संपादकीय

'छत्तीसगढ़' का संपादकीय : कुनबापरस्ती क्या सिर्फ फिल्म-टीवी में ही है?
25-Jun-2020 4:54 PM
'छत्तीसगढ़' का संपादकीय :  कुनबापरस्ती क्या सिर्फ  फिल्म-टीवी में ही है?

एक अभिनेता सुशांत राजपूत की खुदकुशी के बाद से लगातार सोशल मीडिया पर लोग मुम्बई के टीवी और फिल्म उद्योग को कोस रहे हैं, वहां पर चल रहे भाई-भतीजावाद, बेटा-बेटीवाद को गालियां दे रहे हैं, और सोशल मीडिया से परे भी फिल्म-टीवी उद्योग के कुछ बड़े चेहरे इस दुनिया में कुनबापरस्तीतले कुचलने वाली प्रतिभाओं की यादें सामने रख रहे हैं। यह पहला मौका नहीं है जब बॉलीवुड के लिए इन बातों को याद किया गया है, और न ही यह आखिरी मौका होगा, दिक्कत यही है कि लोग एक कारोबार को कुनबापरस्ती से आजाद देखना चाहते हैं। 

हमें यह मानने में कोई दिक्कत नहीं है कि फिल्म-टीवी उद्योग में, संगीत की दुनिया में लोग अपने परिवार के लोगों को बढ़ावा देते होंगे। दूसरी तरफ इसी मुम्बई में आधी सदी से यह कहानी खूब जमी हुई है कि किस तरह लता मंगेशकर ने अपनी ही सगी छोटी बहन आशा भोंसले को कभी आगे नहीं बढऩे दिया, कदम-कदम पर रोड़े अटकाए। और मुम्बई में एक फिल्म भी इन दोनों के इस पहलू को लेकर बनी थी। फिल्म, टीवी और संगीत एक खालिस कारोबार हैं। इनमें ढेर सारा पैसा पहले लगाना पड़ता है, और उसके बाद कुछ चुनिंदा फिल्मों या टीवी सीरियलों को कमाई होती है, जिन्हें देखकर बाकी लोग इधर-उधर से जुटाकर पूंजीनिवेश करते रहते हैं, और डूबते रहते हैं। अब कोई कारोबार धर्मार्थ काम तो हो नहीं सकता कि उसमें फायदे की उम्मीद के बिना पैसा डाला जाए। फिर दूसरी बात यह भी है कि दुनिया का कौन सा ऐसा कारोबार है जिसमें कारोबारी अपनी अगली पीढ़ी को आगे नहीं बढ़ाते, और विरासत देकर नहीं जाते? डॉक्टरों की संतानें बनते कोशिश मेडिकल साईंस पढ़कर उनके अस्पताल सम्हालती हैं, वकीलों की संतानें वकील बनकर उनके चेम्बर की प्रैक्टिस सम्हालती हैं, और बहुत सारे, तकरीबन हर कारोबार में अगली पीढ़ी के लिए, या अगली पीढ़ी की पहली पसंद पारिवारिक पेशा होता है। इसलिए अगर लोग अपने पूंजीनिवेश से अपनी औलादों को आगे बढ़ाते हैं, तो इसमें कोई अटपटी बात नहीं है। हिन्दुस्तान जैसे देश में सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट में वकालत करने वाले लोगों में एक तबका ऐसे लोगों का रहता है जो कि जजों के परिवार के होते हैं, उनके रिश्तेदार होते हैं, या जजों के दोस्तों की संतानें होती हैं। ऐसे में देश की सबसे बड़ी अदालतों में अंकल-जज की एक संस्कृति जगह-जगह सुनाई पड़ती है, और शायद ही कोई जज इस चर्चा से इंकार कर पाए। हिन्दुस्तान के मीडिया कारोबार को देखें तो दो-दो, तीन-तीन पीढिय़ां मालिकाना हक पा रही हैं, और एक के बाद एक पीढ़ी संपादक भी बन जा रही है, प्रकाशक भी बन जा रही है। इसलिए सिर्फ फिल्म उद्योग को तोहमत देना तो बहुत ही नाजायज होगा। फिर यहभी है कि फिल्म उद्योग कला, तकनीक, रचनात्मक लेखन, पूंजीनिवेश, और मार्केटिंग का इतना जटिल कारोबार है कि उसमें हर किसी की अपनी पसंद हो सकती है, अपनी प्राथमिकता हो सकती है। किसी फिल्म में किसी कलाकार की भूमिका को कम या अधिक करना कुनबापरस्ती के तहत भी हो सकता है, और किसी रचनात्मकता के तहत भी। इसलिए फिल्म और टीवी को कारोबार के प्रचलित तौर-तरीकों से अलग देखने की उम्मीद निहायत ही आदर्शवाद की बात होगी, कोई दुकानदार अपनी औलाद को गद्दी देने के बजाय क्या दुकान के सबसे काबिल या सबसे पुराने नौकर को मालिक बनाकर जाता है? 

चूंकि फिल्म, टीवी, और संगीत खबरों में आसानी से सुर्खियां पा जाते हैं, इसलिए वहां विवाद न रहने पर भी विवाद ढूंढकर, या खड़ा करके खबरें बना ली जाती हैं। लता मंगेशकर की एक मिसाल हमने दी है, दूसरी और भी कई तरह मिसालें सामने हैं जो बताती हैं कि किसी बड़े कामयाब फिल्मकार की औलाद होने से ही सब कुछ नहीं हो जाता। ऐसा अगर होता तो आज 77 बरस की उम्र में देर रात और सुबह तक ओवरटाईम करने वाले अमिताभ बच्चन क्या अपने बेटे को और अधिक फिल्में दिलवाने की चाहत नहीं रखते? अभिषेक बच्चन फिल्म उद्योग के सबसे बड़े और सबसे कामयाब अभिनेता के बेटे होने के बावजूद तकरीबन बेरोजगार हैं। अभी कुनबापरस्ती के चल रहे विवाद में भी उन्होंने इस बात को कहा है। ऐसी मिसालों को भी अनदेखा नहीं करना चाहिए क्योंकि जिस एकता कपूर के बनाए सीरियल्स से हिन्दुस्तानी टीवी चैनल चलते हैं, उसी एकता कपूर का भाई फिल्मों में तीसरे-चौथे या छठवें किरदार से ऊपर कभी कुछ नहीं पा सका। इस परिवार के पास तो पैसा भी था, खुद का प्रोडक्शन हाऊस भी था लेकिन घर का लड़का छोटे-मोटे काम पाकर रह गया। 

जहां तक भेदभाव और मुकाबले की बात है, तो जिंदगी के हर पेशे और हर दायरे में इस तरह की बात होती है। मीडिया को ही देखें तो इसमें हमेशा से यह तोहमत लगती रही है कि किस बड़े संपादक की पसंद के कौन से रिपोर्टरों को चर्चित मामलों पर काम करने मिलता था, क्यों मिलता था, समर्पण न करने पर किस तरह काम नहीं भी मिलता था। यह बात यूनिवर्सिटी और कॉलेज में बड़े प्रोफेसरों के मातहत जूनियरों तक भी रहती है कि किसको मर्जी के विषय पढ़ाने मिलते हैं, किसे शोध करने मिलता है, किसे कौन सा प्रोजेक्ट मिलता है। भारतीय राजनीति में देखें तो कुनबापरस्ती की मिसालें इतनी अधिक और इतनी भयानक हैं कि उनकी फेहरिस्त से यह पूरा पन्ना ही भर जाए। और तो और सांस्कृतिक, सामाजिक, और समाजसेवी संगठनों में भी लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी कायम रहते हैं। 

हमारा ख्याल है कि फिल्म-टीवी उद्योग और संगीत का कारोबार बहुत ही जटिल धंधा हैं, और इनमें व्यक्तिगत पसंद, या व्यक्तिगत नापसंद दिखने वाली बहुत सी बातें हो सकता है कि न्यायसंगत भी हों, तर्कसंगत भी हों। यह भी हो सकता है कि वे पसंद और नापसंद की बुनियाद पर टिकी हों जैसी बुनियाद हर कारोबार और हर पेशे में दिखाई पड़ती है। फिल्मों की खबरें खूब बिकती हैं, इसलिए वहां से खूब सारा झूठ, खूब सारी गंदगी, और खूब सारी तोहमतें सभी सामने आती हैं। उसकी हकीकत वे ही लोग जानें, लेकिन ऐसी बातें अगर सच भी हैं तो वे सिर्फ इसी ग्लैमरस दुनिया तक सीमित बातें नहीं हैं, और उन्हें उतना ही महत्व दिया जाना चाहिए जितना कि कोर्ट में अंकल-जज संस्कृति को दिया जाता है, या मीडिया में एमजे अकबर संस्कृति को दिया गया है। चारों तरफ हाल एक सा है, यह दुनिया खबरों में कुछ अजीब है, बस। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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