विचार / लेख
1757 में प्लासी की लड़ाई के 50 साल बाद तक अंग्रेजों ने भारत की सामाजिक व्यवस्था को छुआ नहीं। पर जब यकीन होने लगा कि यहां उनको लंबा टिकना है तब अपने सेवक तैयार करने की जरूरत महसूस हुई।
1813 में कम्पनी के बजट में एक लाख रुपए शिक्षा के लिए रखे गए। कम्पनी सरकार को स्किल डेवलपमेंट करना था ताकि सस्ते पीए, मुंशी, स्टोरकीपर, अर्दली, मुंसिफ और डिप्टी कलेक्टर मिल सकें।
कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में यूनिवर्सिटी खुली। कलकत्ता यूनिवर्सिटी की जो पहली बैच के ग्रेजुएट निकले, उनमे बंकिमचन्द्र चटर्जी थे। वहीं सुजलाम सुफलाम, मलयज शीतलाम वाले .. । अंग्रेजी पढ़े छात्र आनन्दमठ लिखने लगे, तो खेल कम्पनी सरकार के हाथ से फिसलने लगा।
दरअसल इंडियंस ने अंग्रेजी पढ़ी, तो वैश्विक ज्ञान के दरवाजे खुले। नए-नवेले पढ़े-लिखे ने योरोपियन सोसायटी को देखा, उनके विचारकों की किताबें पढ़ीं। लिबर्टी, सिविल राइट, डेमोक्रेसी, होमरूल..जाने क्या-क्या।
कुछ तो लंदन तक गए, बैरिस्टरी छान डाली और अंग्रेजों को कानून सिखाने लगे। कुछ सिविल सर्विस में आ गए, कुछ ने अखबार खोल लिया। दादा भाई नोरोजी ब्रिटिश संसद में पहुंच गए। अधिकार मांगने लगे। सरकारों को जब जनता की समझ और ज्ञान से डर लगे तो लोगों को लड़वाना शुरू करती हैं। समुदायों को फेवर और डिसफेवर इसके औजार होते हैं।
1857 की क्रांति के लिए अंग्रेजों ने मुस्लिम शासकों को दोषी माना, और लगभग इग्नोर किया। हिन्दू राजे और बौद्धिकों पर सरकार के फेवर रहे। जनता के असंतोष के सेफ पैसेज के लिए एक सभा बनवा दी, जिसमें देश भर के सभी ज्ञानी-ध्यानी आते, अपनी मांग रखते, सरकार दो-चार बातें मान लेती।
सभा को इंग्लिश में कांग्रेस कहते हैं। सालाना बैठक को कांग्रेस का अधिवेशन कहा जाता। इस कॉंग्रेस में हिन्दू ज्यादा संख्या में थे। आबादी के हिसाब से स्वाभाविक था, पर जो अब तक राज में थे, उनमें कुंठा बढ़ी।
सैयद अहमद खान ने कौम को समझाया- अंग्रेजी पढ़ो, ब्यूरोक्रेसी में घुसो। वरना जो अपर हैंड पांच-सात सौ सालों से है, खत्म हो जाएगा। आज के लीडरान की तरह बात सिर्फ ज़ुबानी नहीं थी। एक कॉलेज खोला, शानदार जो अपने वक्त से काफी आगे का था। मुस्लिम जनता ने मदद की, मगर ज्यादा मदद नवाबों से आई। उच्चवर्गीय मुस्लिम और नवाब एक साथ आए।
नवाबों को इसका एक नया फायदा मिला। ताकतवर होती कांग्रेस में रियाया के लोग थे, कई मांगे ऐसी रखते थे जिनमें उनकी जेब कटती थी। सैय्यद साहब और उनके सम्भ्रांत साथी, नवाबों के हित-अहित से जुड़ी मांगों पर दबाव बनाते थे। 1906 आते आते उन्ही के बीच से मुस्लिम लीग बनी। ढाका नवाब चेयरमैन हुए, भोपाल नवाब सचिव। बंगाल विभाजन हुआ था। कांग्रेस बंग-भंग के विरोध में थी, लीग ने समर्थन किया। मुस्लिम अब अंग्रेजो के प्यारे हो चले थे।
रह गए हिन्दू राजे-रजवाड़े। कांग्रेस का फेवर पाते नहीं थे, अंग्रेज सुनते नहीं थे। अपना कोई जनसंगठन न था। कुछ करने की उनकी बारी थी। तो देश भर में कई छोटे-छोटे संगठन थे, जो हिन्दू पुनर्जागरण और सामाजिक सुधार कर रहे थे। बहुतेरी हिन्दू सभाएं-संस्थाएं थीं। जोडऩे वाला कोई चाहिए था। मिला-पण्डित मदन मोहन मालवीय।
पंडितजी ने अलीगढ़ से बड़ा, बेहतर, हिन्दू विश्वविद्यालय का बीड़ा उठाया था। जनता के बीच जा रहे थे। राजाओं ने खुलकर दान दिया, सभाएं करवाईं। मालवीय साहब पूरे देश में घूमे, हिन्दू संगठनों को एक छतरी तले लेकर आए। काशी हिन्दू विश्विद्यालय बना, और अखिल भारतीय हिन्दू महासभा भी बन गई। यह 1915 का वर्ष था। अब तीन संगठन अस्तित्व में आ चुके थे।
पहला, कामन पीपुल के लिए बात करने वाली कांग्रेस, जो सिविल लिबर्टी, इक्वलिटी, सेकुलरिज्म की बात करती थी। इसको ताकत जनता से मिलती थी, धन मध्यवर्ग के साथ नए जमाने के उद्योगपति व्यापारी पूंजीपतियों से मिलता था। इसके नेता भारत के भविष्य को ब्रिटेन के बर-अक्स देखते थे।
दूसरी ताकत, मुस्लिम समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार मुस्लिम लीग, जिसकी ताकत मुस्लिम कौम थी, और फंडिग नवाबों, निजामों की थी। ये भारत का सपना उस मुगलकाल के बर-अक्स देखते थे, जिसमे सारी ताकत उनके हाथ मे थी।
तीसरी ताकत, हिन्दू समाज, उसके धार्मिक सांस्कृतिक विशेषाधिकार की पैरोकार और हिन्दू रजवाड़ों के हितों को ध्यान रखने करने वाली महासभा थी। जिसके लिए भारत का भविष्य मौर्य काल से लेकर शिवाजी की हिन्दू पादशाही के बीच झूलता था। फंडिंग तमाम किंग्स और संरक्षण सिंधिया जैसे राजाओं की थी। यही कारण है कि स्वतंत्र राजपूताना और स्वत्रंत ट्रावणकोर के पक्ष में लिखी चि_ियां आज भी दिख जाती हैं।
आगे चलकर अंग्रेज चुनावी सुधार करते हैं, सत्ता में भागीदारी खुलनी शुरू हो जाती है। मार्ले मिंटो सुधार और 1935 के इंडिया गवर्नेस एक्ट के आने के साथ, तीनो प्रेशर ग्रुप चुनावी दलों के रूप में तब्दील हो जाते हैं।
समय के साथ नए नेता इन संगठनो की लीडरशीप लेते हैं। ये गांधी, जिन्ना और सावरकर की धाराएं हो जाती हैं। दो धाराएं देश की घड़ी को, अपने अपने तरीके से पीछे ले जाना चाहती थी, एक आगे की ओर...। पीछे ले जाने वाली धाराएं मिलकर विधानसभाओं में मिलकर सरकारें बनाती हैं, और सडक़ों पर अपने समर्थकों से दंगे भी करवाती हैं। सत्ता की गंध से संघर्ष में खून का रंग मिल जाता है।
1947 में इस रंग ने भारत का इतिहास ,भूगोल, नागरिकशास्त्र, सब बदल दिया। एक धारा पाकिस्तान चली गयी, मगर अवशेष बाकी है। दूसरी सत्ता में बैठे बैठे सड़ गई, उसके भी अवशेष ही बाकी हैं। तीसरी पर गांधी के लहू के छींटे थे। बैन लगा, तो चोला बदल लिया, नाम बदल लिया। अब ताकत में हैं, तो इतिहास की किताबें बदल रहे है। अजी हां, स्किल डेवलमेंट पर भी फोकस है। उन्हें भी सोचने वाले दिमाग नहीं, आदेश सफाई से पूरा करने वाले हाथ चाहिए।
उधर कलकत्ता, अलीगढ़ और बनारस की यूनिवर्सिटीज आज भी खड़ी हैं। लेकिन हिंदुस्तान का मुस्तकबिल बनाने वाले छात्र नदारद हैं। वे व्हस्ट्सप यूनिवर्सिटी में दाखिला ले रहे हैं।