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कांग्रेसयुक्त सिंधिया-शिव मंत्रिमंडल, संविधान, प्रजातंत्र, संसदीय भावना के अनुरूप नहीं
04-Jul-2020 3:13 PM
कांग्रेसयुक्त सिंधिया-शिव मंत्रिमंडल, संविधान, प्रजातंत्र, संसदीय  भावना के अनुरूप नहीं

फोटो पीटीआई

लगभग 3 माह की उहापोह के पश्चात अंतत: मध्यप्रदेश में सिंधिया-शिव का 33 सदस्यीय मंत्रिमंडल का गठन हो गया।

मंत्रिमंडल के गठन में जनादेश की सरकार को अपदस्थ करने के लिए और हॉर्स ट्रेडिंग की योजना को सफल बनाने हेतु तैयार रणनीति के अनुरूप संविधान के अनुच्छेद 75(5),164(4)की मूल भावना के विपरीत गैरविधायकों को मंत्रिमंडल में स्थान दिया गया है।
स्वतंत्र भारत के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर है, जब संसद सहित किसी राज्य मंत्रिमंडल में अपवाद के रूप में प्रयोग हेतु, सम्मिलित संविधान के प्रावधान की आड़ लेकर, मंत्रिमंडल के सदस्यों की कुल संख्या 33 मैं से 12 मंत्री विधानसभा के निर्वाचित सदस्य नहीं है।
विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या ऐसा मंत्रिमंडल जिसके एक तिहाई सदस्य से अधिक सदस्यों को जनादेश प्राप्त नहीं है, क्या ऐसे मंत्रिमंडल को जनमत / जनादेश का मंत्रिमंडल कहा जा सकता है?
इसका उत्तर संविधान सभा की कार्यवाही में संविधान सभा के विद्वान सदस्यों द्वारा प्रस्तुत विचारों से सुस्पष्ट रूप से प्राप्त हो सकता है।
संविधान सभा में मंत्रिमंडल के सदस्यों की नियुक्ति के संबंध में, संविधान के अनुच्छेद 75 पर चर्चा के निम्नांकित अंश ध्यान देने योग्य हैं।
संविधान सभा वाद-विवाद दिनांक 31 दिसंबर 1948 को मोहम्मद ताहिर ने संशोधन क्रमांक 1323 और 1324 अनुच्छेद 62( 5) को संशोधित करने हेतु सभा की अनुमति से प्रस्तुत किया।
"A minister shall at the time of appointment as such,be a member of the parliament."
उन्होंने वर्तमान अनुच्छेद 75(5)
"A minister who for any period of six consecutive months is not a member of of either House of parliament shall at the the expiration of that period cease to be a minister"
के संबंध में कहा कि यह तो पूर्ण रूप से प्रजातंत्र की भावना के विपरीत है कि जो व्यक्ति देश की जनता के द्वारा चुना हुआ नहीं है उसे मंत्री नियुक्त किया जाए।
उन्होंने कहा कि यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि गठित होने वाली संसद जिसकी सदस्य संख्या लगभग 400 होगी किसी राजनीतिक दल का नेता, इनमें से किसी योग्य व्यक्ति को नहीं चुन सके, और इस बात के लिए मजबूर हो कि ऐसे व्यक्ति को चुने जो निर्वाचित जन प्रतिनिधि नहीं है।
उन्होंने आगे कहा कि यदि कोई ऐसा व्यक्ति जो संसद का सदस्य नहीं है यदि मंत्री नियुक्त किया जाता है तो यह प्रजातंत्र की भावना के विपरीत है, प्रजातंत्र की जड़ों को कमजोर करने वाला प्रावधान है।
संविधान सभा में अनुच्छेद 75 पर चर्चा के दौरान कुछ सदस्यों ने यह भी व्यक्त किया, कि वाक्य ‘संसद के किसी सदन’ के स्थान पर ‘चुना हुआ सदस्य’ वाक्य रखा जाना चाहिए अन्यथा उच्च सदन जहां 12 सदस्य नामाँकित करने का प्रावधान है यदि प्रधानमंत्री चाहेंगे,तो इन12 सदस्यों को भी मंत्री पद पर नियुक्त कर सकेंगे,और ऐसे सदस्य जो राष्ट्रपति के निर्वाचन में भी ‘नामाँकित’ होने के कारण हिस्सा नहीं ले सकते वह मंत्रिमंडल में बहुत अधिक जिम्मेदारी के पद ‘मंत्री’ पद पर नियुक्त किए जा सकते हैं। यह भी राय व्यक्त की गई कि यद्यपि ऐसी स्थिति निर्मित नहीं होगी, किंतु कोई प्रधानमंत्री ऐसा करने के लिए समर्थ नहीं हो, यह हमें सुनिश्चित करना होगा।
अनुच्छेद 75(5) के संबंध में संशोधन प्रस्ताव प्रस्तुत होने के पश्चात सामान्य चर्चा आरंभ होने पर
सेंट्रल प्रोविंसेस एंड बरार से संविधान सभा के लिए विद्वान सदस्य आर के सिधवा ने अपने संबोधन में कहा कि धारा एक दो और पांच पर चर्चा हुई।
धारा 1 प्रधानमंत्री की नियुक्ति के संबंध में है उन्होंने कहा कि गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के अंतर्गत कुछ प्रोविंसेस के गवर्नर ने जानबूझकर अपनी सुविधा के लिए ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त किया जिसके साथ सभा का विश्वास नहीं था उदाहरण के लिए बंगाल, आसाम, उड़ीसा, सिंध और पंजाब, और फिर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 के अंतर्गत जो मंत्री मंडल गठित हुआ पूरे 1 साल तक कार्य करता रहा और फिर जब आगामी बजट सत्र हुआ उस बजट सत्र में उसने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए सदस्यों को कई प्रकार के प्रलोभन, का प्रस्ताव किया कामकाज के प्रस्ताव किए और यह दर्शाया की उसके पास सदन का विश्वास है।
उन्होंने आगे कहा कि यह सब बातें भूतकाल की है, मैं इस विश्वास के साथ कि राज्यपाल और राष्ट्रपति इतने गैरजिम्मेदार व्यक्ति नहीं होंगे इस धारा का समर्थन करता हूं। क्योंकि यदि राष्ट्रपति अथवा ऐसा व्यक्ति जिसके पास सदन का विश्वास नहीं है ऐसा कृत्य करेगा तो महाभियोग और बर्खास्तगी का प्रावधान भी है।
‘उन्होंने कहा कि जो आशंकाएं अन्य सदस्यों के दिमाग में है वह मेरे भी दिमाग में है किंतु भूतकाल में जो उदाहरण रहे उस पर विचार नहीं करते हुए मैं धारा1का समर्थन करता हूं।’
धारा 5 पर अपने विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा कि
"a minister who for any period of six consecutive months is not a member of either House of parliament shall at the the expiration of that period cease to to be a minister”
ऐसी धारा गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1935 में है, और हमने इसे वहीं से लिया है। मैं चाहता हूं कि यह धारा हमारे संविधान में नहीं रहे क्योंकि हमारे विधान मंडल में 500 सदस्य रहेंगे और इन 500 में से भी यदि हम कोई तकनीकी अथवा विषय विशेषज्ञ को लेना सुनिश्चित नहीं कर सके जो आवश्यक है, तो यह विधान मंडल के लिए अप्रतिष्ठा पूर्ण होगा।
‘हमारा संविधान ग्रेट ब्रिटेन की संसदीय प्रणाली पर आधारित है, जो दलीय व्यवस्था से संचालित होता है, वहां राजनीतिक दल यह सुनिश्चित करते हैं कि जिन व्यक्तियों को मंत्रिमंडल में लेना संभावित है, उनमें कुछ विशेष ज्ञान अथवा विशेषज्ञता वाले व्यक्ति को टिकट दिया जाए और यह भी कि ऐसे व्यक्ति चुनकरआएऔर इसलिए हमें भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ऐसे व्यक्तियों को राजनीतिक दल टिकट दे, और वह चुनकर भी आए।
केवल विधि और वित्त विषय ही संभवत ऐसे हैं, जहां विषयों का विशेष ज्ञान आवश्यक है। उन्होंने कहा कि यह विधान मंडलों के लिए प्रतिष्ठा पूर्ण होगा कि हम गैर सदस्यों को मंत्री पद पर नियुक्त नहीं करें, ऐसे उदाहरण पूर्व में अवश्य हुए हैं किंतु हमें ब्रिटिश कैबिनेट के सदृश्य ही सोचना होगा जहां कभी भी गैर सदस्य को कैबिनेट में सम्मिलित नहीं किया गया’।
यह तर्क अवश्य दिया जा रहा है कि गैर सदस्य केवल 6 माह के लिए रहेगा किंतु फिर भी किसी बाहरी व्यक्ति को कैबिनेट का सदस्य बनाए जाने के लिए मैं सहमत नहीं हूं जब हमें दूसरे योग्य व्यक्ति उपलब्ध हैं और इसलिए यह धारा विलोपित की जानी चाहिए।
अपनी बात को समाप्त करते हुए उन्होंने कहा कि दुर्भाग्य से ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन उपस्थित नहीं है जब मैं बहुत मजबूत तर्क रख रहा हूं यदि वह उपस्थित होते तो निश्चित तौर पर इस पर विचार करते लेकिन मुझे उम्मीद है वह मेरे तर्कों को स्वतंत्र भारत के संविधान में ऐसी धारा नहीं रहे इस पर विचार करेंगे।
संविधान सभा के विद्वान सदस्य श्री कीर्ति शाह ने गैर सदस्य को मंत्री नियुक्त करने के संबंध में अपने संबोधन में कहा कि ऐसी संभावना रहती है कि कोई बहुत योग्य व्यक्ति जो मंत्री पद पर नियुक्ति के लिए सर्वथा योग्य है यदि चुनाव में विजय हासिल नहीं कर पाता है तो यह अच्छी व्यवस्था रहेगी कि ऐसे व्यक्ति को कैबिनेट का सदस्य नियुक्त किया जाए इस विश्वास के साथ कि वह उसी क्षेत्रसेअथवा किसी दूसरे क्षेत्र से निर्वाचित होगा, और यह विशेषाधिकार केवल 6 माह के लिए ही है। बिना चुने हुए उसका यह अधिकार नहीं रहेगा। नामाँकित मंत्री भी मंत्रिमंडल के सामूहिक उत्तरदायित्व से पृथक नहीं होगा और उसे मंत्रिमंडल के सदस्य के रूप में ही कार्य करना होगा और यह ‘संसदीय सरकार’ के मूलभूत सिद्धांतों का उल्लंघन नहीं करता।
डॉक्टर बीआर अंबेडकर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हमारे पास पवित्र प्रशासन उसके प्रवर्तन और जनमत को मोबिलाइज करने का अवसर रहेगा और यदि जनमत मंत्रिमंडल के पक्ष में नहीं है तो प्रशासन के किसी भी अवसर पर मंत्रिमंडल को हटाया जा सकेगा।
संविधान सभा में हुए उपरोक्त वाद विवाद से यह संदेह रहित है कि मंत्रिमंडल में गैर सदस्यों को मंत्री नियुक्त करने का प्रावधान अपवाद स्वरूप स्थिति में किसी विशेष योग्यता के व्यक्ति को सम्मिलित किए जाने के आशय से रखा गया था और डॉक्टर अंबेडकर ने भी यह विश्वास व्यक्त किया था कि स्वतंत्र भारत में हमारे पास पवित्र प्रशासन, उसके प्रवर्तन जनता को मोबिलाइज करने का अवसर उपलब्ध रहेगा और यदि जनमत ऐसे मंत्रिमंडल के पक्ष में नहीं है तो उसे किसी भी समय हटाया जा सकेगा।
संविधान सभा में हमारे संविधान के ऐसे एकाधिक प्रावधानों पर, प्रस्तुत संशोधनों पर बहुत तार्किक और प्रभावी चर्चा हुई, किंतु डॉक्टर अंबेडकर ने स्वतंत्र भारत के जन प्रतिनिधियों एवं राजनीतिक दलों पर विश्वास की भावना को प्रकट करते हुए, और विश्वास में निहित यह है कि राजनीतिक दल एवं जन प्रतिनिधि प्रजातंत्र एवं संसदीय प्रणाली की मूल भावना के अनुरूप अपने आचरण एवं व्यवहार को अंजाम देंगे। अपवाद स्वरूप विशेष परिस्थितियों के लिए ऐसे प्रावधानों को यथावत रखने का तर्क देते हुए भारत के संविधान में सम्मिलित करने का रास्ता सुगम किया था।
यही कारण है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात लगभग 68 वर्षों में ऐसे इक्के दुक्के अवसर ही ऐसे आए हैं, जब किसी विशेष उद्देश्य से अथवा किसी विशेष योग्यता का लाभ हमारी प्रजातांत्रिक व्यवस्था एवं संसदीय प्रणाली को प्राप्त हो सके, मंत्रिमंडल में गैरसदस्यों को मंत्री नियुक्त करने के उदाहरण उपलब्ध है।
जनमत/जनादेश के द्वारा किसी राजनीतिक दल द्वारा गठित सरकार, के 22 सदस्य दल के किसी व्यक्ति विशेष के प्रति निष्ठा अथवा तथाकथित रूप से दल में अपमान जनक व्यवहार के नाम पर अपनी सदस्यता से त्यागपत्र देकर, प्रचलित दल बदल कानून को धता बताते हुए, दूसरे राजनीतिक दल द्वारा आयोजित समारोह, में दल की सदस्यता ग्रहण करते हैं।
विधानसभा से त्यागपत्र देने के पश्चात विधानसभा की ततसमय प्रभावी संख्या के आधार पर बिना जनमत / जनादेश के अल्पमत वाला दल छद्म बहुमत से सरकार गठित करता है, फिर त्यागपत्र देने वाले गैर सदस्यों को निर्वाचित सदस्यों की उपेक्षा करते हुए मंत्रिमंडल का सदस्य नियुक्त किया जाता है,और जनता को प्रलोभन देते हुए (निर्वाचन वाले क्षेत्रों में लंबित कार्यों को पूर्ण करने के समाचार प्रकाशित हो रहे हैं और 20 जुलाई से अर्थात निर्वाचन के पूर्व बजट सत्र भी प्रस्तावित है) पुन: निर्वाचन के लिए प्रक्रिया आरंभ होती है, यह सब तो संविधान सभा में संविधान की धारा 75 (5)पर हुई चर्चा,इस धारा को संविधान में सम्मिलित करने की मूल भावना,उद्देश्य और प्रजातंत्र तथा संसदीय प्रणाली को गहरा आघात ही है।
जिस दल का नेतृत्व अपने संपूर्ण जीवन काल मैं श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेई ने किया,जो दल हमेशा ही विचारधारा के आधार पर संचालित होता रहा, जिस दल ने “Party with a difference” न केवल अपने कार्यों से अपितु व्यवहार से भी देश में लोकप्रियता के उच्चतम शिखर को प्राप्त करते हुए केंद्र एवं अनेक राज्यों में अपने दल की सरकार का गठन किया, मध्यप्रदेश में सरकार गठित करने का प्रयास दल की मूल विचारधारा, संविधान तथा संसदीय प्रणाली के विपरीत है।
यहां में अटलजी के द्वारा 13 दिन की सरकार के अंतिम दिन लोकसभा में व्यक्त किए गए उदगार के अंश को उद्धृत करना समीचीन समझता हूं ‘लेकिन पार्टी तोडक़र सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करुंगा’.....‘हम संख्या बल के सामने सर झुकाते हैं और जो काम हमने हाथ में लिया है पूरा नहीं कर लेंगे तब तक विश्राम से नहीं बैठेंगे।’
यह अटलजी की दल के सिद्धांतों के प्रति तथा संविधान एवं प्रजातांत्रिक प्रणाली के प्रति गहरी निष्ठा का प्रति फल ही है, कि उनका राजनीतिक दल लोकप्रियता के उच्चतम शिखर पर है, और वर्तमान नेतृत्व का यह दायित्व है कि इस स्थान को अपने कृत्यों एवं व्यवहार से शिखर पर बनाए रखें।
यह उपयुक्त समय है, हम उच्च प्रजातांत्रिक एवं संसदीय मर्यादाओं को स्थापित करने का प्रयास करें और राजनीतिक दलों एवं इसके नेताओं को ऐसे आचरण एवं व्यवहार के लिए हतोत्साहित करने के लिए प्रभावी कदम उठाएं।
-देवेंद्र वर्मा 
(पूर्व प्रमुख सचिव छत्तीसगढ़ विधानसभा)
संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ

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