विचार / लेख

जब सीधे मौत के मुंह से निकल रायपुर पहुंचे नेहरू
08-Jul-2020 4:05 PM
जब सीधे मौत के मुंह से निकल रायपुर पहुंचे नेहरू

26 फरवरी 1957, समय- सुबह के लगभग 10 बजे। स्थान-गांव येरामरस। चार महीने पहले अस्तित्व में आए कर्नाटक राज्य के जिला मुख्यालय रायचूर से 7 किलोमीटर दूर एक छोटा सा गांव।
स्कूल के हेडमास्टर अपने दफ्तर में व्यस्त थे जब कुछ लोगों की पदचाप सुनकर उन्होंने नजऱ ऊपर की। सामने पंडित जवाहरलाल नेहरू खड़े थे। कुछ क्षण अविश्वास के बीत जाने के बाद जब पुष्टि हो गई कि ये सचमुच देश के प्रधानमंत्री और करोड़ों लोगों के हीरो नेहरू ही हैं तो हेडमास्टर लगभग अचेत हो गए। नेहरूजी को कुर्सी दी गई। बात फैलते समय नहीं लगा और स्कूल के बच्चे और शिक्षक झुंड के रूप में उन्हें घेरकर खड़े हो गए। नेहरूजी ने बच्चों के साथ वार्तालाप प्रारंभ किया। 
ठीक उसी समय पूर्वी मध्यप्रदेश (अब छत्तीसगढ़) में रायपुर में नेहरूजी की अगवानी करने के लिए लोग बेसब्र हो रहे थे। इस समय नेहरूजी को रायपुर में होना चाहिए था। 
1957 में देश में दूसरा आम चुनाव हुआ था और इसी सिलसिले में नेहरूजी दक्षिण भारत में चुनाव प्रचार के लिए गए थे। उस दिन के तय कार्यक्रम के अनुसार पंडित नेहरू को सुबह मैंगलोर से अपनी यात्रा शुरू कर जबलपुर पंहुचना था। बीच में विमान को रायपुर में उतरना था ईंधन लेने के लिए। साथ में पंडितजी का भी भोजन रायपुर में ही होना था। 
रायपुर के माना ऐरोड्रोम में हल्के पीले रंग का एक दुमंजिला भवन था जिसकी छत पर सिग्नल रिसीव करने के लिए उपकरण लगे थे। भवन अब भी है। रायपुर में उन दिनों व्यवसायिक हवाई सेवा शुरू नहीं हुई थी। यह भवन मुख्य रूप से ऐरोड्रोम का कंट्रोल रूम (या टावर) था जिसका उपयोग फ्लाईंग क्लब की गतिविधियों के संचालन के लिए भी किया जाता था। इसी भवन के निचली फ्लोर के कमरों का मौके-बेमौके पंहुचे किसी वीआईपी के लिए भी उपयोग हो जाता था। 
नेहरूजी के लिए 26 फरवरी 1957 के दोपहर के भोजन की व्यवस्था इन्ही कमरों में की गई थी। 
मध्यप्रदेश में उन दिनों सब कुछ बहुत व्यवस्थित नहीं था। कर्नाटक की ही तरह नया मध्यप्रदेश भी 1 नवम्बर 1956 को अस्तित्व में आया था। चार महीने भी पूरे नहीं हुए थे। पहले दो महीने मुख्यमंत्री रहे पंडित रविशंकर शुक्ल की मृत्यु 31 दिसम्बर के दिन हो गई थी। जनवरी का माह भगवंत राव मंडलोई ने कार्यकारी मुख्यमंत्री के रूप में बिताया। 31 जनवरी को दिल्ली से आकर डॉ. कैलाश नाथ काटजू ने मुख्यमंत्री पद संभाला किन्तु मध्यप्रदेश उनके लिए बहुत परिचित स्थान नहीं था। पुरानी राजधानी नागपुर की अपेक्षा भोपाल के साथ आवागमन कठिन होने के कारण दूरी का अहसास अधिक था। 
जब नेहरूजी के कार्यक्रम की जानकारी भोपाल पंहुची तो डॉ. काटजू ने तत्काल रायपुर में प्रधानमंत्री के आवभगत और भोजन की जिम्मेदारी अपने मंत्रिमंडल के सहयोगी राजा नरेशचन्द्र सिंहजी को सौंप दी। राजा साहब छत्तीसगढ़ के थे और और उनके पिता सारंगढ़ के राजा जवाहिर सिंह नेहरूजी के घनिष्ठ मित्र भी रह चुके थे और यह बात डॉ. काटजू को ज्ञात थी। 
जिम्मेदारी मिलने के बाद राजा साहब ने वही किया जो उन्हें जानने वालों को उनसे अपेक्षा थी। बिलासपुर सर्किट हाऊस के खानसामा श्री बेनेट को इस अवसर पर भोजन तैयार करने के लिए रायपुर बुला लिया गया। सारंगढ़ के गिरिविलास महल से एक ट्रक में भरकर कॉकरी, कटलरी और अन्य सामग्रियों के साथ स्टाफ को बुलवा लिया गया। 
रायपुर में पंडितजी के भोजन की तैयारी तो पूरी हो गई लेकिन पंडित नेहरू के पंहुचने का नियत समय पार हो चुका था और कुछ अता-पता नहीं मिलने से चिंता भी फैलने लगी थी। फोन पर सम्पर्क आसान नहीं था। फिर भी इतना पता चल चुका था कि सुबह साढ़े आठ बजे प्रधानमंत्री का विमान मैंगलोर से उड़ चुका था। 
रायपुर में चिंता में डूबे लोगों को यह जानने का कोई साधन नहीं था कि ठीक उसी समय नेहरूजी मौत के मुंह से निकलकर कर्नाटक के रायचूर के पास येरामरस गांव में बच्चों के साथ बातचीत में समय व्यतीत कर रहे थे। 
पंडितजी की यात्रा मेघदूत नामक विमान में शुरू हुई थी। यह दरअसल ‘इल्यूशिन आई एल-14’ विमान था जिसे रूसी प्रधानमंत्री बुल्गानिन ने भारतीय प्रधानमंत्री को दिसम्बर 1953 में भेंट के रूप में दिया था। नेहरूजी ने ही इसका नामकरण मेघदूत किया था। 
उस दिन हवा में लगभग आधा घंटा ही बीता था कि एक एंजिन से धुंआ निकलना शुरू हुआ जो देखते देखते आग की लपटों में तब्दील हो गया। खतरा यह था कि आग की लपटें यदि फ्यूल टैंक को गर्म कर देतीं तो पलक झपकते विमान स्वाहा हो जाता। 
उन दिनों प्रधानमंत्री के साथ यात्रा करने वालों की संख्या बहुत नहीं होती थी। उनके सुरक्षा अधिकारी, कार्यालयीन सहायक और एक निजी अनुचर- शायद हरि नाम था। उस दिन विदेश मंत्रालय में उपसचिव जगत मेहता (जो आगे चलकर विदेश सचिव बने) और समाचार एजेंसी पी.टी.आई. के संवाददाता बी.आर.वत्स भी साथ थे। इनके अलावा एक फ्लाईट इंजीनियर और नेविगेटर थे। पायलट थे एयर फोर्स के एक एंग्लो-इंडियन स्चड्रन लीडर आर.ए. रफस।
पारसी सुरक्षा अधिकारी श्री के.एफ. रुस्तमजी (पद्मविभूषण) मध्यप्रदेश कैडर के पुलिस अधिकारी थे और 1971 में बांग्लादेश के आजादी के आंदोलन में पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली विद्रोहियों को ट्रेनिंग देकर मुक्ति वाहिनी नाम की सशस्त्र प्रतिरोध सेना खड़ी करने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे सीमा सुरक्षा दल-बी.एस.एफ.-के प्रथम मुखिया थे। श्री रुस्तमजी ने अपनी डायरी (आय वॉज नेहरूज़ शैडो) में लिखा कि जब विमान में आग लगने और उस कारण एक एंजिन के नष्ट हो जाने की सूचना देने वे पंडित नेहरू के पास पहुंचे तब वे वी.के. कृष्णा मेनन का भाषण पढ़ रहे थे (श्री मेनन संयुक्त राष्ट्र संघ में भारतीय दल के नेता थे और ठीक एक महिना पहले कश्मीर के विषय में भारत का पक्ष रखते हुए उन्होंने आठ घंटे का धुआंधार भाषण दिया था। बीच में वे एक बार बेहोश हुए और लौटकर अपना भाषण जारी रखा था। उनका बनाया आठ घंटे का रिकॉर्ड अब तक टूटा नहीं)। 
एंजिन फेल होने की सूचना पा कर नेहरू जी के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आयी और उन्होंने कहा- ‘डोन्ट वरी, रफस विल मैनेज’। उन्हें अपने पायलट की काबिलियत पर पूरा यकीं था। 
विमान में बीत रहा एक एक क्षण घातक था। नेविगेटर ने रजिस्टर देख कर बताया कि बीस किलोमीटर पर रायचूर के पास 1942 की निर्मित एक हवाई पट्टी है किन्तु दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से उसके उपयोग की कोई जानकारी नहीं है। पायलट ने कहा हम उतरने का प्रयास कर सकते हैं किन्तु पास से देखने पर यदि हवाई पट्टी लैन्ड करने लायक नहीं मिली तो एक एंजिन के दम पर विमान को दोबारा ऊपर ले जाना संभव नहीं होगा। उस समय सुरक्षा अधिकारी एक संभावना को ले कर बेहद परेशान थे। उनका आंकलन था कि एंजिन में लगी आग यदि जानबूझ कर किसी षड्यंत्र, किसी ‘सैबटाज’ का नतीजा थी तो प्रबल संभावना थी कि दूसरा एंजिन भी शीघ्र फेल होगा। 
अंतत: निर्णय लिया गया कि जो भी हो रायचूर की इस पट्टी पर उतरना ही है। 
विमान के रुकने पर दरवाजा खुला तो देखा सामने एक व्यक्ति हाथ में डण्डा लिए खड़ा था। विस्मित व्यक्ति गांव का चौकीदार था। नेहरूजी ने नीचे उतरकर एंजिन का मुआयना किया, पायलट का धन्यवाद ज्ञापित किया और पथ-प्रदर्शक चौकीदार के साथ स्कूल पंहुचे थे। चौकीदार की साइकिल चलाते हुए रुस्तमजी पास के रेलवे स्टेशन पंहुचे और वहां से रायचूर के कलेक्टर को सूचना दी। दो घंटे के बाद हैदराबाद से एयरफोर्स के दो डकोटा विमान आए जिनमें नेहरूजी और साथी विलम्ब से रायपुर पंहुचे। 
भोजन के बाद नेहरूजी ने श्री बेनेट को बुला कर स्वादिष्ट भोजन के लिए धन्यवाद कहा और धीरे से श्री रुस्तमजी से पूछा ‘टिप दी?’। नेहरू जी के अपने स्टाफ को ये स्थायी आदेश थे कि जहाँ भी वे भोजन करें, शेफ को बुलाकर उनसे भेंट कराई जाए और उनके निजी खाते से टिप दी जाए। 
रायपुर में इस दौरान किसी को एक्सीडेंट की जानकारी नहीं हो पाई थी। किन्तु रायपुर से उड़ कर जब तक उनका विमान जबलपुर पंहुचा, पी.टी.आई. वाले वत्सजी की खबर पहुंच चुकी थी। एक अखबार ने अपना एक विशेष संस्करण छाप दिया था। कहना न होगा विमान तल में उस दिन अपेक्षा से कहीं अधिक भीड़ इकट्ठा थी।

इस कथा का उत्तर काण्ड 
पायलट कैप्टन रफस ने जिस त्वरित निर्णय क्षमता और धैर्य का परिचय देते हुए बिना जमीनी सहायता के, उबड़-खाबड़ पट्टी पर कुशलता से विमान को लैन्ड कराया उसके कारण बाद में उन्हें अशोक चक्र प्रदान किया गया। 
यह विमान रूसी प्रधानमंत्री बुल्गानिन ने भेंट किया था। दुर्घटना के कारण उन्होंने बहुत लज्जित महसूस किया और भारत को एक और विमान भेंट करने की पेशकश की। पंडित नेहरू रूसियों को और अधिक असुविधाजनक स्थिति में नहीं डालना चाहते थे। उन्होंने पेशकश स्वीकार कर ली।
दुर्घटनाग्रस्त विमान रायचूर हवाई पट्टी पर एक सप्ताह खड़ा रहा। नए बने कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के दूर-दराज इलाकों से हजारों लोग इस बीच इस विमान का दर्शन करने पंहुचे।
-डॉ. परिवेश मिश्रा, 
गिरिविलास पैलेस, सारंगढ़

 

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news