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जो एक चुका हुआ नेता बनने के बजाय एक सजग नागरिक बनना चाहते थे
25-Jun-2020 12:17 PM
जो एक चुका हुआ नेता बनने के बजाय एक सजग नागरिक बनना चाहते थे

‘जनसत्ता’ के पूर्व संपादक प्रभाष जोशी ने यह लेख वर्ष 1996 में भूतपूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह से मुलाकात के बाद लिखा था


वह सर्दियों की शाम थी. एक, तीन मूर्ति के बंगले से बाहर निकलते हुए मुझे लगा कि अंदर से भर गया हूं. एक तरह की आत्मीयता से. लगा कि किसी दोस्त के साथ घंटा भर बतियाकर तनावमुक्त और प्रसन्न हूं. दिल्ली में ऐसे मौके आप कहें तो उंगलियों पर गिन सकता हूं.

नई दिल्ली के उस इलाके में पिछले अट्ठाइस सालों में कई नामी और सत्तावान लोगों से मिलना हुआ है. यह नहीं कि राजनीतिक लोगों से बात करना उनके साथ हमेशा शतरंज खेलना ही हो. अगर संवाद का सही तार मिल जाए तो जिनके बारे में कहा जाता है कि उनका दाहिना हाथ नहीं जानता कि बायां क्या कर रहा है, वे भी अपने अंदर की और ऐसे पते की बात कह जाते हैं कि आप को और सुनने वाले को लगे कि अरे ये तो अपने इतने आत्मीय हैं. लेकिन मिनट भर बाद ही लगता है कि वह तो कोई बिजली थी जो कौंध कर चली गई और अब आप अंधेरे में उस आदमी को ढूंढ़ रहे हैं जो पल भर पहले आपको इतना अपना लगा था.

मेरी उस शाम विश्वनाथ प्रताप सिंह से बात हुई थी. उस भूतपूर्व प्रधानमंत्री से नहीं जिसे कई लोग कपटी, कुटिल, काइयां और राजनीतिबाज कहते नहीं थकते. एक ऐसे वीपी सिंह से जिसे मैं पहले नहीं जानता था. जो कवि है, चित्रकार है और जीवन के बारे में ऐसी बोली और मुहावरे में बात कर सकता है जो हमारी राजनीति ही नहीं सार्वजनिक जीवन में भी सुनाई नहीं देती.

लेकिन वह शायद विश्वनाथ जी में एक कवि और चित्रकार का अविष्कार नहीं था जो मुझे भीतर से छू गया. वह शायद एक ऐसे व्यक्ति की रचनात्मक ऊर्जा थी जो देख चुका है कि शाम घिरने लगी है. उजाले की कुछ घड़ियां डूबता सूरज अपने लिए छोड़ गया है. इन घड़ियों में कुछ ऐसा करो जो पहले दूसरे कई बुलावों, दबावों और मजबूरियों के कारण कर नहीं पाए. लेकिन इस ‘सब करने’ में कहीं कोई हताशा, कोई जल्दबाजी या हड़बड़ी नहीं है. कोई भय या लालच नहीं है. सृजन की अपनी एक लय होती है. वह काल और स्थान से उतनी संचालित नहीं होती, जितनी कि रचना के अपने उत्स से. उस शाम विश्वनाथ प्रताप सिंह में एक ऐसे सर्जक से मुलाकात हुई जो अपने आसपास की उठापटक, गहमागहमी और उखाड़-पछाड़ से ही नहीं अपने से चिपकी सत्ता, प्रसिद्धि और कीर्ति से भी ऊपर उठ गया हो.

जिस कमरे में बैठे हम बात कर रहे थे उसकी दीवारों पर विश्वनाथ के बनाए स्केच और पेंटिंग टंगे हुए थे. बीच में उनने एक कविता सुनाई थी जो ‘मैं और मेरा नाम’ पर थी और कुछ ऐसे शुरू हुई थी कि - एक दिन मेरा नाम मुझसे अलग होकर पूछने लगा... - इसे सुनते हुए मुझे लगा कि जैसे वे विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपने से अलग हुआ देख चुके हैं और दुनिया के वीपी सिंह से अपने आत्म तत्व को अलग देखकर उससे संवाद कर रहे हैं.

थोड़ी बहुत कविता अपन ने पढ़ी है, उससे थोड़ी कम समझता भी हूं लेकिन सुख के हों या त्रास के, सबसे सघन क्षणों में मुझे कविता ही याद आती है. उस शाम विश्वनाथजी की वह कविता मुझे बहुत भायी और छू भी गई. वह शायद उनकी सबसे अच्छी कविता न हो. हाल ही में आए उनके कविता संग्रह ‘एक टुकड़ा धरती, एक टुकड़ा आकाश’ में वह है भी कि नहीं, मैंने देखने की कोशिश नहीं की. कई बार किसी मनःस्थिति विशेष में आप कोई कविता सुनें और तब उसका जो अर्थ आपके सामने खुले और वह आप को जितना छू जाए जरूरी नहीं कि वह हमेशा आप को वैसा ही लगे.

उस शाम मुझे मालूम था कि विश्वनाथ प्रताप सिंह को ऐसा रोग है जिसका कोई उपचार नहीं. जो इलाज है या किया जाता है वह भी शरीर को कष्ट देकर नष्ट करने वाला ही है. उस रोग को माइलोमा कहा जाता है. इसमें रक्त के सफेद और लाल सेल्स मरने लगते हैं. हड्डियों के जोड़ों में जो बोन मैरो होते हैं और जहां से सेल्स बनते हैं वही बिगड़ जाता है.

ढाई साल पहले अमेरिका के डॉक्टरों ने उनकी जांच करके कीमोथैरेपी जैसा करने को कहा था. लेकिन ब्रिटेन के डॉक्टरों ने उनकी जांच रपटें देखकर कहा कि जो उपचार रोग बहुत बढ़ जाने पर किया जाता है, उस बमबारी को आप अभी से क्यों करते हैं. गड़बड़ी तो हो गई है लेकिन जरूरी नहीं कि आपके शरीर में भी उतनी तेजी से फैले जैसी दूसरे किसी के बदन में बढ़ सकती है. इसलिए देखिए कि रोग क्या करता है. कीमोथैरेपी तो अंतिम उपचार है, उससे शुरुआत क्यों करनी चाहिए? हमारी राय है कि अभी आप निगरानी में रहें.

विश्वनाथ प्रताप सिंह ने वापस लौटकर बाकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बता दिया था कि उन्हें क्या रोग है और उन्हें क्या-क्या सावधानियां बरतने के लिए कहा गया है. लेकिन, राजनीति में रहते और करते हुए जीवन शैली इस तरह बदली तो नहीं जा सकती. अपने रोग के बारे में कितनी जानकारी उनने कर ली है इसका साक्षात दर्शन उस दोपहर को डॉक्टरों के सामने हुआ जब वे बाईपास के बाद मुझे देखने बंबई अस्पताल आए. कुछ जवान डॉक्टरों का उनकी मेडिकल जानकारी पर चकित होना जैसे उनके चेहरों पर छपा हुआ था.

उसी बातचीत के दौरान एक सीनियर डॉक्टर ने उस उपवास की बात बताई जिस पर वीपी सिंह मुंबई में बैठ गए थे. तब रक्त में उनकी शर्करा इकतालीस तक नीचे उतर गई थी जो कि खतरे का स्तर है. वे डॉक्टर दौड़े-दौड़े आए थे और उनने विश्वनाथजी को जबरदस्ती खिचड़ी खिलाई थी. तभी उनने राज की यह बात बताकर सबको स्तब्ध कर दिया था कि किसी ने उनसे टेलीफोन पर कहा था कि वीपी को मर जाने देने का वे कितना पैसा देंगे. वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री होते हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह के राज में कई व्यापार घरानों और व्यापारियों में आतंक छा गया था. कोई चाहता था कि वह आतंक फैलाने वाला हमेशा के लिए शांत हो जाए.

उस आमरण उपवास के दौरान ही वीपी सिंह की शर्करा इतनी कम हो जाने के कारण उनके गुर्दे स्थायी रूप से खराब हो गए. फिर हुआ प्लाज्म सेल डिसक्रिसिया जिसका दूसरा नाम माइलोमा है. फिर भी वे राजनीति में सक्रिय रहे और आंध्र-कर्नाटक में जनता दल के जीतने के बाद उनने चुनावी राजनीति से पांच साल के संन्यास की घोषणा की. फतेहपुर की अपनी लोकसभा सीट से भी इस्तीफा दे दिया. कहा कि जब हमारी पार्टी मुश्किल में थी तब नहीं छोड़ा उसे. जब उसकी हालत कुछ बेहतर हुई तभी चुनावी राजनीति से संन्यास लिया.

फिर भी पिछले साल अगर वे बिहार और ओडीशा आदि के चुनाव अभियान में नहीं लगते और जैसा डॉक्टरों ने बताया था वैसा संयमित और नियमित गतिविधियों वाला जीवन जीते तो कुल हालत संभली हुई रहती. लेकिन उस चुनाव अभियान में उन्हें लगना पड़ा. उसी के दौरान उनने कहा था कि बिहार में हम जीतेंगे और इस बार लालू अपने बहुमत से आएंगे. लेकिन हम ओडीशा में हार जाएंगे. तब सारे चुनाव सर्वेक्षण और भविष्यवाणियां इससे उलट बातें कर रही थीं. नतीजे आए तो विश्वनाथ प्रताप सिंह सही निकले.

इस साल के लोकसभा चुनाव में वे न अभियान में सक्रिय रह सकते थे, न उनकी इच्छा थी. फिर भी जितना बना, किया. चुनाव के पहले उनने कहा था कि कांग्रेस तो हार जाएगी, लेकिन भाजपा जीतेगी नहीं. और परिवर्तन की ताकतें भाजपा को सरकार नहीं बनाने देंगी. आप जानते हैं कि तेरह पार्टियों का संयुक्त मोर्चा बनाने और फिर पहले ज्योति बसु और फिर देवगौड़ा को उनका नेता बनाने में विश्वनाथ प्रताप सिंह की क्या भूमिका रही है. सही है कि यह मोर्चा उन्हीं को नेता बनाकर राजतिलक करना चाहता था. वे किसी भी सूरत में तैयार नहीं हुए. ‘नहीं, इस बार हम नहीं मानने वाले. पिछली बार जो हुआ सो हुआ. हम अपनी विश्वनीयता नहीं खोएंगे. फिर हंस कर कहा – आप ही लिखेंगे कि वीपी सिंह अविश्वसनीय है.’

‘वह तो वीपी सिंह ने मुझे बनवा दिया. नहीं तो अपनी तो कोई तैयारी थी ही नहीं. अपन कर्नाटक में ही ठीक थे’ – देवेगौड़ा ने विश्वास मत जीतने के बाद कहा. और अपन ने हंसकर सुझाया कि आप उत्तर भारत के लिए नए हैं. इसलिए राजनीति वीपी सिंह और चंद्रशेखर के लिए छोड़ दीजिए और स्वयं प्रशासन पर ध्यान दीजिए. बाद में वीपी सिंह को मैंने कहा कि देवेगौड़ा को मैं ऐसा कहकर आया हूं और उनने जवाब दिया कि देखिए, प्राइमिनिस्टिर को प्राइमिनिस्टर होना ही चाहिए. उनके लिए कोई और राज नहीं चला सकता. हमारी अब कतई इच्छा नहीं कि सरकार के काम में पड़ें. कोई काम करवाने, रुकवाने में हम नहीं पड़ेंगे. हम अपनी पेंटिंग करेंगे, कविता लिखेंगे और उन मामलों पर दो टूक बोलेंगे जो हमें ठीक लगते हैं. उन कामों में पड़ेंगे जो समाज को, राजनीति को बना सकते हैं.

लेकिन, अखबारों में पढ़ता हूं कि जिस सरकार को उनने बनवाया और जो उनके कहने से प्रधानमंत्री चुने गए - उस सरकार और प्रधानमंत्री से वे आजकल नाराज चल रहे हैं. क्योंकि देवेगौड़ा उनकी सुनते नहीं और सरकार उनका किया करती नहीं. इस उपेक्षा से चिढ़े हुए विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार की आलोचना भी करते हैं और ऐसे मामले भी उठाते फिर रहे हैं जो इस सरकार और इस प्रधानमंत्री को शर्मिंदा करे. उन्हें सीख भी दी जा रही है कि जब वे संन्यास ले चुके तो राजनीति के मामलों पर अपने उच्च विचार क्यों प्रकट करते हैं. ‘मैंने चुनावी राजनीति से संन्यास लिया है. चुप होकर बैठ जाऊं तो क्या नागरिक होने की अपनी भूमिका भी निभा पाऊंगा?’ – वीपी सिंह पूछते हैं.

संन्यास एक तरह का, जेपी ने भी लिया था लेकिन वे भी राजनीति पर अपनी राय बेझिझक प्रकट करते थे. सत्ता राजनीति में लगे राजनेता और अखबार तब उनको भी ऐसी ही सीख देते थे. उनके संन्यास का मखौल उड़ाते थे. हमारे राजनीतिबाजों को यह रास नहीं आता कि कोई उससे बाहर रहते हुए भी उसे प्रभावित करे. इसीलिए सत्ता की तात्कालिक राजनीति इतनी खोखली और दिशाहीन है. जो दूर तक देख सकता है, दिशा दे सकता है, उसकी हमारी राजनीति में जगह नहीं है.

सन् नब्बे के बाद हमारी राजनीति को बुनियादी रूप से किसी ने बदला है तो वीपी सिंह ने. कांग्रेस को किसी एक राजनेता ने निराधार किया है तो उसी में से निकले विश्वनाथ प्रताप सिंह ने. लेकिन वे एक असाध्य रोग से दिन बचाते हुए रचनात्मक ऊर्जा में जी रहे हैं. जो मृत्यु से, कविता और चित्र से साक्षात्कार करके उसे अप्रासंगिक बनाता हुआ उस के पार जा रहा हो, उसकी सर्जनात्मक स्थितप्रज्ञता को भी थोड़ा समझिए. वह प्रणम्य है. (satyagrah.scroll.in)

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