संपादकीय
महिलाओं को लेकर भारतीय समाज में पुरूषों की जो आम सोच है, वह कदम-कदम पर सामने आती है। हजारों बरस से मर्द की जो हिंसक सोच हिन्दुस्तानी औरत को कुचल रही है, वह कहीं गई नहीं है। एक वक्त गुफा में जीने वाले इंसानों पर बने कई कार्टून बताते थे कि गुफा का आदमी अपनी औरत के बाल पकड़कर उसे घसीटते हुए ले जा रहा है। गुफाओं में जीना हजारों बरस पहले खत्म हो गया, लेकिन आदमी की मुट्ठी से औरत के बाल नहीं निकल पाए। और तो और जजों की कुर्सी पर बैठे हुए लोग भी अपनी मुट्ठी तब से लेकर अब तक भींचे हुए हैं, यह एक अलग बात है कि हिन्दुस्तानी औरतों का एक तबका उस मुट्ठी के बाहर अपने बाल कैंची से काटकर, शरद यादव जैसे समाजवादी और अमूमन सुलझे हुए नेताओं से परकटी कहलवाने का खतरा लेते हुए भी मुट्ठी से दूर हो चुका है। फिर भी हिन्दुस्तानी मर्द है कि मुट्ठी में दबी बालों की लट को अपनी जीत मानकर मन ही मन औरत को घसीटते हुए चलता है। लेकिन ऐसे में जब यह मर्द किसी हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के जज की कुर्सी पर बैठ जाता है, तो दिक्कत खड़ी हो जाती है।
अभी कर्नाटक हाईकोर्ट में बलात्कार का एक मामला पहुंचा तो वहां के जज, जस्टिस कृष्ण एस. दीक्षित ने अपने फैसले में शिकायत करने वाली महिला के चाल-चलन के बारे में कई किस्म के लांछन लगाए। उन्होंने इस महिला के बारे में कहा- महिला का यह कहना कि वह बलात्कार के बाद सो गई थी, किसी भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है। महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसा व्यवहार नहीं करती हैं।
यह कहते हुए जज ने आरोपी की अग्रिम जमानत मंजूर कर दी। जज ने इस मामले में कई ऐसी टिप्पणियां कीं जिनका आरोप से कोई संबंध नहीं है, और जिनसे महिला के चाल-चलन के बारे में एक बुरी तस्वीर बनती है। जस्टिस दीक्षित ने कहा- शिकायतकर्ता ने यह नहीं बताया है कि वे रात 11 बजे उनके दफ्तर क्यों गई थीं, उन्होंने आरोपी के साथ अल्कोहल लेने पर एतराज नहीं किया, और उन्हें अपने साथ सुबह तक रहने दिया। शिकायतकर्ता का यह कहना कि वह अपराध होने के बाद थकी हुई थीं, और सो गई थीं, भारतीय महिलाओं के लिए अनुपयुक्त है। हमारी महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसा व्यवहार नहीं करतीं। शिकायतकर्ता ने तब अदालत से संपर्क क्यों नहीं किया जब आरोपी ने कथित तौर पर उन पर यौन संबंध के लिए दबाव बनाया था?
यह सोच चूंकि हाईकोर्ट जज की कुर्सी से निकली है, इसलिए बहुत भयानक है। इस कुर्सी तक बलात्कार के शायद तीन चौथाई मामलों पर आखिरी फैसले हो जाते हैं, और इसके ऊपर की अदालत तक शायद बहुत कम फैसले जाते होंगे। ऐसे में बलात्कार का आरोप लगाने वाली एक महिला की मानसिक और शारीरिक स्थिति, बलात्कार के साथ उसके सामाजिक और आर्थिक संबंधों की बेबसी की कोई समझ अदालत के इस अग्रिम-जमानत आदेश में नहीं दिखती। जज की बातों में एक महिला के खिलाफ भारतीय पुरूष का वही पूर्वाग्रह छलकते दिखता है जो कि अयोध्या में सीता पर लांछन लगाने वाले का था। एक महिला के खिलाफ भारत में पूर्वाग्रह इतने मजबूत हैं कि उसके पास अपने सच के साथ धरती से फटने की अपील करते हुए उसमें समा जाने के अलावा बहुत ही कम विकल्प बचता है। जब देश का कानून शब्दों और भावनाओं दोनों ही तरह से किसी महिला को बलात्कार के मामले में पुरूष के मुकाबले अधिक अधिकार देता है, तब उसकी नीयत पर शक करते हुए, उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति की एक डॉक्टर और मनोचिकित्सक जैसी व्याख्या करते हुए एक जज ने जैसी बातें कही हैं, वे सुप्रीम कोर्ट में जाकर पूरी तरह से खारिज होने लायक हैं। बलात्कार के कानून का बेजा इस्तेमाल होता होगा, ऐसे मामले के आरोपी को जमानत या अग्रिम जमानत देना जज का विशेषाधिकार होता ही है, लेकिन ये टिप्पणियां तमाम भारतीय महिलाओं के लिए बहुत बुरी अपमानजनक हैं, और भारतीय पुरूषवादी सोच का नमूना है जो यह तय करती है कि भारतीय महिला का आचरण कैसा होना चाहिए, उसके तौर-तरीके कैसे होने चाहिए, उसे किसके साथ, कब और कहां शराब पीनी चाहिए, कब नहीं पीनी चाहिए, और बलात्कार के बाद उसे थक जाने का कोई हक नहीं है, उसे सो जाने का कोई हक नहीं है। अदालत उस महिला पर यह सवाल भी खड़ा करती है कि जब उससे यौन संबंध के लिए दबाव बनाया गया था, उसी वक्त वह अदालत क्यों नहीं आई।
जज की इन बातों से भारतीय समाज की हकीकत, और उसमें महिलाओं की कमजोर स्थिति, पुरूष की हिंसा के बारे में उनकी कोई समझ दिखाई नहीं पड़ती है। उनके अपने पूर्वाग्रह जरूर चीखते हुए दिखाई पड़ते हैं, लेकिन ये न्याय से कोसों दूर हैं, और तकलीफ की बात यह भी है कि ये अपने आपमें अकेले नहीं हैं, इसके पहले भी बहुत से जजों ने बलात्कार की शिकार महिला के बारे में ऐसी ही पुरूषवादी और हिंसक सोच दिखाई है, जिसके चलते वहां से किसी महिला को इंसाफ मिलना नामुमकिन सा लगता है। इससे एक और बात भी उठती है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को न सिर्फ इस मामले में बल्कि कई दूसरे किस्म के मामलों में भी उनके पूर्वाग्रह से परे कैसे रखा जा सकता है? यह बात तो तय है कि किसी के पूर्वाग्रह आसानी से नहीं मिटाए जा सकते। लेकिन यह तो हो सकता है कि पूर्वाग्रहों की अच्छी तरह शिनाख्त पहले ही हो जाए, और फिर यह तय हो जाए कि ऐसे जजों के पास किस तरह के मामले भेजे ही न जाएं।
जिन लोगों को अमरीका में जजों की नियुक्ति के बारे में मालूम है वे जानते हैं कि बड़ी अदालतों के जज नियुक्त करते हुए सांसदों की कमेटी उनकी लंबी सुनवाई करती है, और यह सुनवाई खुली होती है, इसका टीवी पर प्रसारण होता है। और यहां पर सांसद ऐसे संभावित जजों से तमाम विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दों पर उनकी राय पूछते हैं, उनसे जमकर सवाल होते हैं, उनके निजी जीवन से जुड़े विवादों पर चर्चा होती है, और देश की अदालतों के सामने कौन-कौन से मुद्दे आ सकते हैं उन पर उनकी राय भी पूछी जाती है। कुल मिलाकर निजी जीवन और निजी सोच इनको पूरी तरह उजागर कर लेने के बाद ही उनकी नियुक्ति होने की गुंजाइश बनती है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाथ में रखी है, और वहीं से नाम तय होकर प्रस्ताव सरकार को जाते हैं। ऐसे में जजों की सामूहिक सोच से परे किसी और तरह की सोच आने की गुंजाइश नहीं रहती। भारत में भी जजों की नियुक्ति पर न्यायपालिका के ऐसे एकाधिकार के खिलाफ बात उठती रहती है, लेकिन न्यायपालिका इस एकाधिकार को मजबूती से थामे रखती है।
संसद में लोकसभा में निर्वाचित होकर जो सांसद पहुंचते हैं, उनकी जमीनी हकीकत की समझ किसी भी जज से अधिक होती है। लेकिन उनकी उस समझ का कोई इस्तेमाल जजों को बनाने में नहीं होता। हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में जजों के सारे पूर्वाग्रह पहले ही उजागर हो जाने चाहिए। और इसके साथ ही यह भी दर्ज हो जाना चाहिए कि उन्हें किस किस्म के मामले न दिए जाएं, या कि उन्हें नियुक्त ही न किया जाए।
हमारा यह भी मानना है कि देश के सुप्रीम कोर्ट को अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के फैसलों की ऐसी व्यापक असर वाली बातों का खुद होकर नोटिस लेना चाहिए, और इसके लिए कौन सा सुधार किया जा सकता है उसका एक रास्ता निकालना चाहिए। एक तरफ तो देश में सामाजिक आंदोलनकारी बरसों तक बिना जमानत जेल में सड़ते हैं, दूसरी तरफ बलात्कार के आरोप से घिरे लोग इस तरह अग्रिम जमानत पा रहे हैं, यानी गिरफ्तारी के पहले ही उन्हें जमानत मिल जा रही है। यह पूरा सिलसिला देश की न्याय व्यवस्था में खामियों और कमजोरियों का एक नमूना है, और अगर न्यायपालिका इसे खुद दूर करने में सक्षम नहीं है, तो संसद को सामने आना चाहिए, यह एक अलग बात है कि संसद के पास देश के असल मुद्दों के लिए कोई समय नहीं है, और बहस के लिए संसद के विपक्ष के पास पर्याप्त संख्या नहीं है। ऐसे में सत्ता की मर्जी के बिना कुछ हो पाना मुमकिन नहीं है, और सत्ता की प्राथमिकता पता नहीं कभी जनता की ऐसी जरूरतों, उसके साथ ऐसे इंसाफ तक पहुंच पाएगी या नहीं। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)