मनोरंजन

मनोज को मीडिया से क्या शिकायत...
27-Jun-2020 1:33 PM
मनोज को मीडिया से क्या शिकायत...

मुंबई, 27 जून । हमारी बगल में जो अकेला आदमी रहता है, वो बाहर से कितना ही सख्त क्यों न दिख रहा हो लेकिन उसके अंदर कुछ और चल रहा हो सकता है वो अंदर से कमजोर हो सकता है। उससे जाकर बात कीजिए, हो सकता है आपकी कोई छोटी सी बात उसे बचा ले।

मनोज बाजपेयी जब अपनी फिल्म भोंसले के रोल के बारे में बता रहे थे तो लगा कि जैसे पार्क की बेंच पर बैठा आदमी आते-जाते हर व्यक्ति की जिंदगी पढऩा चाह रहा हो, अंदाजा लगाना चाह रहा हो कि उसकी कहानी क्या है।

भोंसले ऐसी ही एक मराठी पुलिस वाले की कहानी है। एक बीमारी की वजह से उसे रिटायरमेंट लेने पर मजबूर कर दिया जाता है। उसे नहीं पता कि वो अब क्या करेगा। वो अंदर ही अंदर जूझ रहा है अपनी बीमारी से, अकेलेपन से, उन बुरे सपनों से जहां वो बूढ़ा है, लाचार है और कोई उसकी मदद करने नहीं आता।

इस किरदार के बारे में बात करते हुए सुशांत सिंह राजपूत की मौत पर उठ रहे सवालों का जिक्र भी होना ही था। उनकी मौत के बाद लोगों ने उनके अकेलेपन, मानसिक प्रताडऩा और नेपोटिज्म पर कई सवाल खड़े किए। लेकिन जब सुशांत सिंह राजपूत को लेकर मैंने उनसे सवाल पूछा तो थोड़ा असहज लगे। उनके और उनके प्रोड्यूसर संदीप कपूर के चेहरे के भाव बहुत स्पष्ट थे कि वो इस बारे में बात नहीं करना चाहते। हो सकता है कि बहुत से इंटरव्यूज में इन्हीं सवालों से उकता चुके हों और अब इन सवालों से आगे बढऩा चाहते हों। मैंने उनसे पूछा कि सुशांत सिंह राजपूत की मौत के बाद सोशल मीडिया पर जिस तरह की प्रतिक्रिया आ रही है, उसे लेकर वे क्या कहना चाहते हैं। 

लोग जब गालियां देने लगते हैं तो संवाद के सारे रास्ते बंद कर देते हैं। गाली देना बंद करिए और सवाल पूछिए, सवाल पूछने के भी कायदे हैं। जितने सालों में ये गाली गलौच शुरू हुआ है, ट्रोलिंग शुरू हुई है, इससे कुछ बदला नहीं है।

लोगों में गुस्सा है। सवालों का जवाब इंडस्ट्री ही देगी। इंडस्ट्री कोई संस्थान नहीं है, कोई कॉरपोरेट हाउस नहीं है। बहुत सारे लोग अपना स्वतंत्र काम करते हैं। बहुत सारी लॉबी हैं। उनके लिए इशारा है कि वे एक प्रभावशाली, प्रजातांत्रिक और लेवल प्लेइंग फील्ड बनाएं जहां टैलेंट को जगह मिले और ये टैलेंट कहीं भी पैदा हो सकता है। वो बड़े स्टार के बेटा-बेटी भी हो सकते हैं। वो किसी किसान या मजदूर का बेटा-बेटी भी हो सकते हैं। प्रतिभा का सम्मान हो, प्रतिभा का स्वागत हो। तब ये सवाल शायद बंद हो जाएंगे। इंडस्ट्री में लोगों को अपने लेवल पर कोशिश करनी चाहिए। वरना ये सवाल बार-बार उठते-दबते रहेंगे। 

लेकिन प्रतिभा को लेकर उनकी क्या परिभाषा है या क्या पैमाना है क्योंकि कोई व्यक्ति ये नहीं मानता कि वो प्रतिभाशाली नहीं है। हो सकता है मनोज बाजपेयी को देखकर भी लोग कहते होंगे कि वे मनोज से ज्यादा प्रतिभाशाली हैं लेकिन उन्हें मौका नहीं मिला। इस पर उन्होंने कहा कि टैलेंट का देखा जाए तो पैमाना एक्टिंग भी नहीं है, वरना तो बुरी फिल्में इतनी ना चलती।

पैमाना नहीं होता है तो फिर लोगों ने मुझे या मेरे जैसे और एक्टर्स को धीरे-धीरे क्यों सराहा, क्यों हमारे काम को सम्मान दिया। पैमाना हमारे अनुभव के आधार पर होता है। वही एक्टर सबके दिल को छूता है जिस एक्टर में ये काबिलियत होती है जो चरित्र को सबके अंदर बराबर से पहुंचाए। प्रतिभा किसी के हिसाब से सही गलत हो सकती है। लेकिन जब कास्टिंग डारेक्टर के पास आप जाते हैं तो कहते हैं कि स्क्रिप्ट के हिसाब से ऐसा एक्टर चाहिए। आप ये नहीं कहते हो कि दिखने में ऐसा चाहिए और काम ना आता हो तो भी चलेगा। तो काम आना चाहिए।

कम लोग जानते हैं कि मनोज बाजपेयी ने दूरदर्शन के एक सीरियल स्वाभिमान से शुरूआत की थी। उस वक्त ये काफी लोकप्रिय कार्यक्रम था।

मेरी टेलीविजन वाली लाइफ के बारे में कम लोग ही जानते हैं। मैंने टीवी बेमन से करना शुरू किया था क्योंकि मैं मुंबई फिल्में करने आया था। काम मिल नहीं रहा था, कई बार खाने के पैसे भी नहीं होते थे। स्वाभिमान के 12 एपिसोड करने का काम आया। मेरे दोस्त के काफी कहने पर मैं बेमन से ही गया इस काम के लिए। लेकिन लोगों ने काम देखा और फिर 250 एपिसोड हुए। तो सोचिए अगर टैलेंट नहीं होता तो 12 से 250 एपिसोड कैसे होते। 

मनोज अपनी टर्निंग प्वाइंट फिल्म 1998 में आई फिल्म सत्या को मानते हैं जिसमें उनका एक गैंगस्टर भीखू महात्रे का रोल आज भी लोग नहीं भूले हैं।

सत्या ने जो मुझे सम्मान दिया जो मेरा करियर बनाया, मैं आज जो भी हूं वो उस फिल्म की वजह से हूं। लेकिन एक फिल्म है जिससे मुझे एक्टर के तौर पर संतुष्टि मिली, मुझे लगा कि मैंने कुछ हासिल किया है वो फिल्म है गली गुलियां।  कोशिश कर रहे हैं कि उसे भी कोई ओटीटी प्लेटफॉर्म मिल जाए।

गली गुलियां 2018 में रिलीज हो चुकी है लेकिन इसे बहुत बड़े पैमाने पर रिलीज नहीं किया गया था और इसका क्लेक्शन भी अच्छा नहीं था। लेकिन देश-विदेश के कई फिल्म फेस्टिवल में इसे दिखाया गया है और काफी सराहना भी मिली है।

मनोज बाजपेयी ऐसे एक्टर हैं जिन्होंने बहुत अलग-अलग किरदारों में खुद को आजमाया है। चाहे वो अलीगढ़ हो, शूल हो, गैंग्स ऑफ वासेपुर हो या स्पैशल 26 हर किरदार में घुसने की एक प्रक्रिया होती होगी और कहीं ना कहीं वो जरूर इंसान के तौर पर भी एक्टर में कुछ बदलता होगा। मनोज इस बात को मानते हैं।

फिल्म हमें बदलती है। महीनों तक एक रोल को आत्मसात करके चलते हैं..फिर वही आपकी पहचान बन जाती है. उसका कोई हिस्सा छूट जाता है आपके साथ.. शायद इसलिए एक्टर मूडी भी होते है। जाते-जाते आखिरी सवाल उनसे पूछा कि मीडिया से उनकी क्या शिकायत है। उनके छोटे से वाक्य के जवाब ने बहुत कुछ कह दिया।

मेरी शिकायत कुछ नहीं है, मैं सिर्फ एक ऑब्जर्वर हूं। इतना ही कहूंगा कि पहले बहुत खबरें देखता था। दिन की शुरूआत ऐसे ही होती थी। अब उसके बिना जी लेता हूं। बस इसी में आप समझ लीजिए कि मैं क्या कहना चाहता हूं। (bbc)

 

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