हैं, अपने ही बच्चों को पटककर मार डाल रहे हैं, अपने बच्चों से बलात्कार कर रहे हैं।

यह नौबत मामूली मानना गलत होगा। सरकार को पुलिस के आंकड़ों से परे इस बात का गंभीर सामाजिक अध्ययन करवाना चाहिए कि नशे के पीछे की कौन सी वजहें हैं, और नशे के बाद किस-किस किस्म की हिंसा कहां तक पहुंच रही है। यह भी सोचना चाहिए कि सरकार को नशे से कमाई कितनी होती है, और उस पर नशे से होने वाली बर्बादी का प्रत्यक्ष और परोक्ष बोझ कितना पड़ता है। हम नशे की समस्या और खतरे का कोई आसान इलाज नहीं देखते, लेकिन किसी भी जनकल्याणकारी सरकार को ऐसा गंभीर सामाजिक अध्ययन करवाना चाहिए कि नशे को घटाने का क्या कोई रास्ता निकल सकता है? या जनता में ऐसी जागरूकता लाई जा सकती है कि वे नशे के बजाय जिम्मेदार मां-बाप बनकर अपने बच्चों पर अधिक खर्च करें? सामाजिक अध्ययन को चुनावी फतवों, और सरकारी योजनाओं से परे रखना चाहिए, उसे एक स्वतंत्र रिपोर्ट की तरह हासिल करना चाहिए, फिर चाहे सरकार उसके किसी हिस्से पर अमल करे या न करे। इसके लिए सरकार को देश के विख्यात संस्थानों का इस्तेमाल करना चाहिए जिनके लिए खुद भी ऐसा अध्ययन अकादमिक महत्व का होगा।

ऐसा नहीं है कि दुनिया के किसी देश में समाज भारत से अधिक जिम्मेदार न हों। बहुत से देश हैं जहां शराबी भी अधिक जिम्मेदारी से पीते हैं, और जहां परिवार के भीतर पीने की एक परंपरा है, लेकिन जहां लोग नशे में इस तरह धुत्त नहीं होते हैं। भारत में सामाजिक बदलाव लाने, और परिवारों को अधिक सेहतमंद माहौल वाला बनाने का काम सरकार की किसी योजना से रातों-रात नहीं हो सकता, लेकिन ऐसी किसी कोशिश में समाजशास्त्रियों की भूमिका को कम नहीं आंकना चाहिए, और सरकार को लीक से हटकर काम करने का हौसला भी दिखाना चाहिए। पिछली सरकारों ने जो काम नहीं किया है, या दूसरे प्रदेशों की सरकारें जो काम नहीं कर रही हैं, उसे क्यों किया जाए,  यह सोच कल्पनाशीलता की कमी बताती है। हमारा मानना है कि लोकतांत्रिक ढांचे में समाज के अलग-अलग किस्म के विशेषज्ञों का योगदान कुछ अधिक होना चाहिए। हमने आबादी के हर तबके को सामाजिक और मनोवैज्ञानिक परामर्श देने के लिए बड़े पैमाने पर परामर्शदाताओं के शिक्षण-प्रशिक्षण की बात भी बार-बार सुझाई है। हमारा मानना है कि जिस तरह स्कूलों में पढ़ाने के लिए शिक्षकों को बीएड जैसे कोर्स अनिवार्य किए गए हैं, वैसे ही, शिक्षकों के लिए एक अतिरिक्त योग्यता वाले पारिवारिक-परामर्श या मनोवैज्ञानिक परामर्श के कोर्स शुरू करने चाहिए, और जब हर गांव-कस्बे तक ऐसे परामर्शदाता मौजूद रहेंगे, तो वे समाज में एक बदलाव ला भी सकते हैं। और ऐसा ही कोई बदलाव समाज में वह रौशनी फैला सकता है जैसी रौशनी आज दीवाली के दियों से फैल रही है।  

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

अन्य पोस्ट

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news