संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फौजी शहादत पर हमदर्दी, पुलिस-मौतों पर गायब !
07-Jul-2020 3:12 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : फौजी शहादत पर हमदर्दी, पुलिस-मौतों पर गायब !

सोशल मीडिया वक्त खराब भी करता है लेकिन मुख्यधारा के कहे जाने वाले मीडिया की बंधी-बंधाई लीक से हटकर सोचने के लिए भी बहुत कुछ देता है। अब आज सुबह किसी ने फेसबुक पर पोस्ट किया कि सरहद पर चीन के साथ झड़प में शहीद हुए 20 हिन्दुस्तानी फौजियों को लेकर देश के मन में जो दर्द उठा, वह देश के बीचोंबीच कानपुर में मुजरिमों के साथ भिड़ंत में मारे गए 8 पुलिसवालों के लिए क्यों नहीं उठा? दोनों वर्दियों में थे। 

अब इस पर सोचने की जरूरत है कि फौज और पुलिस के बीच लोगों के नजरिए में क्या फर्क रहता है। जिन प्रदेशों ने फौज की तैनाती देखी नहीं है, उनके लिए फौज महज खबरों और किस्सों में सरहदों पर तैनात है जो कि देश की दुश्मनों से हिफाजत करती है। लेकिन उत्तर-पूर्व के राज्यों और जम्मू-कश्मीर में फौज की बरसों से तैनाती से वहां के लोगों की नजरों में फौज की तस्वीर बहुत अलग है। मणिपुर की महिलाओं का वह बिना कपड़ों का प्रदर्शन बाकी हिन्दुस्तान को पता नहीं याद है या नहीं जो कि फौज को खास हिफाजत देने वाले कानून के खिलाफ कई बार किया गया है। इन इलाकों में फौज के लोगों के खिलाफ नागरिक कई किस्म की कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकते क्योंकि एक अलग कानून बनाकर यहां फौज को अतिरिक्त हिफाजत दी गई है। इसके खिलाफ लोगों को याद होगा कि मणिपुर में इरोम शर्मिला ने 16 बरस तक उपवास किया था लेकिन फौज को एक फौलादी हिफाजत देने वाला वह अलोकतांत्रिक कानून खत्म नहीं किया गया, और न ही बाकी देश में इसे लेकर कोई जनमत तैयार हो सका क्योंकि वह उस फौज के बारे में था जिसे हिन्दुस्तान के लोग दुश्मन से बचाने वाली मानते हैं। 

अब पुलिस की बात करें, तो लोगों का पुलिस से रोज का वास्ता पड़ता है। लोग अच्छे हों तो भी पड़ता है, बुरे हों तो भी पड़ता है। अब आज सुबह ही हमारे शहर में पुलिस सिपाही दौड़-दौडक़र बिना मास्क पहने लोगों को पकड़ रहे थे, और उनसे जुर्माना ले रहे थे। चाहे लोग ही गलती पर थे, लेकिन चूंकि कार्रवाई पुलिस कर रही है, इसलिए इन लोगों की नाराजगी पुलिस से पैदा होगी। फिर कई जगहों पर लोग सही रहते हैं, और पुलिस गलत रहती है, तो ऐसी वसूली-उगाही, मारपीट और गुंडागर्दी करने वाली पुलिस के खिलाफ लोगों के मन में एक जायज नाराजगी पैदा होती है, और ऐसी किसी नाराजगी का फौज के खिलाफ पैदा होने का कोई मौका ही नहीं आता क्योंकि फौज आम लोगों से दूर रहती है। जिन शहरों में फौजी छावनी भी रहती है, वहां यह टकराव सामने आता है, और कंटोनमेंट वाले शहरों में कई बार फौजी और जनता के बीच टकराव होता है, लेकिन ऐसे शहर देश में गिने-चुने ही हैं। दूर रहने से सम्मान बरकरार रहता है, और पास रहने से पुलिस की खामियां, मुजरिमों के साथ पुलिस की भागीदारी, पुलिस की हिंसा, और पुलिस का खुला या बंद भ्रष्टाचार, यह सब कुछ जनता की नजरों के सामने रहता है। ऐसे में पुलिस के प्रति लोगों के मन में नाराजगी अधिक रहती है, इज्जत कम रहती है। बड़े बुजुर्ग कह भी गए हैं कि थाने और कोर्ट-कचहरी की नौबत न आए, तो ही बेहतर। फिर हिन्दुस्तान में तो सिवाय गब्बर सिंह की बघारी गई अपनी शेखी को छोड़ दें, तो माताएं रोते हुए बच्चे को सुलाने के लिए असल में तो यही कहती हैं कि सो जा, नहीं तो पुलिस आकर ले जाएगी। ऐसी तमाम सांस्कृतिक वजहें हैं जो कि अंग्रेजों के वक्त से चली आ रही हैं, और जो हिन्दुस्तान के आबादी के मन में पुलिस के लिए परले दर्जे की हिकारत जमा चुकी हैं। हमने कुछ दिन पहले कानपुर की घटना के बाद लिखा भी था कि इस वारदात में भी हत्यारे-मुजरिम को पुलिस से ही खबर मिली थी कि उसकी गिरफ्तारी के लिए पुलिस रवाना हो रही है। पुलिसवाले इस कुख्यात और भयानक मुजरिम से इतने मिले हुए थे कि उसने एक थाने में घुसकर दर्जनों अफसरों और छोटे पुलिस कर्मचारियों के बीच यूपी के एक मंत्री की हत्या कर दी थी, लेकिन 19 के 19 गवाह जो कि सारे पुलिस के थे, अदालत में जाकर पलट गए थे, और विकास दुबे नाम का यह मुजरिम बच निकला था। मुजरिमों के साथ ऐसी भागीदारी के चलते पुलिस की इज्जत बहुत गिरी हुई है। उसके कुछ गिने-चुने लोग कुछ अच्छे काम करके तस्वीर को बदलने की कोशिश जरूर कर रहे हैं, लेकिन जब तक एक पुलिस अफसर कुछ दर्जन भूखों को खाना खिला सके, तब तक सैकड़ों पुलिसवाले लोगों को मार-मारकर उनसे वसूली करते रहते हैं। ऐसे में पुलिस के बारे में जनधारणा अच्छी नहीं बन पाती, और यह बात बेवजह भी नहीं रहती है। 

यही वजह है कि अनदेखी फौज की शहादत ने देश के लोगों को विचलित किया, और देश के भीतर, देश के बीच पुलिस की ऐसी हत्या से लोग उस तरह जुड़ नहीं पाए। दोनों वर्दीधारी, बंदूकधारी हैं, दोनों ही कहने के लिए कानून के राज को लागू करने या बचाने का काम करते हैं, लेकिन दोनों के बारे में जनधारणाएं एकदम अलग-अलग है। ऐसा नहीं कि फौज के लोग दूध के धुले हैं, और वहां भ्रष्टाचार बिल्कुल नहीं है। हिन्दुस्तानी फौज के बड़े लोग अपने मातहतों की बीवियों का देह शोषण करते हुए सजा पा चुके हैं, खरीददारी जैसे भ्रष्टाचार में सजा पा चुके हैं, देश के राज दुश्मन देशों को बेचते हुए सजा पा चुके हैं, लेकिन देश की अधिकांश जनता ने फौज का यह चेहरा रूबरू नहीं देखा है। और रूबरू का यह फर्क होता है कि लोग अपने मन में एक धारणा बनाते हैं, बना पाते हैं। 

क्योंकि हिन्दुस्तान में उत्तर-पूर्व के फौजी तैनाती वाले मणिपुर सरीखे राज्य से बाकी हिन्दुस्तान अपने को जोडक़र नहीं देखता, कश्मीर की भारी फौजी तैनाती से बाकी हिन्दुस्तान के लोग अपने को नहीं जोड़ते, इन जगहों पर फौज के जुल्म से भी बाकी हिन्दुस्तान के लोग अपने को नहीं जोड़ते, और मानते हैं कि पत्थर चलाने वालों के साथ और कैसा सुलूक किया जाएगा? इसलिए फौजी शहादत लोगों को विचलित करती है, पुलिस की शहादत उस तरह विचलित नहीं करती। 

अपनी खुद की जिंदगी में लोगों ने पुलिस को जिस तरह देखा है, जिस तरह उसकी हिंसक लाठियों को देखा है, जिस तरह हिरासत में होने वाले कत्ल देखे हैं, जिस तरह बस्तर में बेकसूर आदिवासियों की बस्तियां जलाते देखा है, आदिवासी लड़कियों से बलात्कार करते और नाबालिगों का कत्ल करते देखा है, उससे जनता के बीच पुलिस के लिए हमदर्दी बहुत कम है। यह तमाम बात बड़ी कड़वी लग सकती है, लेकिन जब यह तुलना की जाए कि फौजी शहादत के लिए उपजी हमदर्दी पुलिस की मौत के वक्त कहां चली जाती है, तो यहीं पर साख काम आती है, पूर्वाग्रह काम आता है, और फौज की खामियों से अनजान जनता का अज्ञान भी काम आता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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