विचार / लेख
इस लॉकडाउन में जब शेल्टर की जिम्मेदारी जिला प्रशासन से मिली तो सबसे पहले बातचीत शुरू हुई उन सभी श्रमिकों से जिनके घर छत्तीसगढ़ में ही थे, लेकिन वो घर नहीं लौटना चाहते थे। थोड़ा अजीब लगा, फिर बातचीत से समझ आया चावड़ी में काम करने वालों का जीवन का नया पक्ष।
कोई भी युवा अपने गांव में काम और खेती की कमी के साथ-साथ कुछ अधिक पैसा कमाने के सपनों के साथ शहर आता है। शुरुआत में किसी की मदद से पहुँचता है फिर धीरे-धीरे अपना काम का नेटवर्क बनाता जाता है। इनमें से कुछ लोग पहुँचते हैं श्रम के बाजार में। जहाँ सुबह बोली लगती है काम और विशेष कौशल की भी। अधिकांश सामान उतारने-चढ़ाने, निर्माण कार्य, कैटरिंग आदि रहते हैं। इसमें 400 से लेकर 1500 रुपए तक की कमाई होती है और काम करने वाले धीरे-धीरे कौशलयुक्त हो जाते हैं तो उनकी मांग और आय दोनों बढ़ती जाती है।
कैटरिंग में सब्जी काटने वाले सब्जी बनाने लगते हैं तो आगे जाकर चायनीज खाने के विशेषज्ञ भी। लेकिन इनके पास पैसे का आना इन्हें कुछ आदतों में शामिल करता जाता है, उनमें विशेष शराब की लत लगना होता है। इनमें से 50 प्रतिशत ही होंगे जिनका कोई स्थाई ठिकाना शहर में होता है। ये किसी स्टेशन के बेंच में, पार्क में, रैनबसेरा में या किसी रिश्तेदार के घर में रहते हैं जिसका कोई स्थाई किराया नहीं देना होता, कोई गृहस्थी नहीं चलानी होती। अपने घरों में मात्र दो-तीन महीनों में जेब में अच्छा पैसा लेकर जाते हैं। इनका परिवार में सम्मान इनके नगद की वृद्धि के साथ बढ़ता जाता है। जिस गांव के निवासी होते हैं, उसके समाज से धीरे-धीरे कटते जाते हैं और शहर में उनका कोई समाज या संगठन खड़ा ही नहीं होता। इसलिए वो असंगठित के दायरे में आ जाते हैं। इन्हें भोजन की कोई समस्या नहीं होती क्योंकि चावड़ी या स्टेशन में 40 रुपये थाली में पर्याप्त भोजन मिलता है। ऐसे ही कई वर्षों से सबका जीवन चल ही रहा है।
ऐसे में अचानक लॉकडाउन से सब कुछ बंद हो जाता है। काम, भोजन, परिवहन तो सब पहुंचे शेल्टर। शेल्टर से जब लौटने का समय आने लगा तो सबने कहा कि हम घर नहीं जाएंगे..कारण? जेब में पैसे नहीं, पैसे नहीं तो घर में इज्जत नहीं, भोजन नहीं, पहले तो विश्वास नहीं हुआ, लेकिन जब पूरी कहानी समझा गया तो समझ आया इनका रिश्ते-नातों का सूत्र मात्र नगद है। बच्चे से लेकर पत्नी और माता-पिता भी अधिकांश के मूल्यों के साथ नहीं जुड़े हैं, रिश्तों की गर्माहट तो कब की समाप्त हो चुकी है। परिवार के लिए वो एकमात्र पैसा कमाने की मशीन हैं। तब हमने दूसरा विकल्प दिया कि किसी ठेकेदार के साथ काम करने जाइये, क्योंकि चावड़ी की शुरुआत नहीं हुई है तो जो कारण उन्होंने बताये।
1 . चावड़ी में रोज नहीं जाना पड़ता, ठेके में जाना होता है।
2. चावड़ी से मिले काम में पैसा बहुत है, ठेके में कम।
3. चावड़ी के पैसे उसी दिन मिलते हैं, वो भी नगद, ठेके में कई बार हफ्ते तो कभी महीने में, हो सकता है कि बैंक में डालते हों।
4. चावड़ी के माध्यम से मिले काम में कोई बेइज्जती नहीं करते, सब कौशल का सम्मान करते हैं इसलिए ही चुने जाते हैं। ठेके में गालियां सुनने मिलती हैं।
5. इसमें छुट्टी का झंझट नहीं, ठेके में है।
6. इसमें गृहस्थी नहीं चाहिए, उसमें काम के आसपास ही रसोई जमानी पड़ेगी।
हमारे लिए सब नई बात थी, नए तर्क थे। इनमें से कुछ आखिरकार मजबूरी में काम की तलाश में ठेकेदार के साथ चले गए। कुछ चावड़ी वापस लौटे उम्मीद में कि कभी तो सब खुलेगा।
अब सब खुल गया है , लेकिन समस्याएं वहीं हैं।
1. किसी के पास श्रम कार्ड नहीं है।
2. किसी का बैंक खाता नहीं है।
3. किसी के कौशल की कोई सूची कहीं नहीं है।
अब सरकार को चाहिए कि
1. चावड़ी को व्यवस्थित करें।
2. सभी आने वाले मजदूरों को कौशल के साथ पंजीकृत करें।
3. सबका बैंक खाता अनिवार्य हो
4. काम के मांग का डिस्प्ले बोर्ड बने।
5. अभी महिलाओं के लिए यह बहुत सहज वातावरण के साथ नहीं है, जिसे योग्य बनाया जा सकता है।
6. टोकन सिस्टम हो। काम का अवसर देने वाला एक दिन पूर्व सुचना दे।
कुछ बहुत आसान सा है। करने योग्य भी। लगता है बाकी सबका सुझाव आमंत्रित है।