संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश की इतनी मुसीबतों के बीच संसद-विधानसभाएं इस हद तक प्रसंगहीन!
06-Jul-2020 2:40 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : देश की इतनी मुसीबतों के  बीच संसद-विधानसभाएं  इस हद तक प्रसंगहीन!

फोटो : समाचारएजेंसीडॉटकॉम

हिन्दुस्तान में फिलहाल तो दुनिया के बहुत से और देशों की तरह संसद और विधानसभाएं स्थगित हैं, इसलिए भी एक सदी की दुनिया की इस सबसे भयानक मुसीबत को लेकर कोई चर्चा नहीं हो रही है। वरना मजदूरों की बदहाली से लेकर अस्पतालों के इंतजाम तक, और बेरोजगारी से लेकर फटेहाली तक इतनी ही पहलुओं पर तुरंत ही एक जिंदा चर्चा की जरूरत है। यह एक अलग बात है कि हिन्दुस्तानी संसदीय व्यवस्था में धीरे-धीरे करके संसद और विधानसभाओं में जिंदा चर्चा खत्म हो चुकी है, और अब सदनों में भी पार्टियां बोलती हैं, गठबंधन बोलते हैं, पहले से तय बयान देने के लिए सदस्य खड़े जरूर होते हैं, लेकिन वे अपनी पार्टी की बताई ऑडियो क्लिप बजाते हैं, और बैठ जाते हैं। 

अभी जब संसद चल नहीं रही है, विधानसभाएं संसद की ओर देख रही हैं कि वहां से कोई मिसाल मिले कि सदन कैसे चलाना है, तब इस बारे में बात करना अधिक जरूरी हो गया है कि ये सदन चल भी गए, तो उनके भीतर क्या चलेगा? जितनी पार्टियां हैं उनकी राजनीतिक-चुनावी रणनीति के तहत तय किए गए बयान चलेंगे, और भला क्या चल जाएगा? और अगर वही चलना है तो वह तो आज भी सुबह, दोपहर, शाम, रात, डॉक्टर की लिखी रोज चार खुराक की तरह, ट्विटर पर चल ही रहा है। लोग वहां सवाल कर रहे हैं, जवाब दे रहे हैं, तोहमत लगा रहे हैं, और सरकारी प्रचार माध्यमों से भी पहले ऐसे सोशल मीडिया पर वह सब कुछ हो जा रहा है जिसके लिए संसद जैसी चौपाल बनाई गई थी जो कि एक तय जवाबदेही की बुनियाद पर थी और है, जो कि विशेषाधिकारों को देने वाली चौपाल है, और जहां जवाब देना सरकार की मजबूरी रहती है। ऐसी चौपालों को छोडक़र आज राजनीतिक दल और उनके सांसद सोशल मीडिया पर आपस में बात कर रहे हैं। अब सवाल यह है कि संसद और विधानसभाओं के जिन जनप्रतिनिधियों के कहने-सुनने की जगह बनाया गया था, उनके बीच सदनों में बहिष्कार अधिक चलते हैं, बहिर्गमन अधिक चलते हैं, विचार-विमर्श की वहां कोई जगह नहीं रह गई है, बहस वहां की बेमतलब शक्ति प्रदर्शन होकर रह गई है। आज जब हाल के हिन्दुस्तान में सबसे बड़े विचार-विमर्श की जरूरत है, तब अमरीकी कंपनियों के मुहैया कराए गए सोशल मीडिया पर बहस चल रही है जहां जवाब देने की कोई बंदिश नहीं है। 

लेकिन कोरोना और लॉकडाऊन के इस दौर के खत्म हो जाने के बाद भी जब कभी संसद और विधानसभाएं शुरू होंगी, उस वक्त के लिए भी आज से एक अफसोस लगता है कि देश भर के चुने गए जनप्रतिनिधियों के बीच विचार-विमर्श और बहस खत्म हो जाने का सिलसिला तो टूटने वाला नहीं है। अब हालत यह है कि दलबदल कानून के तहत व्हिप जारी हुए बिना भी सदन में उतने ही किस्म के विचार आ सकते हैं जितने गठबंधन सदन में बैठे हैं। एक गठबंधन के भीतर की पार्टियां भी अलग-अलग पार्टी की तरह बोलने के बजाय अमूमन गिरोहबंदी के तहत बोलती हैं। कभी किसी मुद्दे पर गठबंधन का एक भागीदार अगर थोड़ा खिसक भी जाता है, तो कोई दूसरा भागीदार साथ जुड़ भी जाता है। भारतीय संसद में गठबंधनों से अधिक संख्या में सोच सामने आई होगी। और यह उसी देश की संसद का हाल है जिस देश में आजादी के पहले संविधान बनाने के लिए जब संविधान सभा की बैठक हुई, तो उसमें देश के बहुत से महानतम नेताओं ने किसी बंधी सोच से परे जाकर अपनी मौलिक सोच सामने रखी थी। संविधान सभा की बहसों को अगर पढ़ें तो लगता है कि उसके बाद से लेकर अब तक आजाद भारत की संसद में कुल मिलाकर भी उतने मौलिक विचार सामने न आए हों, उतनी सार्थक बहसें न हुई हों, और हिन्दुस्तान के बुनियादी ढांचे की उतनी समझ बाद में संसद की किसी बहस में सामने न आई हो। 

लेकिन क्या संसदीय व्यवस्था मौलिक सोच और मौलिक बयान को दलबदल कानून के हथौड़े से कुचलकर सांसद या विधायक को उनके दल की घोषित रणनीति के सांचे में ढाल देने के लिए ही बनाई गई थी? क्या इस लोकतंत्र में मौलिक सोच और निजी विचार की कोई जगह नहीं रह गई है, जरूरत नहीं रह गई है? क्या पार्टियों की घोषित नीति और रणनीति से परे किसी मौलिक बात की कोई जरूरत नहीं रह गई है? यह बात इस संसदीय व्यवस्था के भविष्य पर एक गंभीर खतरा है, और यह उस वक्त है जब इस पर और भी कई किस्म के गंभीर खतरे मंडरा रहे हैं। 

आज चूंकि संसद और विधानसभाएं चल नहीं रही हैं, इनके बारे में कुछ लिखा भी नहीं जा रहा है, और ऐसे में हमें लग रहा है कि इनके भीतर कोई बात हो न हो इनके बारे में बाहर बात जरूर होना चाहिए, जो कि आज हम कर रहे हैं। भारतीय संसद और विधानसभाओं को लेकर एक बड़े खतरे के बारे में बहुत कम चर्चा हो रही है कि किस तरह वहां के मामूली कमाई वाले जनप्रतिनिधि घटते चले जा रहे हैं, और करोड़पतियों को बेदखल करके अरबपति भरते जा रहे हैं, और राज्यसभा के मनोनयन में दीवालिया होने वाले खरबपतियों को भी जगह मिलती चली गई है। पैसे वालों में कोई बुराई नहीं है, और संसद तक पहुंचने का उनका बराबरी का हक है, लेकिन लोकतंत्र के तहत संसदीय व्यवस्था में अगर सदन में महज पैसे वाले ही भर जाएंगे, तो बिना पैसों वाली जनता की दिक्कत और उसकी चुनौतियों की समझ इनमें नहीं रहेगी। यह सिलसिला वैसे भी बुरी तरह खतरनाक हो गया है क्योंकि देश भर में तमाम पार्टियों ने यह मान लिया है कि अगर बाकी सारे पैमाने एक सरीखे रहते हैं, तो अधिक पैसे वाले को उम्मीदवार बनाने से जीत की अधिक उम्मीद रहती है। 

जब कभी संसद और विधानसभाएं फिर बैठें, उनके बारे में देश को यह सोचना चाहिए कि क्या ये ऐसे सदस्यों से बने हुए सदन नहीं हैं, जिनमें से अधिकतर चुनाव खरीदकर वहां पहुंचे हैं? जिन सदस्यों और उनकी पार्टियों ने एक पूंजीनिवेश की तरह सदन का सफर तय किया है, उनकी प्राथमिकता बिना पूंजी वाले सबसे गरीब लोग हो कैसे पाएंगे? और हमने पिछले महीनों में देश के औद्योगिक केन्द्रों से, महानगरों से गांवों तक मजदूरों का हजारों किलोमीटर का पैदल-साइकिल सफर देखा हुआ है कि देश की गरीब जनता की ऐसी जानलेवा तकलीफ भी संसद या विधानसभाओं को किसी किस्म की चर्चा के लिए मजबूर नहीं कर पाई। आज जब देश भर में गरीब स्कूलों के गरीब बच्चों से भी ऑनलाईन पढ़ाई करने की उम्मीद की जा रही है, कितने सांसदों, और कितने विधायकों ने पिछले महीनों में ऑनलाईन सदन चलाने की मांग की? बात-बात पर सडक़ किनारे धरने पर बैठने वाले नेताओं में से कितने सांसद और विधायक ऐसे थे जिन्होंने सदन के बाहर ही सही, सार्वजनिक रूप से सवाल पेश किए कि संसद चाहे न चल रही हो, संसदीय व्यवस्था में सरकार सार्वजनिक रूप से इसका जवाब दे। संसदीय लोकतंत्र में संसद का सदन तो महज एक तकनीकी मंच है, सवाल पूछने और जवाब पाने का हक अधिक बुनियादी है, और वह लोकतंत्र की धडक़न है। इस बुनियादी सोच के साथ कितने सांसदों और विधायकों ने देश-प्रदेश की सरकारों को चुनौती दी कि जवाब देना उनकी जिम्मेदारी है, चाहे सदन न चल रहे हों। दरअसल इस देश में लोकतंत्र की फिलॉसफी पर तंत्र और नियम इतने हावी हो गए हैं कि इनके बक्से के बाहर सोचना सांसदों और विधायकों के लिए मुश्किल हो गया है। यह सिलसिला बहुत खतरनाक इसलिए है कि यह लोकतंत्र में संसदीय व्यवस्था को बाहुबल की गिरोहबंदी में बदल चुका है, और बाहुबलविहीन लोग भी यह नहीं समझ पा रहे हैं कि लोकतंत्र संख्याबल या बाहुबल का नाम नहीं है, वह जनता के हक के लिए लडऩे का नाम है, फिर चाहे एक अकेला चना ही भाड़ फोडऩे में क्यों न जुट जाए। लोकतंत्र में सबसे अधिक जरूरत के वक्त संसदीय व्यवस्था के इस तरह बेअसर और प्रसंगहीन हो जाने की कल्पना क्या इस लोकतंत्र को बनाने वाले संविधान-निर्माताओं ने की होगी? आज ये सारे सवाल महज सरकार से नहीं किए जा रहे हैं, ये सवाल तमाम सांसदों और विधायकों से किए जा रहे हैं कि क्या कोरोना और लॉकडाऊन के बीच, चीन के साथ सरहद पर टकराव के बीच उनका जिम्मा क्या महज इतना है कि वे सदनों के शुरू होने का इंतजार करें, ताकि वहां पर अपने गठबंधनों और अपनी पार्टियों की खेमेबाजी कर सकें?(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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